पहला भाग
शब्दों को छोड़कर आइए अब ज़रा विज्ञापन की दुनिया का जायज़ा लें । नारी शरीरों की निर्वस्त्रता पर नारी संगठन और संस्कृतिदार पुरूष अपना विरोध कई तरह से प्रकट करते आए हैं व कर रहे हैं । मगर, कई बैंको और फाइनेंस कंपनियों के दर्जनों ऐसे विज्ञापन पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टीवी पर देखने-सुनने-पढ़ने को मिलते हैं, जिनमें प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से दहेज व अन्य स्त्री विरोधी कुप्रथाओं को बढ़ावा दिया जाता है ।
फिल्मों में देखिए । वहां भी यही हाल है । हमारा नायक अक्सर बहन, बेटी या पड़ोसन के लिए कहीं-न-कहीं से दहेज जुटाकर समस्या की जड़ में जाने की बजाय उसे टालने में अपनी सार्थकता समझता है । इक्का-दुक्का फिल्मों में ही लालची वर-पक्ष को दुत्कार कर किसी आदर्श पुरूष से कन्या का विवाह करने के उदाहरण देखने को मिलते हैं । मुझे याद नहीं कि कभी किसी नारी संगठन ने ऐसे विज्ञापनों या ऐसी फिल्मों का विरोध किया हो । स्त्री का आंचल पौन इंच भर ढलक जाने पर हाय-तौबा मचाने वाले सभ्यजनों को उक्त दृश्यों का विरोध करने के नाम पर क्यों सांप सूंघ जाता है ? क्या कभी किसी नारी संगठन का ध्यान इस ओर नहीं गया कि फिल्मों में किस तरह नारी के अंतर्वस्त्र ब्रेज़ियर को मज़ाक की वस्तु बनाया जाता रहा है (ताजा उदाहरण दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे) । नारी का अंतर्वस्त्र आखिर हास्य का साधन क्यों और कैसे हो सकता है ? क्या यह सोच अश्लील और विकृत नहीं है ?
इसके अलावा कई फिल्मों में दिखाया जाता है कि नायक नायिका के कम कपड़ों पर ऐतराज करता है और उसके भावुकतापूर्ण भाषण से प्रभावित होकर नायिका तुरंत अगले ही दृश्य में साड़ी में लिपटी दिखाई देती है । मगर, अगले गाने में ही वह नायक के साथ ही, और भी कम, लगभग नाममात्र के वस्त्रों में नायक से लिपटती-चिपटती और कामुकतापूर्ण झटके मारती दिखाई पड़ती है । तब न तो नायक ऐतराज करता है, न दर्शक बुरा मानते हैं । एक अन्य आम दृश्य में नायक द्वारा शरीर की मांग करने पर नायिका अपनी सभ्यता-संस्कृति को लेकर लंबा-चैड़ा भाषण देती है । तब नायक प्रभावित होता है और दोनों में ‘सच्चा प्रेम’ हो जाता है । अगले गाने में वे लगभग वस्त्रहीन नाचने लगते हैं । अब तक नायिका तो अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूल ही चुकी होती है, दर्शक भी इसको लगभग धार्मिक फिल्म की ही तरह श्रद्वापूर्वक देखने लगते हैं । ज्यादातर फिल्मों में, नायक अक्सर कई दूसरी स्त्रियों के साथ लिपटता-चिपटता रहता है और नायिका अकेली पड़ी उसका इंतजार करती रहती है । जिन दूसरी स्त्रियों के साथ नायक लगभग केलिक्रीड़ा जैसे दृश्य प्रस्तुत करता है, क्या वे किसी की बहन-बेटियां नहीं होतीं ?
