तसलीमा जो हैं सो बचपन से ही अत्यंत षड्यंत्रकारी प्रवृत्ति की रहीं। उन्होंने ख़ुद ही अपने चाचा-मामा को उकसाया कि वे उनसे दुराचार करें या इसकी कोशिश करें ताकि बड़ी होकर वे इस पर लिख कर पैसा कमा सकें।
वे इतनी बेवकूफ़ रहीं कि क्रांति और बदलाव की कुसंगत में पड़ गयीं। उस मूर्ख औरत को यह नहीं न मालूम था कि यहां क्रांतिकारियों और परिवर्तनकारियों को भी पहले कलाकार, शिल्पकार और साहित्यकार होना पड़ता है, भले बाद में उस सीखी हुई भाषा से भ्रांति और भटकाव फैलाओ। नहीं तो आठ लेखों और साठ जुगाड़ों वाला कोई भी महात्मा उन्हें दोयम दर्जे का लेखक सिद्ध करने का आरक्षण पा जाता है। यहां अच्छे-अच्छे ‘रिबेल्स’ को पहले क्यू में खड़े होकर अपने वाक्यों की मात्राएं गिनवानी होती हैं। चाहे तो कोई प्रूफ़ रीडर भी अच्छी-ख़ासी क्रांति को एक टिक लगाकर कर रिजेक्ट कर सकता है। और मैं आपको बताऊं कि तसलीमा कोई धक्के-वक्के नहीं खा रही। आपने वो गाना सुना है न ‘अराउंड द वल्र्ड इन एट डालर्स......’। हां हां बस वैसे ही घूमने निकलीं हैं तसलीमा। मुकदमे खा रही है, फ़तवे जमा कर रही है। शौक़ीन औरत ! धत्त ! क्या कहा संघर्ष ? अरे, संघर्ष तो हम करते हैं। आप क्या समझते हैं जुगाड़ से विदेश यात्राएं हथियाना मामूली काम है !? और, फिर वहां जाना, जाकर रहना, रहकर दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलना-जुलना, उनके साथ घूमना-फिरना, पर्यटन-स्थल देखना, शापिंग करना फिर यहां आकर पास्ता और नाश्ता के स्वाद और सुगंध को शब्दों में अभिव्यक्त करना। रिश्तेदारों के घरों में जा-जाकर वहां से लाए तोहफे बांटना...। तसलीमा करके दिखाएं न यह सब।
करतीं क्या है वो। लिखती हैं जी। लिखती भी ऐसा जो साफ-साफ एक बार में समझ में आ जाए। ऐसे तो कोई भी लिख लेगा। अरे, ऐसा लिखो जिसके चार मतलब हों और चार बार में समझ में आए। और जो समझ में आएं वो अगला पैरा पढ़ते ही फ़िर सफ़ा हो जाएं। समझ ही न आए कि हम -तिया हैं कि लेखक बदमाश है। पाठक को सिर न धुनना पड़े तो कला काहे की। अरे, सीधी बात, फ़ायदे हम चारों मतलबों से उठा सकें। नुकसान की बारी आए तो चारों से मुकरा जा सके। तसलीमा में है इत्ती कला ?
इतनी बड़ी हो गयीं अभी तक धर्मनिरपेक्षता का मतलब ही नहीं समझतीं। सरलीकरण करतीं हैं। कहतीं हैं सब धर्मों से समान दूरी। बताईए ! आप जिस घेरे में पैदा हुए उसमें और दूसरों में समान दूरी कैसे हो जाएगी ? अपने घेरे को एक हाथ तो ऊँचा रखना पड़ेगा न ! समान दूरी से देखने के लिए तो अपना घेरा छोड़ कर बाहर निकलना पड़ेगा ! ना बाबा ! हमें तसलीमा नहीं बनना। हमें परिवार भी चाहिए, प्रतिष्ठा भी चाहिए, सुरक्षा भी चाहिए, समाज भी चाहिए और क्रांति भी चाहिए। इसमें क्रांति की क्वालिटी हल्की रहेगी पर चलेगा। तसलीमा तो सरलीकरण करतीं हैं। रामू चाचा मुझे कैंची से डराते थे और मुन्नू मामा रस्सी से। आप सिर्फ़ डराने को देखेंगे ? कैंची और रस्सी में फ़र्क़ ही नहीं करेंगे ?
