Saturday, March 7, 2009
8 मार्च पर ‘‘मर्दों वाली बात’’ और 4 लिंक
व्यंग्य
**मर्दों वाली बात**
वातावरण मर्दांनगी से भरपूर था। इतना कि भरी हुई टोकरी से मरी हुई मछलियो की तरह मर्दानगी फिसल-फिसल जाती थी। मर्दानगी के कई रूप थे। कही घनी मूंछों में थी, तो कहीं बांहों की फड़कती पेशियों में। चढ़ी हुई आंखों में थी, तो मस्तानी चाल में थी। बच्चों को गरियाते हुए थी और मां-बहनों को सुरक्षियाते हुए थी। अखबारी कागज़ पर कूद-फांद भी मचा रही थी और धर्म के दंगल में कुश्ती भी लड़ रही थी।
एक खास किस्म के चिंतन की कृपा से एक खास किस्म की पूर्व-निर्धारित शैली में जीने वाले सभी जन मर्द थे। हालांकि वे गैस का सिलिंडर लाने से लेकर बिजली का बिल जमा कराने तक जीवन के सभी क्षेत्रों में ‘एडजस्ट‘ कर लेते थे, मगर फिर भी मर्द बने रहते थे, क्योंकि औरतों के साथ ‘एडजस्ट‘ नहीं कर पाते थे। वे सब इसलिए भी मर्द थे कि वे माइकल जैक्सन नहीं थे। हालांकि उनमें से कई कवि, लेखक और कलाकार थे, जो लंबे बाल भी रखते थे और पान से होंठ लाल भी किए रहते थे। मंच पर सांस्कृतिक हरकतें मचाने में वे माइकल से उन्नीस भी नहीं पड़ते थे, पर वे सुमित्रानंदन पंत भी नहीं थे कि अपनी सुकुमारता को मर्दानगी से स्वीकार पाते। हाय कि मर्द होते हुए भी वे सब कितने लाचार थे।
उनमे से कुछ लोग लंबे बाल रखने की बजाय दाढ़ी बढ़ाए रखते थे, तो कुछ, कुछ और प्रतीकें। ये सब उनके पूर्वजो की पुस्तकों में मर्दानगी के चिन्ह घोषित किए गए थे और मर्दानगी सिर्फ प्रतीकों में ही बची रह गई लगती थी। अपने पूर्वजों की पुस्तकों और उनमें तय किए जा चुके मर्दानगी के मानदंडों में लिथड़े हुए वे आंखें बंद किए पड़े रहते थे। यह उनकी मर्दानगी का एक और प्रकार था। अपनी टोटल मर्दानगी के बावजूद वे मर्दानगी के सभी प्रतीकों का खुलकर प्रदर्शन न कर पाने की अपनी सांस्कृतिक मजबूरी पर मन मसोस कर रह जाते थे।
लगभग सभी मर्द लोग बदलाव के हामी थे, मगर धीरे-धीरे। वे कमीज-धोती से शर्ट-पतलून तक तब आते थे, जब दूसरे (कम मर्द या नामर्द) लोग छींटदार कपड़ों पर पहुंच जाते थे। इस तरह वे एक बदलाव लाते हुए भी, बड़े धैयपूर्वक, एकाध सीढ़ी का ‘गैप‘ बनाए रखते थे। वे चाहते थे कि देश-समाज-सभ्यता-संस्कृति को धक्का एकदम से न लगे बल्कि धीरे-धीरे लगे। हालांकि यह युक्ति किसी असाध्य रोग को झेल रहे वृद्ध रोगी को दयामृत्यृस्वरूप ‘स्लो प्वाइज़न‘ देने जैसे थी, मगर उनकी मर्दानगी के अनुकूल पड़ती थी।
एक दिन उन सबने उन पुरस्कारों पर हाय-तौबा मचा दी, जो उन्हें नहीं दिए गए थे। हालांकि माइकल जैक्सन कोई इधर का उद्योगपति नहीं था। फिर भी उसे न जाने क्या सूझी कि उसने इधर के मर्दों के लिए कुछ लंबे-मोटे पुरस्कारों की घोषणा कर दी।
इसके बाद क्या हुआ? क्या उन्होंने माइकल जैक्सन की भावनाओं का आदर करते हुए पुरस्कार ग्रहण कर लेने की सहृदयता व सहिष्णुता दिखाई? या पुरस्कार लौटा देने का क्रांतिकारी कदम उठाया? पाठक-श्रोता-दर्शक-आलोचक अपने-अपने अंदाजें मारते हुए अपने-अपने नतीजों पर पहुंच गए थे।
इधर मेरे लिए वक्त आ गया था कि हर लेख के अंत की तरह एक बार फिर डरूं। अतः जैसा कि नहीं होना चाहिए, पर अक्सर होता है, मैंने घोषणा की कि यह सब तो एक सपना था।
यह हुई ना मर्दों (ना+मर्दों?) वाली बात।
-संजय ग्रोवर
(जनवरी, 1997 को हंस में प्रकाशित)
+
‘अनुभूति’ पर कविताएं ‘स्त्री थी कि हंस रही थी’ और ‘हमारी किताबों में हमारी औरतें’
‘संवादघर’ पर कार्टून ‘‘कार्टूनखाना में स्कर्टस्’’
‘अमर उजाला’ में ग़ज़ल
‘संवादघर’ में कविता ‘मर्दानगी’
प्रस्तुतकर्ता sanjaygrover पर 2:32 PM
(लेबल: कविता, कार्टून, व्यंग्य, स्त्री-विमर्श के आस-पास, ग़ज़ल)
प्रतिक्रियाएँ:
3 टिप्पणियाँ:
प्रेम सागर सिंह said...
