रविवार, 7 मार्च 2010

हमारी क़िताबों में हमारी औरतें

 ~~~~कविता~~~~

औरतें खुश हो जाएं

आखिर हमने ढूंढ ही निकाला
पवित्र क़िताब की पृष्ठ-संख्या इतने के
उतनेंवें श्लोक में लिखा है
औरतों को दिए जाने चाहिए अधिकार और न्याय

मगर ज़रा ठहरो

यह तो हमने देखा ही नहीं कि
औरतों को अपनी मनपसंद चीज़ें मिलने पर
खुश होने के लिए
पवित्र क़िताब में लिखा है कि नहीं

बहरहाल
जिन औरतों को चाहिएं अधिकार और न्याय
वे अपने जीवन और चिंतन
अपने समय और समझ
अपने संसार और सपनों
अपने अनुभवों और अरमानों
को आले में रखकर
चली आएं

पवित्र क़िताब की पृष्ठ-संख्या इतने की
पंक्ति-संख्या उतनी में

और ज़रा लाइन लगा लें
ठीक से
व्यवस्था बनाएं रखें

जो शरमाती हैं, घबराती हैं
निकल नहीं सकती खुद घर से
वो अपने भाईयों, बापों, पतियों
या पड़ोसी पुरुषों को भेज दें
हम आज सभी को देंगे अधिकार और न्याय

(जो नहीं लेंगी हमसे न्याय-उनके किसी अंजाम के हम नहीं होंगे जिम्मेवार-या हम ही होंगे जिम्मेवार)

हम तो हैं ही दाता
अपने बराबर ही देंगे तुम्हे भी
शुकर करो और प्रार्थना करो कि
हमारी दान देने की योग्यता और विनम्रता
ऐसे ही बनी रहे

और तुम्हे कभी कोई परेशानी न आए
माँगने और पाने में
(तुम माँगती रहो हम देते रहें)

हम क्यों करेंगे भेद
हमारी ही तो हैं औरतें
हमारी ही हैं क़िताबें भी

मानाकि
दीमकों की खायी
धूल में अटी
जालों में लिपटी क़िताबों में
पता लगाना मुश्किल है कि
दीमकें, धूल और जाले
भीतर से बाहर आए हैं
या बाहर से अंदर गए हैं

मगर फिर भी बहुत जगह है इनके अंदर

और औरतों
तुम तो बिलकुल निश्चिंत रहो
तुम्हारे लिए तो कुछ शब्द ही काफी हैं

एक श्लोक, एक आयत, एक वाक्य.............

भारी है
तुम्हारे सारे जीवन,
सारे अस्तित्व,
सारे व्यक्तित्व,
सारे विचारों पर

फिर हम भी तो हैं तुम्हारे साथ
सही-सही तौलकर न्याय करेंगे
तराजू तो हमारे ही हाथ है
एक पलड़े में हैं
पवित्र क़िताब के दो शब्द
दूसरे में दुनिया की सारी औरतें

आओ और तुल जाओ

जैसे-जैसे मिलते जाएंगे क़िताबों में
वैसे-वैसे हम देते जाएंगे
तुम्हे तुम्हारे अधिकार

पहले नहीं मिले थे तो नहीं दिए थे
अब मिल गए हैं तो दे दिए हैं

मगर ज़रा ध्यान रखना
क़िताब से बाहर मत निकलना
बल्कि क़िताब में जो-जो पृष्ठ हमने बताए हैं
उनसे भी नहीं

क़िताब में रख दिया गया है वह सभी कुछ
जो तुम्हारे लिए उचित समझा गया है

इसके अलावा
आगे भी जो कुछ उचित समझा जाएगा
पहुँचा दिया जाएगा क़िताब ही में

क़िताब में साँस लेना
क़िताब में से आसमान देखना
क़िताब में स्वतंत्रता से रहना
(क़िताब में लिखा है कि तुम्हारे लिए कितने फुट कितने इंच स्वतंत्रता ठीक रहेगी)

फिर एक दिन
क़िताब में ही मोक्ष को प्राप्त हो जाना

तुम्हारी सहूलियत के लिए हम
प्राचीन आसमानी ग्रंथकारों के
आधुनिक ज़मीनी अवतारों से
सिफारिश भी कर देंगे कि
क़िताब को कोई अच्छा सा नाम भी दे दें
जैसेकि जीवन

अब तो खुश हो ना औरतों !

हमारी क़िताबों के हवाले से
हमारी औरतों से
हमें बस यही कहना है

---संजय ग्रोवर

~हंस (जुलाई 2000) में प्रकाशित~

23 टिप्‍पणियां:

  1. वाह !!! आपके व्यंग्य का जवाब नहीं. इस बार तो आपने धर्मग्रन्थों को कटघरे में खड़ा कर दिया. बहुत अच्छी लगी कविता. ख़ासकर ये लाइनें-
    मानाकि
    दीमकों की खायी
    धूल में अटी
    जालों में लिपटी क़िताबों में
    पता लगाना मुश्किल है कि
    दीमकें, धूल और जाले
    भीतर से बाहर आए हैं
    या बाहर से अंदर गए हैं

    जवाब देंहटाएं
  2. vyang achcha hai.........agar sach mein aisi soch hai....mahilaon ke prati to.. aapka nazariya kaabile tareef hai...... warna doglapan sahna to auraton ki aadat ho chuki hai

    जवाब देंहटाएं
  3. एक हाथ में अधिकार और एक हाथ में तराजू । बंदरबांट !!!!!