मैं आपको दूसरे तरह की दूसरी चीज़ें भी समझाता हूं। मान लीजिए मैंने 10 साल और 20 लाख रुपए लगा कर विभिन्न धर्मों और समाजों का अध्ययन किया। इधर बाहर आकर मुझे पता लगा कि इन 10 सालों में समाज, धर्मों और समुदाओं से छुटकारा पाने के कगार पर आ खड़ा हुआ है। अब बताईए आप ? मेरी मेहनत का क्या होगा ? मेरे तो 10 साल गए पानी में ! मेरे पैसे कौन वापिस करेगा ? 10-20 साल और विषमता रहती तो कम-अज़-कम मेरी तो भरपाई हो जाती। एइ, उछलिए मत, अभी 100 साल ऐसा कुछ नहीं हो रहा। एक मामूली मिसाल दी मैंने।
बात कहने का ढंग होता है, सलीका होता है। कभी बाद में अपनी गाली को शिष्टता और दूसरे की सभ्यता को धृष्टता सिद्ध करना पड़ जाए तो ? सब पहले से सोच कर चलना पड़ता है। तसलीमा नहीं करती तो ना करे बाक़ी तो सब धर्म के करते हैं ना ! अपने धर्म पर उंगली उट्ठी नहीं कि कह दिया कि ई तो दूसरे धर्म के आक्रमणकारियों ने कर दिया वरना अपना जो है एकदम पाक-साफ़ था। औरतों की हालत और हमारे धरम में ख़राब ! अरे ऊ तो पितृसत्ता ने कर दी वरना अपुन का तो बिलकुल शुद्ध-बुद्ध था। मर्दों पर अत्याचार ! मातृसत्ता जिम्मेदार। धरम नाहीं। धरम और अपना धरम तो बस्स मीठा-मीठा गप्प। अरे जब कोई हमसे पूछता ही नाही तो हम काहे बताएं ? कोई पूछे तो कि धर्मो-मजहब के बनाने वाले को नाहीं पता था कि कोई पितृसत्ता भी हुआ करे है दुनिया में ? हमारे अलावा भी धरम हुआ करेंगे दुनिया में ? तो ईका ख़ातिर पहले ही इंतेजाम काहे नाही किया क़िताबन में ? इत्ते ही दूरदर्सी रहे का ?
देखिए मेरी भाषा क्या से क्या हो गयी तसलीमा पर लिखते-लिखते। तसलीमा पर इतना लिख दिया, बहुत है। अब आप इसे टिप्पणी समझो, व्यंग्य समझो, पत्र समझो, संपादकीय समझो, बुढ़भस समझो। समझो, समझो, मत समझो। आपका सिरदर्द है। एकदम फालतू टापिक है।
आईए थोड़ी कला पर बात करें।
धत्त तसलीमा !
-संजय ग्रोवर
क्या घुमा के मारा है भीङू.....वाह
जवाब देंहटाएंभाई बहुत सटीक!!
जवाब देंहटाएंबाप रे !!! क्या व्यंग्य है?? और कुछ तो कहा जा ही नहीं रहा है. आपने सब कह दिया.
जवाब देंहटाएंबेहद तीखा कटाक्ष,एक पैना व्यंग्य.
जवाब देंहटाएंगज़ब का व्यंग...आपकी लेखनी को सलाम...