ग्रोवरजी,
शानदार आलेख है, आभर।
March 8, 2009 8:30 PM
amarpathik said...
Sanjay bhai apka lekh sachmuch krantikaari hai....
March 26, 2010 2:51 PM
mukti said...
हा हा हा हा !!! ये इतना अच्छा व्यंग्य कैसे मुझसे छूट गया. अच्छा हुआ फ़ेसबुक पर आपने लिंक दिया.
March 26, 2010 6:15 PM
8 मार्च पर ‘‘मर्दों वाली बात’’ और 4 लिंक
व्यंग्य
**मर्दों वाली बात**
वातावरण मर्दांनगी से भरपूर था। इतना कि भरी हुई टोकरी से मरी हुई मछलियो की तरह मर्दानगी फिसल-फिसल जाती थी। मर्दानगी के कई रूप थे। कही घनी मूंछों में थी, तो कहीं बांहों की फड़कती पेशियों में। चढ़ी हुई आंखों में थी, तो मस्तानी चाल में थी। बच्चों को गरियाते हुए थी और मां-बहनों को सुरक्षियाते हुए थी। अखबारी कागज़ पर कूद-फांद भी मचा रही थी और धर्म के दंगल में कुश्ती भी लड़ रही थी।
एक खास किस्म के चिंतन की कृपा से एक खास किस्म की पूर्व-निर्धारित शैली में जीने वाले सभी जन मर्द थे। हालांकि वे गैस का सिलिंडर लाने से लेकर बिजली का बिल जमा कराने तक जीवन के सभी क्षेत्रों में ‘एडजस्ट‘ कर लेते थे, मगर फिर भी मर्द बने रहते थे, क्योंकि औरतों के साथ ‘एडजस्ट‘ नहीं कर पाते थे। वे सब इसलिए भी मर्द थे कि वे माइकल जैक्सन नहीं थे। हालांकि उनमें से कई कवि, लेखक और कलाकार थे, जो लंबे बाल भी रखते थे और पान से होंठ लाल भी किए रहते थे। मंच पर सांस्कृतिक हरकतें मचाने में वे माइकल से उन्नीस भी नहीं पड़ते थे, पर वे सुमित्रानंदन पंत भी नहीं थे कि अपनी सुकुमारता को मर्दानगी से स्वीकार पाते। हाय कि मर्द होते हुए भी वे सब कितने लाचार थे।
उनमे से कुछ लोग लंबे बाल रखने की बजाय दाढ़ी बढ़ाए रखते थे, तो कुछ, कुछ और प्रतीकें। ये सब उनके पूर्वजो की पुस्तकों में मर्दानगी के चिन्ह घोषित किए गए थे और मर्दानगी सिर्फ प्रतीकों में ही बची रह गई लगती थी। अपने पूर्वजों की पुस्तकों और उनमें तय किए जा चुके मर्दानगी के मानदंडों में लिथड़े हुए वे आंखें बंद किए पड़े रहते थे। यह उनकी मर्दानगी का एक और प्रकार था। अपनी टोटल मर्दानगी के बावजूद वे मर्दानगी के सभी प्रतीकों का खुलकर प्रदर्शन न कर पाने की अपनी सांस्कृतिक मजबूरी पर मन मसोस कर रह जाते थे।
लगभग सभी मर्द लोग बदलाव के हामी थे, मगर धीरे-धीरे। वे कमीज-धोती से शर्ट-पतलून तक तब आते थे, जब दूसरे (कम मर्द या नामर्द) लोग छींटदार कपड़ों पर पहुंच जाते थे। इस तरह वे एक बदलाव लाते हुए भी, बड़े धैयपूर्वक, एकाध सीढ़ी का ‘गैप‘ बनाए रखते थे। वे चाहते थे कि देश-समाज-सभ्यता-संस्कृति को धक्का एकदम से न लगे बल्कि धीरे-धीरे लगे। हालांकि यह युक्ति किसी असाध्य रोग को झेल रहे वृद्ध रोगी को दयामृत्यृस्वरूप ‘स्लो प्वाइज़न‘ देने जैसे थी, मगर उनकी मर्दानगी के अनुकूल पड़ती थी।