क्या हमारी सभ्यता-संस्कृति यही कहती है कि बस अपनी मां-बहन-बेटी को ही कै़द में बंद कर दो और फिर बाकी सभी स्त्रियों को अपनी जायदाद समझो । इन दृश्यों को देखकर हमारे धर्मध्वजियों व नारी संगठनों के माथे पर शिकन तक नहीं आती । उक्त तीनों नियमित दृश्यों में मौजूद विरोधाभास ही इस साज़िश की पोल खोल देते हैं कि किस तरह सभ्यता, संस्कृति, परिवार, धर्म आदि बडे़-बडे़ शब्दों की आड़ में स्त्री को गुलाम बनाए रखने की चालाकी खेली जा रही है । दिलचस्प बात यह है कि परिवार, मर्यादा इत्यादि का सारा ठेका देवी स्त्री को दिया गया है और दुनिया भर के अच्छे-बुरे सभी आनंद लेने की ’ज़िम्मेदारी ’देवता पुरूष को दी गई है ।
नारी मुक्ति के संदर्भ में एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि बहुत से पुरूष यह मानते और कहते हैं कि नारी तो मुक्त हो चुकी । अब बचा क्या है । वह नौकरी करती है, घूमती है, खाती-पीती है, फिल्म देखती है । पुलिस में, हवाई जहाज में, पानी के जहाज़ पर काम करती है अर्थात् पुरूष के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है । ज़ाहिर है कि पुरूष इसे पूर्ण मुक्ति के संदर्भ में देखने की बजाय उसकी पूर्व स्थिति की तुलना में बेहतर वर्तमान स्थिति को देखकर यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं । पहली बात तो यह है कि जब भी होगी नारी मुक्ति पुरूष वर्चस्व पर सिर्फ प्रतिक्रिया मात्र नहीं होगी । हां, जब नारी पुरूष से मुक्त हो जाएगी, तब ही वह अपने लिए वास्तविक मुक्ति की तलाश और कोशिश शुरू कर पाएगी। और इस प्रक्रिया में अभी खासा लंबा समय लगने वाला है ।
फिर भी, यहां हम पुरुष की तुलना में नारी की सही स्थिति को जानने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। क्या नारी आज भी अकेली फिल्म देखने जा सकती है? क्या वह पुरुष की तरह बेधड़क पार्क में घूम सकती है? क्या वह किसी अजनबी शहर में कमरा लेकर अकेली रह सकती है? क्या वह लड़कों की तरह बेतकल्लुफी से अपनी मित्रों के गले में हाथ डाले ‘हा हा हू हू’ करते हुए शहर की सड़कों-चौराहों पर घूम सकती है? क्या तपती-सुलगती गर्मी में पुरुष की ही तरह स्त्री भी वस्त्र उतार कर दो-घड़ी चैन की सांस ले सकती है? उक्त में से कोई भी कार्य करने पर समाज द्वारा उसे चालू, चरित्रहीन, वेश्या, सनकी, पागल या संदिग्ध-चरित्र करार दे दिए जाने की पूरी-पूरी संभावना है। सुनने-पढने में यह सब अटपटा, अजीब या अश्लील लग सकता है। मगर स्त्री भी उसी हांड़-मांस की इंसान है और बिलकुल पुरुष की तरह ही उसकी भी इच्छाएं और तकलीफें हैं। वह कोई मशीन या जानवर नहीं है, जिस पर सर्दी-गर्मी का कोई असर ही न होता हो।
मगर प्रतिक्रियावाद हमेशा ही अपने साथ कई विसंगतियों को भी लाता है। ऐसी ही एक ख़तरनाक विसंगति है यह कहा जाना कि ‘तुम स्त्री होकर भी स्त्री का विरोध करती हो’। यह एक नए किस्म का जातिवाद है। स्त्री भी एक इंसान है और पुरुष की तरह वह भी कभी सही तो कभी ग़लत होगी ही, मगर हम हमेशा नई-नई जातियां या वर्ण गढ़ते रहते हैं। यथा डाॅक्टर हमेशा डाॅक्टर को सही कहे, व्यंग्यकार व्यंग्यकारों पर व्यंग्य न लिखें, पत्रकार एकता ज़िन्दाबाद, दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ, दलित दलित को ग़लत न कहें, वगैरहा-वगैरहा। पहले ही जाति, धर्म, संप्रदाय आदि के झगड़ों ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। मगर हम हैं कि मानते ही नहीं।