जवाब देंहटाएंनीरज
भाई वाह क्या बात है , क्या मारा है आपने भीगा के , मजा आ गया ।
जवाब देंहटाएंभैया, आप अपने अगल-बगल देख लेना कोई मुस्लिम बस्ती ना हो, सीधे पत्थर फेंकते है, यह भी नहीं देखते कि किसको लगा !:)
जवाब देंहटाएंbahut khoob...taslima ki galti ye hai ki pehle to wo aurat hain uper se naastik
जवाब देंहटाएंकरतीं क्या है वो। लिखती हैं जी। लिखती भी ऐसा जो साफ-साफ एक बार में समझ में आ जाए। ऐसे तो कोई भी लिख लेगा। अरे, ऐसा लिखो जिसके चार मतलब हों और चार बार में समझ में आए। और जो समझ में आएं वो अगला पैरा पढ़ते ही फ़िर सफ़ा हो जाएं। समझ ही न आए कि हम -तिया हैं कि लेखक बदमाश है। पाठक को सिर न धुनना पड़े तो कला काहे की।
जवाब देंहटाएंकमाल का व्यंग ।
पहले तो इस तस्लीमा को भारत से भगाना चाहिए। वह हमारे देश की नहीं है, भारत को कई लोगों ने धर्मशाला समझ लिया है। यहां आए एक दिन के लिए और ठहर गए पीढ़ी दर पीढ़ी। तस्लीमा में इतना साहस होना चाहिए कि वह अपने देश बांग्लादेश में रहने की हिम्मत रखें। अब लिखा और भारत में भड़का दिया लोगों को। निकालो इसे, यह भारतीय नहीं है।
जवाब देंहटाएंbahut utkrisht star ka vyangya likha aapne.. badhai.. :)
जवाब देंहटाएंसंजय जी एक बात पूछना चाहुंगा कि आपकी उम्र जब दस वर्ष की रही होगी तब आपने सोचा था कि आप ब्लाग लिखा करेंगे। अगर जवाब आपका हां मे है तो मै ये कहुंगा कि शायद तब ब्लाग का जन्म ही नहीं हुआ होगा, दूसरा अगर जवाब न हो तो किसी औरत के बारे ये कहना कि उसने अपने मामा-चाचा को उकसाया जैसे शब्दों को लिखना आपकी निम्न मानसिकता का परिचायक सा लगता है। हो सकता है कि तसलीमा को तब से जानते हो जब से वो बांग्लादेश में ककहरा सीख रही थी लेकिन फिर भी आपने अपनी लेखनी से कटाक्ष कम तुच्छ मानसिक स्थिति का परिचय दिया है। और आपके टिप्पणीकार भी लगता है विचारक न होकर टिप्पणीकार ही है
जवाब देंहटाएंसटीक व्यंग शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंजो बात सीधे नहीं कह सकते उसे व्यंग में लपेट कहा जा सकता है.
जवाब देंहटाएंक्या लपेटा है...वाह
अच्छा लिखा संजय जी ...पर कोई समझेगा दूसरों की पीड़ा इसमें सदेह है.
जवाब देंहटाएंआपका व्यंग्य वाकई मारक है
जवाब देंहटाएंसहमत पूरी तरह सहमत भाई!
वाह! भई वाह!
जवाब देंहटाएंशशांक जी यह व्यंग्य है। जब कोई पुराना दोस्त हमें कई साल बाद मिलता है जो पहले बहुत पतला था अब बहुत मोटा हो गया है तो कटाक्ष मे हम कहते कि ‘क्या बात है यार दिन पे दिन सूखते जा रहे हो !?’ तब हमारा असली मतलब होता है कि क्या खाते हो जो इतना मुटियाते जा रहे हो। इसी तरह से पढ़ेंगे तो आपको इस व्यंग्य का असली अर्थ समझ में आएगा। अभी आप बिलकुल उल्टा अर्थ निकाल रहे हैं। अगर आप व्यंग्य विधा को जानने के बावजूद ऐसा कह रहे हैं तो आपकी बात को भड़काने की संज्ञा दी जा सकती है। ऐसा ही कई साल पहले राजेंद्र यादव के व्यंग्य भाषा में लिखे गए संपादकीय ‘होना/सोना एक ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ’ के साथ किया गया था। पर मुझे लगता है कि आपकी नीयत वैसी नहीं है।
जवाब देंहटाएंkya shal men lapet kar juta mara hai.
जवाब देंहटाएंek hi jute se chara ko mara.
ye mara....vo mara...
mara aisa ki mar khakar bhi hansana padata hai...
bhai kamal kara diya....
बहुत मोटी चमड़ी के है ये लोग!
जवाब देंहटाएंगज्जब.
जवाब देंहटाएंजोर से मारा आवाज भी नहीं हुई
जवाब देंहटाएंमारक खूबसूरत व्यंग !
जवाब देंहटाएंकहने को कुछ नहीं छोड़ते आप ! सब कह देते हैं ।
सटीक्।
जवाब देंहटाएंकमाल......कमाल .......कमाल !!!!!!
जवाब देंहटाएंकलम स्याही नहीं व्यंग के तेजाब से भरी की दिमाग झकझोर दे .
और भैय्या यहीं एक टिप्पनक को क्या समझा रहे हो ? पहले उन्हें व्यंग का ककहरा सीख कर आने को कहते .