    जवाब देंहटाएं
  4. प्रिया जी, अच्छा लगा कि आपने तारीफ़ के साथ ग़ुस्सा भी व्यक्त किया। पूरी ईमानदारी से कहूं तो जहां तक सोच की बात है तो वो इससे भी आगे तक जाती है, लेकिन व्यवहार में इसे लाना इतना आसान नहीं होता, खासकर तब जब एक पूरा समाज ही संस्कारों का शिकार हो और धर्म को लेकर लगभग अंधों जैसा रवैय्या रखता हो। अगर कलको कोई महिला मेरी छाती पर चाकू रखकर खड़ी हो जाती है तो मेरी प्राथमिकता अपनी जान बचाने की ही होगी चाहे मुझे उसका हाथ मरोड़ना पड़े या धक्का देना पड़े। उस वक़्त मैं यह नहीं सोच सकता कि कलको महिला संगठन इस धक्के की हिंसा के बारे में क्या सोचेंगे और अख़बार क्या लिखेंगे। कुछ भी एकतरफ़ा नहीं होता। अगर महिलाएं एक मानसिक कंडीशनिंग के चलते अत्याचार को नियति समझ कर स्वीकार करती आयी हैं तो पुरुष भी एक मानसिक कंडीशनिंग के तहत अत्याचार, उपहास और वर्चस्व की भावना पालते आए हैं। दूसरे, मामला सत्ता और शक्ति का भी है। घर के अंदर जब सत्ता की चाबी सास नामक महिला के पास आ पाती है तो वह बहू नामक एक दूसरी महिला को प्रताड़ित करना शुरु कर देती है। इसके विपरीत जब एक महिला पुलिसवाली एक महिला जेबकतरी को पकड़ती है तो हम यह बिलकुल भी नहीं कह सकते कि औरत ही औरत की दुश्मन है। हर जगह बहुत ही बारीक़ निरीक्षण, अन्वेषण और विश्लेषण की ज़रुरत है। आज की तारीख में हमारे बड़े-बड़े संगठन और ब्लाग तसलीमा के मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं। उम्मीद है आप उनके आगे भी सवाल खड़े करने में हिचकेंगी नहीं।

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  5. Feminism is a strange subject. There are people for it and people against it. Largely for it.But why should feminism be a subject at all.Does in the words of Simon feminism gets defined by ovaries.It is a debate that it should be a subject Genealogy or of culture.Women must think as human beings and not as women.Forget your gender and speak about Truth,no one can stop an idea laced with truth.

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  6. ...........

    shabd nahi hain, pavitra kitab ke apavitra shadyantra par vaar kare ke liye shukriya

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  7. बहरहाल
    जिन औरतों को चाहिएं अधिकार और न्याय
    वे अपने जीवन और चिंतन
    अपने समय और समझ
    अपने संसार और सपनों
    अपने अनुभवों और अरमानों
    को आले में रखकर
    चली आएं

    आपकी ये पंक्तियाँ पूरी व्यवस्था पर गहरी चोट करती हैं...जो समाज तुलसीदास के "ढोर गंवार शूद्र पशु नारी..." को दिन रात रटता हो उस समाज से औरतें अपने लिए कुछ अच्छे की अपेक्षा कैसे कर सकती हैं... सीमित सोच के दायरे में फंसे इस समाज को झकझोरना होगा और हमें शुरुआत करनी होगी अपने घर से...परिवार से और फिर समाज से...अगर अपने ही घर में नारियां प्रताड़ित होती हों तो बाहर निकल कर उनके हक़ में नारे लगाना सिर्फ ड्रामेबाजी है और कुछ नहीं...आपको इस बेहतरीन और शशक्त कविता के लिए बहुत बहुत बधाई...