स्त्री की मुक्ति के साथ-साथ हमारे सामाजिक-नैतिक मानदंडों, साहित्यिक प्रतिबद्धताओं, कला संबंधी प्रतिमानों सहित हर क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर बदलाव आ जाएंगे, जिसका फिलहाल हमें ठीक से अंदाज़ा भी नहीं है। हो सकता है कि आने वाले समय में हमें यह जानने को मिले कि जिसे हम स्त्री का स्वभाव समझ रहे थे, उसमें से अधिकांश उस पर जबरन थोपा गया था। ‘लोग क्या कहेंगे’ या ‘समाज क्या कहेगा’ आदि डरों की वजह से इन प्रक्रियाओं में अनुपस्थित रहने के बजाय हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपने विवेक और तर्कबुद्धि से ही इस बाबत निर्णय लेने होंगे। इतिहास गवाह है कि जो लोग इन सामाजिक परिवर्तनों और सुधारों को धर्म व शास्त्र विरुद्ध कहकर इनकी आलोचना करते हैं, बदलाव आ चुकने और समाज के बहुलांश द्वारा इन्हें अपना चुकने के बाद वही लोग अगुआ बनकर इसका ‘क्रेडिट’ लेने की कोशिश भी करते हैं। विरोध, आलोचना और अकेले पड़ जाने के डर से अगर सभी चिंतक अपने चिंतन और उस पर पहलक़दमी करने के इरादों को कूड़े की टोकरी में डालते आए होते तो आदमी आज भी बंदर बना पेड़ों पर कूद रहा होता।
-संजय ग्रोवर
(समाप्त)
पहला भाग
{7 मार्च 1997 को अमरउजाला (रुपायन) में प्रकाशित}
शब्दों को छोड़कर आइए अब ज़रा विज्ञापन की दुनिया का जायज़ा लें । नारी शरीरों की निर्वस्त्रता पर नारी संगठन और संस्कृतिदार पुरूष अपना विरोध कई तरह से प्रकट करते आए हैं व कर रहे हैं । मगर, कई बैंको और फाइनेंस कंपनियों के दर्जनों ऐसे विज्ञापन पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टीवी पर देखने-सुनने-पढ़ने को मिलते हैं, जिनमें प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से दहेज व अन्य स्त्री विरोधी कुप्रथाओं को बढ़ावा दिया जाता है ।
फिल्मों में देखिए । वहां भी यही हाल है । हमारा नायक अक्सर बहन, बेटी या पड़ोसन के लिए कहीं-न-कहीं से दहेज जुटाकर समस्या की जड़ में जाने की बजाय उसे टालने में अपनी सार्थकता समझता है । इक्का-दुक्का फिल्मों में ही लालची वर-पक्ष को दुत्कार कर किसी आदर्श पुरूष से कन्या का विवाह करने के उदाहरण देखने को मिलते हैं । मुझे याद नहीं कि कभी किसी नारी संगठन ने ऐसे विज्ञापनों या ऐसी फिल्मों का विरोध किया हो । स्त्री का आंचल पौन इंच भर ढलक जाने पर हाय-तौबा मचाने वाले सभ्यजनों को उक्त दृश्यों का विरोध करने के नाम पर क्यों सांप सूंघ जाता है ? क्या कभी किसी नारी संगठन का ध्यान इस ओर नहीं गया कि फिल्मों में किस तरह नारी के अंतर्वस्त्र ब्रेज़ियर को मज़ाक की वस्तु बनाया जाता रहा है (ताजा उदाहरण दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे) । नारी का अंतर्वस्त्र आखिर हास्य का साधन क्यों और कैसे हो सकता है ? क्या यह सोच अश्लील और विकृत नहीं है ?