एक दिन उन सबने उन पुरस्कारों पर हाय-तौबा मचा दी, जो उन्हें नहीं दिए गए थे। हालांकि माइकल जैक्सन कोई इधर का उद्योगपति नहीं था। फिर भी उसे न जाने क्या सूझी कि उसने इधर के मर्दों के लिए कुछ लंबे-मोटे पुरस्कारों की घोषणा कर दी।
इसके बाद क्या हुआ? क्या उन्होंने माइकल जैक्सन की भावनाओं का आदर करते हुए पुरस्कार ग्रहण कर लेने की सहृदयता व सहिष्णुता दिखाई? या पुरस्कार लौटा देने का क्रांतिकारी कदम उठाया? पाठक-श्रोता-दर्शक-आलोचक अपने-अपने अंदाजें मारते हुए अपने-अपने नतीजों पर पहुंच गए थे।
इधर मेरे लिए वक्त आ गया था कि हर लेख के अंत की तरह एक बार फिर डरूं। अतः जैसा कि नहीं होना चाहिए, पर अक्सर होता है, मैंने घोषणा की कि यह सब तो एक सपना था।
यह हुई ना मर्दों (ना+मर्दों?) वाली बात।
-संजय ग्रोवर
(जनवरी, 1997 को हंस में प्रकाशित)
+
‘अनुभूति’ पर कविताएं ‘स्त्री थी कि हंस रही थी’ और ‘हमारी किताबों में हमारी औरतें’
‘संवादघर’ पर कार्टून ‘‘कार्टूनखाना में स्कर्टस्’’
‘अमर उजाला’ में ग़ज़ल
‘संवादघर’ में कविता ‘मर्दानगी’
प्रस्तुतकर्ता sanjaygrover पर 2:32 PM
(लेबल: कविता, कार्टून, व्यंग्य, स्त्री-विमर्श के आस-पास, ग़ज़ल)
प्रतिक्रियाएँ:
3 टिप्पणियाँ:
प्रेम सागर सिंह said...
ग्रोवरजी,
शानदार आलेख है, आभर।
March 8, 2009 8:30 PM
amarpathik said...
Sanjay bhai apka lekh sachmuch krantikaari hai....
March 26, 2010 2:51 PM
mukti said...
हा हा हा हा !!! ये इतना अच्छा व्यंग्य कैसे मुझसे छूट गया. अच्छा हुआ फ़ेसबुक पर आपने लिंक दिया.
March 26, 2010 6:15 PM
:-)
जवाब देंहटाएंisi kehte hain vyanga...is prahaar se koi kaise bachega...
रचना अच्छी लगी ।
जवाब देंहटाएंमैंने यह लेख एक बार पढ़ा।
जवाब देंहटाएंदुबारा लौट कर आया फिर पढ़ा ।
बताते हुए जरा भी शर्म नहीं आ रही की मुझे यह व्यंग समझ नहीं आया।
यह हुई ना+ समझदारों वाली बात।
@VICHAAR SHOONYA
जवाब देंहटाएंAapki Imaandari waqai qabile-tarif hai...aur sense of humour bhi...
वाह वाह बहुत खूब लिखा है आपने! इस लाजवाब रचना के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंसंजय जी इस लाज़वाब पोस्ट को पढवाने लिए आभार अच्छा कटाक्ष है
जवाब देंहटाएं[पहला पैरा] ...
जवाब देंहटाएंवातावरण ... लड़ रही थी ।
सही है, मर्दानगी के ये ही रूप समाज में मौजूद हैं।
[दूसरा पैरा]
एक ख़ास ...
मर्द और औरत के कार्यों का बंटवारा आज की देन नहीं और ना ही पुरुष प्रधान व्यवस्था ने इसे किसी षड़यंत्र के तहत लागू किया है। आपकी समझ स्त्रियोंमुखी है, अच्छी बात है, इसे ही सुमित्रानंदन पन्त की सुकुमारता समझिये, लेकिन उसे प्रकृतिपरक मान्यतायों से भी जोडिये।
बाल बढाने -ghataane से किसी की वैचारिक परिपक्वता या वैचारिक शून्यता का पता नहीं चलता और ना ही यह बुद्धिजीविता का मापदंड है।
[पैरा तीन]
लगभग ...
