बुधवार, 17 मार्च 2010

पुरस्कार का बहिष्कार और अखिल-भारतीय अरण्य-रोदन

गधा ऐसे सम्मेलन में कोई पहली बार नहीं आया था।
जब भी वह मानवता, ईमानदारी प्रेम वगैरह जैसी दकियानूसी, पुरातनपन्थी, आउट आॅफ डेट, आउट आॅफ फैशन हो चुकीं बातों का बोझा ढोते-ढोते थक जाता है, ऐसे ही किसी सम्मेलन की किसी कुर्सी पर बैठ कर थोड़ी देर सुस्ता लेता है।
‘शायद हर गधे की यही मजबूरी है’, ऐसा सोचकर वह अपने दिल को तसल्ली दे लेता है।
मंच पर सभी रंगों के कलम कुमार विराजमान थे - लाल, पीले, हरे, केसरिया ... ... ... और इनके अलावा जितने भी रंगों के कलम कुमार हो सकते हैं ... ... ... सभी।
गधे के आगे वाली पंक्तियों में जितने भी लोग बैठे थे, उन सबको वी.आई.पी. का दर्जा दिया गया था।
यह कोई नई बात न थी।
गधे के पीछे यानि सबसे पीछे की पंक्तियों में ढेर सारे आमलाल ढेर हुए पड़े थे।
(चूंकि गधा खुदमें और आम आदमी में कोई फर्क पाता होगा सो फिलहाल उसने आम आदमी का नाम सुविधा के लिए आमलाल रख छोड़ा था।)
गधा इस बात से भी हैरान न होता था। वह जानता था कि जो आमलाल लेखकों और वक्ताओं की सबसे अगली पंक्तियों में गाजे-बाजे, शहनाई या ढोल की आवाज़़ के साथ पेश किए जाते हैं वही आमलाल ऐसे लेखकों व वक्ताओं द्वारा आयोजित सम्मेलनों की पिछली पंक्तियों में ‘खाली जगह भरो‘ के अन्दाज़ में कुर्सियां भरने और तालियां पीटने के काम आ जाते हैं।
हमेशा की तरह आज भी एक विषय रखा गया था। आज का विषय था ‘प्रो0 हठधर्मी ने ‘चमचम’ पुरस्कार क्यों लौटाया‘।
एक बार तो इस वाक्य को पढ़कर गधा गलतफहमी में पड़ गया कि कहीं सभी कलम कुमारों को इस बात का अफसोस तो नहीं है कि प्रो0 हठधर्मी ने पुरस्कार क्यों लौटा दिया।
मगर फिर उसने सोचा कि बिना कुछ जाने-सुने कोई अन्दाजा लगा लेना ठीक नहीं होगा।
सभी कलम कुमारों ने बारी-बारी से अपने हिस्से के विचार रखे।
और गधे ने (चूंकि गधा था) नोट किया सभी कलम कुमार प्रो0 हठधर्मी के इस प्रस्ताव का जिक्र तो बड़े जोर-शोर से करते कि पुरस्कार उदीयमान साहित्यकारों को दिए जाएं और ऐसी कुछ धनराशि वयोवृद्ध व अस्वस्थ साहित्यकारों के लिए रखी जाए। मगर प्रो0 हठधर्मी के बयान के उस हिस्से का जिक्र आते-आते तकरीबन सभी की दशा हवा निकले गुब्बारे की मानिन्द हो जाती, जिसमें प्रो0 ने पुरस्कारों के औचित्य पर उंगली रखी थी कि आखिर पुरस्कार दिए भी क्यों जाते हैं।
खैर साहब, जहाँ तक तालियां बजने की बात है तो उस दिन भी खूब बजी। कलम कुमारों की एकता और परस्पर सहयोग का अनूठा उदाहरण देखने को मिला।