इसके अलावा कई फिल्मों में दिखाया जाता है कि नायक नायिका के कम कपड़ों पर ऐतराज करता है और उसके भावुकतापूर्ण भाषण से प्रभावित होकर नायिका तुरंत अगले ही दृश्य में साड़ी में लिपटी दिखाई देती है । मगर, अगले गाने में ही वह नायक के साथ ही, और भी कम, लगभग नाममात्र के वस्त्रों में नायक से लिपटती-चिपटती और कामुकतापूर्ण झटके मारती दिखाई पड़ती है । तब न तो नायक ऐतराज करता है, न दर्शक बुरा मानते हैं । एक अन्य आम दृश्य में नायक द्वारा शरीर की मांग करने पर नायिका अपनी सभ्यता-संस्कृति को लेकर लंबा-चैड़ा भाषण देती है । तब नायक प्रभावित होता है और दोनों में ‘सच्चा प्रेम’ हो जाता है । अगले गाने में वे लगभग वस्त्रहीन नाचने लगते हैं । अब तक नायिका तो अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूल ही चुकी होती है, दर्शक भी इसको लगभग धार्मिक फिल्म की ही तरह श्रद्वापूर्वक देखने लगते हैं । ज्यादातर फिल्मों में, नायक अक्सर कई दूसरी स्त्रियों के साथ लिपटता-चिपटता रहता है और नायिका अकेली पड़ी उसका इंतजार करती रहती है । जिन दूसरी स्त्रियों के साथ नायक लगभग केलिक्रीड़ा जैसे दृश्य प्रस्तुत करता है, क्या वे किसी की बहन-बेटियां नहीं होतीं ?
क्या हमारी सभ्यता-संस्कृति यही कहती है कि बस अपनी मां-बहन-बेटी को ही कै़द में बंद कर दो और फिर बाकी सभी स्त्रियों को अपनी जायदाद समझो । इन दृश्यों को देखकर हमारे धर्मध्वजियों व नारी संगठनों के माथे पर शिकन तक नहीं आती । उक्त तीनों नियमित दृश्यों में मौजूद विरोधाभास ही इस साज़िश की पोल खोल देते हैं कि किस तरह सभ्यता, संस्कृति, परिवार, धर्म आदि बडे़-बडे़ शब्दों की आड़ में स्त्री को गुलाम बनाए रखने की चालाकी खेली जा रही है । दिलचस्प बात यह है कि परिवार, मर्यादा इत्यादि का सारा ठेका देवी स्त्री को दिया गया है और दुनिया भर के अच्छे-बुरे सभी आनंद लेने की ’ज़िम्मेदारी ’देवता पुरूष को दी गई है ।
नारी मुक्ति के संदर्भ में एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि बहुत से पुरूष यह मानते और कहते हैं कि नारी तो मुक्त हो चुकी । अब बचा क्या है । वह नौकरी करती है, घूमती है, खाती-पीती है, फिल्म देखती है । पुलिस में, हवाई जहाज में, पानी के जहाज़ पर काम करती है अर्थात् पुरूष के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है । ज़ाहिर है कि पुरूष इसे पूर्ण मुक्ति के संदर्भ में देखने की बजाय उसकी पूर्व स्थिति की तुलना में बेहतर वर्तमान स्थिति को देखकर यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं । पहली बात तो यह है कि जब भी होगी नारी मुक्ति पुरूष वर्चस्व पर सिर्फ प्रतिक्रिया मात्र नहीं होगी । हां, जब नारी पुरूष से मुक्त हो जाएगी, तब ही वह अपने लिए वास्तविक मुक्ति की तलाश और कोशिश शुरू कर पाएगी। और इस प्रक्रिया में अभी खासा लंबा समय लगने वाला है ।