हाँ, बदलाव धीरे-धीरे ही किसी के द्वारा स्वीकार किया जाता है - यह मानवीय वृत्ति है। सामाजिक कायदों में फेर-बदल यदि तीव्रता लिए होगा तो विकास प्रक्रिया संभाले नहीं संभल पायेगी। इसलिए दो पीढ़ियों में गेप (अंतर) होना एक दृष्टि से विकास प्रक्रिया को भी दर्शाता है। इस विकास प्रक्रिया को मर्दानगी का जामा पहनाकर सभ्यता संस्कृति जैसे मानवीय आवरणों (आभ्यंतर एवं बाह्य) को तार-तार मत कीजिए।
[पैरा चार-पांच-छह]
एक दिन ...सपना था।
साहित्य जगत में हो रही छींटाकशी पर अच्छी चुटकी ली है। लेकिन लेखक का अंत में डरते हुए समापन करना उनकी उस कमजोरी को व्यक्त करता ही जो उन्हें ही मालूम है।
प्रतुलजी,
जवाब देंहटाएं(दूसरा पैरा)
लगता है आपने ठीक से व्यंग्य पढ़ा नहीं। या समझा नहीं।
मैंने कहीं नहीं कहा कि स्त्री-पुरुष के काम का बंटवारा आज की व्यवस्था की देन है। न ही यह कहा कि यह पुरुषों का षड्यंत्र है। हालांकि इसकी संभावना पूरी है।
(तीसरा पैरा)
आपने कहा:-
"बाल बढाने घटाने से किसी की वैचारिक परिपक्वता या वैचारिक शून्यता का पता नहीं चलता और ना ही यह बुद्धिजीविता का मापदंड है।"
मैंने भी यही कहा है। कृपया दोबारा पढ़कर समझने की कोशिश करें।
मेरी समझ स्त्रियोन्मुखी इसलिए है क्योंकि वंचितोन्मुखी, दमितोन्मुखी और दलितोन्मुखी है। इनके साथ ज़्यादतियां हुई हैं, ये जन्म के आधार पर किए जाने वाले सामाजिक भेद-भाव के शिकार हैं। इन्हें इससे छुटकारा मिलना चाहिए, बस। इसके अलावा मैं स्त्री-पुरुष में कोई भेद-भाव नहीं करता। इन दोनों में शारीरिक के अलावा और कौन से प्राकृतिक अंतर हैं, यह तय होना अभी बाक़ी है। सिर्फ सुनी-सुनाई बातों या अदृश्य-अमूर्त लेखकों की प्राचीन क़िताबों के आधार पर यह अंतर तय नहीं किए जा सकते। न ही मैं उन लोगों में से हूं जो नारीवादियों का अंधा समर्थन करके, उन्हें दोबारा देवी बना कर, नए सिरे से ठगने में लगे हैं।
(पैरा तीन)
बदलाव धीरे-धीरे होता है, यह तो आधा सच भी नहीं है। कहना यह चाहिए कि हमारे जैसे समाजों में बदलाव धीरे-धीरे होता है। क्योंकि यहां हर जगह यथास्थितिवादी आगे आकर खड़े हो जाते हैं। जहां लोग यथास्थिति को मर्दानगी से जोड़कर, मानवता को आए दिन नंगा कर रहे हों, वहां कोशिश जल्द से जल्द बदलाव लाने की होनी चाहिए। ऐसे बदलाव से क्या फायदा कि सौ साल में पांच पुरानी रुढ़ियां ठूटें और पचास नयी रुढ़ियां सिर पर सवार हो जाएं !? चिंतक का काम म्यूज़ियम में रखे ‘बदलाव धीरे-धीरे आता है’ जैसे वाक्यों पर ‘हां-हां’ में सिर हिलाने का नहीं बल्कि हर स्थापना पर पुनर्विचार करने का होता है।
(पैरा-चार, पांच, छः)
आप क्या समझते हैं कि जो लेखक अपने लेखन में कभी भी अपने डरने की घोषणा नहीं करते वे सबके सब बहुत निडर होते हैं !? पूरा हिंदी लेखन पढ़ जाईए। कितने लेखकों ने खुदको डरपोक कहा है ? इस हिसाब से तो बहुत बड़ी क्रांति हो जानी चाहिए थी ! क्या अचार-मुरब्बों के तरीके परोसने और मां की ममता की कहानियां रिपीटने के लिए भी डरने की ज़रुरत पड़ती होगी
कई बातों पर सहमती होते हुए भी लेखन में अर्थ स्पष्टीकरण की अपेक्षा शेष है। स्त्रियोंमुखी के अन्य पर्यायों से परचित करवाने का शुक्रिया। बाकी बातों में बिम्बात्मकता अधिक है सो अर्थ अपने अनुसार ही समझ में आते हैं। कहीं गलत न लग जाएँ। चुप रहूंगा। लेख का समापन करने का सबका अपना-अपना स्टाईल होता है, सो आपका भी होगा। आपके 'डर' वाले तकियाकलाम को आपके लेख का हिसा ना मान कर उसे अब से नज़रअंदाज़ करा करूंगा।
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