सटीक व्यंग्य है। जारी रहे।
जवाब देंहटाएंमाथा चकरघिन्नी कर दिए ! आपको क्या परेशानी है !चलिए जो भी किया तसलीमा ने,वे तो मशहूर होंगी ही ! जाने मर्दों को कब अकल आएगी !
जवाब देंहटाएंये संजय ग्रोवर का व्यंग्यबाण है जो अन्दर तक भेदता है. बहुत सशक्त
जवाब देंहटाएंबहुत ही करारा व्यंग्य. बधाई हो आपको.
जवाब देंहटाएंWaaqayi Tasleema gazab ka saral likhtee hain..aapke lekhanme utnahi gazab vyang hai!
जवाब देंहटाएंजूते भिंगोकर रशिदे गये है, कमाल का व्यंग !!!!
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो बधाई इतना सॉलिड मारने की !
जवाब देंहटाएंसमझने वाले सब समझ गए होंगे और जो नहीं समझने का दिखावा कर रहे हैं वे भी समझ गए हैं, केवल दूसरों को न समझने देने के लिए खुद न समझने का ढोंग कर रहे हैं । क्योंकि आप भी इतना आसान समझने लायक लिखते हैं कि हमारे जैसों के भी समझ में आ जाता है ।
मोहल्ला लाइव पर पढा था तस्लीमा नसरीन और हुसैन की तुलना । जनतंत्र पर तसलीमा जी ने जो कहा उससे उनकी लडाई और हुसैन की फजीहत की असुविधा की बात साफ हो जाती है ।
जैसा कि आपने कहा कि तस्लीमा का केंन्द्रीय पक्ष क्रांति और बदलाव है । उन्होंने जीवन में जो भोगा है अपने समाज में जो चल रहा है । उसे लिखा है । वह कोई लफ्फाजी या विलासिता की वस्तु नहीं था ।
आपने हुसैन और तस्लीमा में अंतर भी स्पष्ट कर दिया है ।
"कहतीं हैं सब धर्मों से समान दूरी। बताईए ! आप जिस घेरे में पैदा हुए उसमें और दूसरों में समान दूरी कैसे हो जाएगी ? अपने घेरे को एक हाथ तो ऊँचा रखना पड़ेगा न "
फिर आता हूँ ....
वाह कहने को बरबस जी चाहा!
जवाब देंहटाएंसो, वाह! वाह!!
सार्थक और सर्जनात्मक!
बहुत अच्छा लिखा है। सही वक्त पर लिखा है।
जवाब देंहटाएंबता दो ना हे संजय ग्रोवर !
जवाब देंहटाएंकैसे लिखा ये व्यंग्य महान ?
bahut khub...wha..
जवाब देंहटाएंek baat samajh nahi aati log vyang kyun nahi samjhte???
जवाब देंहटाएंफ़ौज़िया जी और मटुकजूली, आपके सवाल तो एक-एक पंक्ति के हैं पर जब उनके उत्तर सोचने बैठा तो लगा कि इसके लिए तो अपना और दूसरों का काफ़ी कुछ खंगालना पड़ेगा। मुझे लगता है इसका जवाब फुरसत से एक पोस्ट लिखकर ही देना होगा।
जवाब देंहटाएंसंजय जी आपने बात तो मुद्दे की उठाई है। मैंने भी तस्लीमा को पढ़ा है और मैं भी उनका प्रशंसक हूं। बहरहाल आपके इस व्यंग्य को पढ़कर लोग बस वाह वाह करके निपटा रहे हैं। उसका क्या अर्थ है। मुझे लगता है इस पर सोचने की जरूरत है। अन्यथा आपका यह लेखन या ऐसा लेखन अकारथ ही जाएगा। या मैं यह भी कहूं कि वाह वाह करने वाले जरा गौर से लेख को पढ़ें और वाह वाह के साथ आह भी भरें। यानी मुद्दे पर चिंतन भी करें। दूसरी बात जो लेख पर प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं, उन्हें आपको छोड़ना नहीं चाहिए। मुझे लगता है एक व्यंग्यकार का असली काम यही है कि वह छोड़े नहीं बल्कि निचोड़ दे। बधाई।
जवाब देंहटाएंकुछ कहने की आपने गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है. बेजोड!
जवाब देंहटाएंकाफी अरसे बाद ऐसा करारा व्यंग्य पढ़ने को मिला.
आपने अपने पाठकों की उम्मीदें काफी बढ़ा दीं हैं.
sanjay grover u have over grown. i really liked your article.
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