फिर भी, यहां हम पुरुष की तुलना में नारी की सही स्थिति को जानने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। क्या नारी आज भी अकेली फिल्म देखने जा सकती है? क्या वह पुरुष की तरह बेधड़क पार्क में घूम सकती है? क्या वह किसी अजनबी शहर में कमरा लेकर अकेली रह सकती है? क्या वह लड़कों की तरह बेतकल्लुफी से अपनी मित्रों के गले में हाथ डाले ‘हा हा हू हू’ करते हुए शहर की सड़कों-चौराहों पर घूम सकती है? क्या तपती-सुलगती गर्मी में पुरुष की ही तरह स्त्री भी वस्त्र उतार कर दो-घड़ी चैन की सांस ले सकती है? उक्त में से कोई भी कार्य करने पर समाज द्वारा उसे चालू, चरित्रहीन, वेश्या, सनकी, पागल या संदिग्ध-चरित्र करार दे दिए जाने की पूरी-पूरी संभावना है। सुनने-पढने में यह सब अटपटा, अजीब या अश्लील लग सकता है। मगर स्त्री भी उसी हांड़-मांस की इंसान है और बिलकुल पुरुष की तरह ही उसकी भी इच्छाएं और तकलीफें हैं। वह कोई मशीन या जानवर नहीं है, जिस पर सर्दी-गर्मी का कोई असर ही न होता हो।
मगर प्रतिक्रियावाद हमेशा ही अपने साथ कई विसंगतियों को भी लाता है। ऐसी ही एक ख़तरनाक विसंगति है यह कहा जाना कि ‘तुम स्त्री होकर भी स्त्री का विरोध करती हो’। यह एक नए किस्म का जातिवाद है। स्त्री भी एक इंसान है और पुरुष की तरह वह भी कभी सही तो कभी ग़लत होगी ही, मगर हम हमेशा नई-नई जातियां या वर्ण गढ़ते रहते हैं। यथा डाॅक्टर हमेशा डाॅक्टर को सही कहे, व्यंग्यकार व्यंग्यकारों पर व्यंग्य न लिखें, पत्रकार एकता ज़िन्दाबाद, दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ, दलित दलित को ग़लत न कहें, वगैरहा-वगैरहा। पहले ही जाति, धर्म, संप्रदाय आदि के झगड़ों ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। मगर हम हैं कि मानते ही नहीं।
स्त्री की मुक्ति के साथ-साथ हमारे सामाजिक-नैतिक मानदंडों, साहित्यिक प्रतिबद्धताओं, कला संबंधी प्रतिमानों सहित हर क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर बदलाव आ जाएंगे, जिसका फिलहाल हमें ठीक से अंदाज़ा भी नहीं है। हो सकता है कि आने वाले समय में हमें यह जानने को मिले कि जिसे हम स्त्री का स्वभाव समझ रहे थे, उसमें से अधिकांश उस पर जबरन थोपा गया था। ‘लोग क्या कहेंगे’ या ‘समाज क्या कहेगा’ आदि डरों की वजह से इन प्रक्रियाओं में अनुपस्थित रहने के बजाय हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपने विवेक और तर्कबुद्धि से ही इस बाबत निर्णय लेने होंगे। इतिहास गवाह है कि जो लोग इन सामाजिक परिवर्तनों और सुधारों को धर्म व शास्त्र विरुद्ध कहकर इनकी आलोचना करते हैं, बदलाव आ चुकने और समाज के बहुलांश द्वारा इन्हें अपना चुकने के बाद वही लोग अगुआ बनकर इसका ‘क्रेडिट’ लेने की कोशिश भी करते हैं। विरोध, आलोचना और अकेले पड़ जाने के डर से अगर सभी चिंतक अपने चिंतन और उस पर पहलक़दमी करने के इरादों को कूड़े की टोकरी में डालते आए होते तो आदमी आज भी बंदर बना पेड़ों पर कूद रहा होता।
-संजय ग्रोवर
(समाप्त)
पहला भाग
abhi abhi mail par poora lekh ek baar mein padh gayi...sahi kaha aapne vigyaapano aur filmo mein naari ki ek stereotype image bani hui hai...isi tarah television ki duniya ka bhi yahi haal hai jaise agar heroine hamesha suit ya saari pahenegi aur vamp hamesha western kapdo mein hogi...
जवाब देंहटाएंFauziya, is mamle me vaise kafi badlav aa chuka hai. Lekh 13-14 saal purana hai. Is dauran kuchhek chhote-mote badlaw aaye haiN to swagat yogya haiN.