    नीरज

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  8. संजय जी, मेरा विषय थोड़ा अलग है। शायद आपने भी देखा हो कि कुछ दिन पहले जब तसलीमा का स्तम्भ एक हिंदी अख़बार में शुरु हुआ तो कुछ लोगों ने तसलीमा के बहाने उस अख़बार के गुन गाने शुरु कर दिए। कुछ ने तो शायद यह भी कहा कि हम सिर्फ़ तसलीमा की वजह से उस अख़बार को ख़रीदेंगे। अभी कुछ दिन से मैं देख रही हूं कि माहौल एकाएक बदल गया है। हर कोई तसलीमा को वैम्प बनाने पर तुला है। आपको इसके क्या कारण लगते हैं ? मेरी सामान्य जानकारी के अनुसार यह किसी ख़ास तथाकथित प्रगतिशील राजनीतिक दल से जुड़े लोग हैं। लग रहा है जैसे कोई रिमोट से इन्हें चला रहा है। प्रगतिशीलता के चोले में घुसे इस घुन्ने कट्टरपंथ की हरकतों के दूरगामी परिणामों की कल्पना करके दिल घबराने लगता है। देख रही हूं कि कल तक तसलीमा-तसलीमा करने वाले ये तथाकथित बौद्धिक जो तार्किक के बजाय भौंडे-भावुक लेखन का प्रयोग करके स्त्रीवादियों को रिझाते आए हैं, तसलीमा की आत्म-स्वीकृतियों में तरह-तरह की अश्लीलताएं भी ढूंढ रहे हैं और अपने फार्मूलों को आत्म-स्वीकृति की तरह पेश करके हीरो दिखने की कोशिश भी कर रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि इनका ‘पार्टीलाइन’ कट्टरपंथ सांप्रदायिकता से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है ?

    जवाब देंहटाएं
  9. करारी चोट , छद्म ना‍री‍वादियों पर चाहे वह स्‍त्री हो या पुरुष ।

    वस्‍तुत: जब तक नारी विमर्शकार पवित्र पुस्‍तकों में (जो कि आज के संदर्भ में तिथिबाह्य हो चुकी हैं और विषैलो प्रभावों से युक्‍त हैं)का मोह और भय छोडकर आज की जरूरतों, परिस्थितियों और अनुभवों के अनुसार व्‍यवस्‍था में स्त्रियों की आवाज नहीं उठातीं , तब तक नारी विमर्श के नाम पर वे पुरुष सत्‍ता द्वारा बनाये हुए जालों को ही खूबसूरत बनाकर पेश कर रह / रही हैं ।

    व्‍यवस्‍था को आज की जरूरतों के अनुसार जस्टिफाई करना है कि हजारों साल पहले की व्‍यवस्‍था के लिए लिखी गई किताबों के आधार पर ?

    साथ ही स्त्रियों को धार्मिक परिप्रेक्ष्‍य से ऊपर उठकर सभी समाजों की स्त्रियों को एक साथ देखने की आवश्‍यकता है । क्‍योंकि भारत में हर समाज और धर्म की स्त्रियों की समस्‍याऍं कमोबेश वही हैं ।

    "क़िताब में साँस लेना
    क़िताब में से आसमान देखना
    क़िताब में स्वतंत्रता से रहना
    (क़िताब में लिखा है कि तुम्हारे लिए कितने फुट कितने इंच स्वतंत्रता ठीक रहेगी)

    फिर एक दिन
    क़िताब में ही मोक्ष को प्राप्त हो जाना"

    इतने अच्‍छे तरीके से विषय को पेश करने के लिए आपका शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  10. तेजस्विनी जी, ख़ून जमा देने वाली ख़बर यह है कि स्त्रियां इस विषय में बोलें न बोलें, कुछ लोग तसलीमा के समर्थन में बोलने वाले पुरुषों को चुप कराने के लिए भी जुगत भिड़ा रहे हैं। यहां तक कि अफवाहें उड़ाने तक में संकोच नहीं कर रहे। पता नहीं इस खेल में बंदर कौन है और मदारी कौन है ?

    जवाब देंहटाएं
  11. तस्‍लीमा का विरोध और उपेक्षा एक सोची समझी साजिश के तहत की जा रही है । छद्म सेक्‍युलरों और कट्टरपंथियों द्वारा । राजनैतिक साजिश तो यह है ही ।

    जवाब देंहटाएं
  12. i don't like modern poetry because most of the poets let the audience guess what is hidden in their poetry and make out the meaning that they themselve don't know. but your work is simply superb. "kabhi kabhi patharon ke dher main hire mil jate hain".

    जवाब देंहटाएं
  13. जरुरी शब्द आपने यहाँ रक्खा है.

    जवाब देंहटाएं
  14. हम क्यों करेंगे भेद
    हमारी ही तो हैं औरतें
    हमारी ही हैं क़िताबें भी
    _____________________

    अच्छी कविता। गहरा व्यंग्य है।

    जवाब देंहटाएं
  15. रहीम का एक दोहा-
    यों रहीम सुख होत है देख बढत निज गोत
    ज्यों बढरी अंखियाँ निरख, अंखियन खों सुख होत
    बधाई

    जवाब देंहटाएं
  16. शुक्रिया ,
    देर से आने के लिए माज़रत चाहती हूँ ,
    उम्दा पोस्ट .

    जवाब देंहटाएं
  17. aap apni rachan sadinama ke liye post karen sadinama
    h 5 govt qtrs
    budge budge
    kolkata 70007
    email-jjitanshu@yahoo.com

    जवाब देंहटाएं
  18. RachnayeN mangane ke liye Anonymous hone ki kya zarurat pad gayi, dost ?

    जवाब देंहटाएं

कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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