जवाब देंहटाएंmere khyaal se naari ko naari rahne den....meri daadi,naani our maan rahnen den...maine sabse jyaada ooojya inhin ko paya hai...
जवाब देंहटाएंसंजय जी,
जवाब देंहटाएंनरी मुक्ति की बात शुरू हुए सदी बीत गई| सबसे अहम् बात की स्त्री शरीर की प्राकृतिक संरचना पुरुष से अलग है, इसलिए हर बात में बराबरी मुमकिन नहीं| सिर्फ समानांतर चलने की बात है जहाँ पुरुष के समान सभी अधिकार हों| लेकिन जब भी कोई इस बात को कहता तो उसे नारीवादी कह दिया जाता, जैसे की नारी के पक्ष में बोलना भी एक गाली हो| पुरुष की भोगवादी प्रवृति का परिणाम है कि फिल्म हो या विज्ञापन स्त्री शरीर को प्रदर्शित किया जाता है| आख़िर वजह क्या है कि नवजात कन्या से लेकर ८० साल की वृद्ध स्त्री असुरक्षित है या उनका भी बलात्कार होता| क्या उनमें भी कामुकता दिखती? बहुत सारे सवाल हैं जिनका जवाब जानते हुए भी हम पूछ नहीं सकते| और पूछे भी तो किससे? कन्या भ्रूण हत्या की बात होती, क़ानून बनाये गये, पर कभी इसके ठोस वजह को तलाशा न गया| बलात्कार, दहेज़, दहेज़ उत्पीड़न, गरीबी, और सबसे बढ़कर पुरुषवादी सामजिक सोच इन सबके लिए जवाबदेह है| जब तक स्त्री पुरुष महज इंसान बनकर नहीं सोचेंगे किसी सवाल का न हल मिलेगा न समस्या से निजात|
बहुत अच्छा आलेख, शुभकामनाएं!
बधाई संजय जी नारी विमर्श को लेकर इतना सोच-विचार करने के लिए.I
जवाब देंहटाएंनारी की आजादी बाह्य नहीं अपितु आतंरिक पटल से जुडी है I नारी, बेटी, बहन, पत्नी, माँ सब कुछ है, अगर नहीं है तो बस ‘इंसान’ नहीं है, मानवी नहीं है I चलती फिरती, कर्त्तव्य निबाहती एक मशीन है,जो यदि कर्त्तव्यवहन में कभी किसी तरह की कोताही कर बैठे तो ताड़ना, आलोचना और अमानवीय बर्ताव का शिकार बनती है I जो विचारशील समाजशास्त्री, समाज-सेवी संगठन, महिला संगठन, प्रताडित, अन्याय का शिकार हुई नारी की पैरवी भी करते हैं तो उनके प्रयास अस्थाई रूप से एक सीमा तक कारगर तो सिध्द होते है,लेकिन अंतत: उनकी आवाज़, उनका विद्रोह भी सदियों से चली आ रही सामाजिक रीतियों, रस्मों - रिवाज़ और परम्पराओं के विशाल समुद्र में गुम होकर रह जाता है I आज औरत देह के स्तर पर जो तथाकथित आज़ाद रूप अपनाए नज़र आती है, अगर थोड़ा गहराई से सोचे, उसकी ‘आज़ादी’ के रूप का विश्लेषण करें तो आप पाएगें कि उसे छोटे-छोटे कपडे पहना कर नचाना,गवाना, उसका यौन शोषण करना पुरुष शासित समाज द्वारा औरत के देह-दोहन का प्रमाण है I जब तक पुरुष का ज़मीर नहीं जागेगा, उसकी चेतना करवट नहीं लेगी, तब तक ‘नारी-विमर्श’ फोरम के तहत आयोजित कार्यक्रम, व्याख्यान तथा विविध कार्यवाहियां सपाट ही जाएगीं I नारी की स्थिति में सुधार तभी आएगा, जब समझदार पुरुष वर्ग कुंठित मनोवृति वाले पुरुषों की मानसिकता बदलने में सहयोग दे और नारी को मनुष्य /मानवी मानने की दृष्टि विकसित करें I पुरुष के बढ़ते ''अतिरिक्त'' वर्चस्व को सही तरह से रोकने के '' परिणामोन्मुख'' प्रयास किए जाएं I पुरुष व्यक्तिगत, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर नारी के प्रति अपनी कुंठित मनोवृति और रूढ़िवादी सोच को बदले, समाप्त करे I जब तक पुरुषसत्तात्मकता अपने मन में संजो कर रखी नारी के प्रति अपने ''सामंती सोचों'' को नहीं काट फेकेगी , तब तक नारी इंसान के रूप में अपने को स्वतन्त्र महसूस नही कर सकेगी I
दीप्ति गुप्ता
by email
बहुत बढिया विश्लेषण पढने को मिला ।
जवाब देंहटाएंजब तक नारी देह से मुक्त नहीं होती , नारी मुक्ति संभव नहीं । जब तक पुरुष चित्त काम दमित रहेगा वह नारी को उसकी देह के प्रति सहज भाव नहीं रखने देगा । सौंदर्य के प्रतिमानों का पालन करने के लिए नारी मजबूर और लालायित है । क्योंकि यह पुरुष की मॉंग है , समाज का ढंग है । इन सबके टूटे बिना नारी की वास्तविक मुक्ति सम्भव नहीं । लेकिन यह कैसे होगा ।
दमित चित्त की डिमांड उसकी देह को बाजार की वस्तु बना देते हैं । फिर सारा कारोबार चलता है । हम जो भी बदलाव चाहते हैं वह सिर्फ पत्ते तोडने जैसे हैं । आज ऐसे उदाहरण सामने आते हैं कि नारी पढी लिखी भी है , सक्षम भी है फिर भी हिंसा का शिकार होती है । परिवार से प्रताडित होती है । बलात्कार , छेडछाड , बच्चों का यौन शोषण हर दिन अखबारों में पढने को मिलते हैं ।
आज देख लीजिए अपने शरीर को सौंदर्य के नाम पर तरह तरह की यातनाओं, सर्जरी से गुजारने वाली नारियॉं यद्यपि स्वतंत्रतापूर्वक यह सब करती हैं । लेकिन क्या इसे मुक्ति कहा जा सकता है । नारी कपडों से मुक्त हो रही है लेकिन देह से नहीं । परिवार से मुक्त हुई नारी को बाजार हडप रहा है ।
वास्तव में हम जो बात करते हैं , जिस तरह के समाधान देखते हैं वह पत्ते तोडने वाले समाधान हैं । जब तक काम दमित पुरुष चित्त समाज में बना रहेगा , नारी मुक्ति सम्भव नहीं है । पुरुष को दोष देने से भी कोई समस्या हल होने वाली नहीं है । लेकिन समाज के ऐसे कौन से ढंग हैं जो इस तरह का चित्त पैदा करते हैं । उन कारणों को खोजकर जब तक बच्चों की प्राथमिक शिक्षा से ही उपाय नहीं किए जाऍंगे , बुनियादी बदलाव नहीं होंगे ।
इन सब बातों के अलावा गरीबी, अशिक्षा एक बडी वजह है । कुछ महानगरों को छोडकर भारत आज भी गॉंव कस्बों का देश है । और वहीं सबसे ज्यादा ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है । क्योंकि परिवार के कैदखाने नारी के लिए वहीं सबसे ज्यादा मजबूत हैं ।
मुझे अकसर लगता है कि बेहतर जीवन स्तर और विकास पहली मूलभूत आवश्यकता है । जिन क्षेत्रों में यह हो गया है , वहीं यह सब बाते प्रासंगिक हैं । क्योंकि नारी तभी इन सब सोचों को अपनी जीवन में उतार सकती है , जब वह स्वावलंबी हो ।
आभार ।
bahut hi gambhir chintan.........zabardast aalekh.
जवाब देंहटाएंbahut achha.
जवाब देंहटाएंसही हालात को उजागर करती पोस्ट!
जवाब देंहटाएंआपने जो विश्लेषण किया है, यह तंग मानसिकता को खोलने में सहायक है.
जवाब देंहटाएंफिल्मों की बात करें तो बमुश्किल एक आध प्रतिशत फिल्मे ही सामाजिक न्याय, परिवर्तन और विकास की बात कह पाती है.
आज हर समाज महिलाओं को लेकर कठघरे में खड़ा है.
जैसा की अर्कजेश ने कहा,
जवाब देंहटाएंपुरुष को दोष देने से भी कोई समस्या हल होने वाली नहीं है । लेकिन समाज के ऐसे कौन से ढंग हैं जो इस तरह का चित्त पैदा करते हैं । उन कारणों को खोजकर जब तक बच्चों की प्राथमिक शिक्षा से ही उपाय नहीं किए जाऍंगे , बुनियादी बदलाव नहीं होंगे ।
सहमत हूँ.
‘तुम स्त्री होकर भी स्त्री का विरोध करती हो’। यह एक नए किस्म का जातिवाद है।'
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही लिखा आपने ........
मैंने आपकी इस संदर्भ में पिछली पोस्ट भी पढ़ी थी। आपने बहुत संतुलित ढंग से समस्या पर विचार किया है। यदि आप इस पुराने लेख में दूसरे नारीवादियों को कोट करके उनके समांतर अपनी बात रखें तो पाठकों को नारीवाद में चल रही बहसों के बारे में सम्यक जारकारी मिल सकेगी।
जवाब देंहटाएंउत्तम!
जवाब देंहटाएंबदलाव आ चुकने और समाज के बहुलांश द्वारा इन्हें अपना चुकने के बाद वही लोग अगुआ बनकर इसका ‘क्रेडिट’ लेने की कोशिश भी करते हैं।
सही कहा आपने...सहमत हूँ आपसे...
जवाब देंहटाएंबेहतर प्रस्थान बिंदु...आर्थिक निर्भरता और पुरूषवादी ढ़ांचे की अनुकूलित परिस्थितियों में ही इसकी जड़े हैं...
जवाब देंहटाएंभविष्य इनसे मुक्ति में ही निकलेगा...
संजय ग्रोवर जी .
जवाब देंहटाएंआपका लेख पढ़ा . बहुत बहुत धन्यवाद.
बेशक लेख कई साल पहले लिखा गया है पर आपकी सही सोच को दर्शाता है .
महिला संगठन बेचारे कितने फ्रंटों पर लड़ें ? यह विकृति तो बहुत दूर तक जड़ें जमा बैठी है , महिला संगठन क्या कर सकते हैं ?
अगर कोई कुछ कर सकता है तो वे ही लड़कियां -- जो कुछ पैसों के लिए खुद अपनी देह के प्रदर्शन में संकोच नहीं करतीं .
सस्नेह,
सुधा.
(via email)
vaah !!!
जवाब देंहटाएंGhazalon main Sanjay Grover ka apna andaze bayan ban raha hai...meri badhai ....Jo naari vimarsh aapke gadhya main hai vah Gazalon main kab aayegaa ????
Sameep
(hareram sameep via email)
बहुत अच्छी सोच है, अपने दिल से सराहना करते हैं
जवाब देंहटाएंriniban
via email
apkaa lekh braa hee sargabhitha aur bichrneey hai naree hr roop me badneeya hai sabse adhik maa ke roop me poojneey:
जवाब देंहटाएंma ke mamta ke liye mile naheen upmaan
khoj khoj kr thak gaye tulasee soor mahan.
badhee
Prof.Dr jaijairam anand
(via email)
@ सुधा Arora,
जवाब देंहटाएंमैं आपसे बिलकुल सहमत हूं, नारी संगठन क्या-क्या करें, समस्याओं के ढेर उनके सामने हैं। पर इससे एक रुझान का पता तो चलता ही है कि कौन-सा समाज किस तरह की समस्याओं के उन्मूलन को प्राथमिकता देता है।
sanjay ji ..is behas ka koi ant nahi!
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