जब लाल कलम कुमार अपना वक्तव्य समाप्त करते तो पीले, हरे, नारंगी आदि सभी कलम कुमार तालियां बजाते। ऐसे ही जब हरे कलम कुमार अपना वक्तव्य खत्म करते तो बाकी सब रंग के बजाते और इतनी बजाते कि वहां बैठे आमलालों को लगने लगता कि अगर हमने तालियां न बर्जाइं तो इसे हमारे साहित्य विरोधी और कूड़मगज़ होने की निशानी मानी जाएगी।
इस बात पर किसी का भी ध्यान न था कि गधा तालियां बजा रहा है या नहीं।
गधों पर ध्यान देता भी कौन है। वैसे भी हर सभा में एक न एक गधा तो पहुंच ही जाता है।
फिर पुरस्कार वितरण समारोह हुआ। लाल रंग के कलम कुमार को पुरस्कृत किया गया। साथ ही यह भी घोषणा की गई कि अगली बार का पुरस्कार नारंगी कलम कुमार को दिया जाएगा।
अबकी बार तो गधा भी थोड़ा सा हैरान हुआ।
उसने अगली पंक्ति में सो रहे एक वी.आई.पी. जी को जगाकर इसका कारण पूछा। वी.आई.पी. जी ने बिना पीछे देखे बताया कि अब तो पीले, हरे, लाल आदि सभी कलम कुमारों को पुरस्कार मिल चुके हैं। अगले साल के लिए नारंगी जी ही बचे हैं। यही इस संस्था के पुरस्कार देने के नियम हैं।
बेचारा मूर्ख गधा। वह समझ बैठा था कि आज का पुरस्कार भी सर्वश्रेष्ठ वक्तव्य और सार्थक विचारों व प्रस्तावों के आधार पर दिया गया है। मगर थोड़ी देर माथापच्ची करने पर उसे ध्यान आया कि ऐसा कुछ हुआ ही कहाँ था।
गधे ने एक बार फिर गधापन दिखाया। उसने वी.आई.पी. जी से विनय की कि उसे मंच पर बोलने की अनुमति दी जाए।
तब पहली बार वी.आई.पी. जी ने मुड़कर देखा। जब उन्होंने गधे को देखा तो वे लगभग गुर्राते हुए स्वर में बोले,‘‘ऐ मूर्ख गधे, हम गधों को मंच पर बोलने की अनुमति नहीं देते।‘‘
‘‘और भी तो बोले हैं,‘‘ गधे ने कहा,‘‘और जब इतने खास लोगों के बाद एक आम गधे को मंच पर लाया जाएगा तो सोचिए आपका कितना नाम होगा। दलितो-शोषितों व आम लोगों ... ... मेरा मतलब है आम गधों के उद्धारक के रूप में आपका नाम व चित्र कल के अखबार में मुखपृष्ठ पर प्रकाशित होगा।‘‘
अपनी मशहूरी की सेहत की समृद्धि में सहायक हो सकने वाले इस मक्खन पर वी.आई.पी. जी का महत्वाकांक्षी पैर ‘स्लिप‘ हो गया। मन में फूट रहे लड्डूओं को दया और सहानुभूति के ढक्कन के नीचे छुपाते हुए उन्होंने कहा,‘‘चलिए, जहां इतने बोले, वहां एक और सही।‘‘
और साहबान, गधे ने मंच पर चढ़कर सिर्फ एक शेर कहाः-

सोचता तो होगा तन्हाई में मनसबदार भी,
जो खिलौना हो गया लड़ने की ठाने किस तरह।

और यकीन मानिए, यह मुझे भी नहीं पता कि दूसरे दिन के अखबारों में गधे का और उस शेर का जिक्र था या नहीं।

(मुल्ला नसरूद्दीन, शरद जोशी, कृश्न चंदर, श्रीलाल शुक्ल और गधे से क्षमा याचना सहित)

-संजय ग्रोवर

(लगभग 15 साल पुराना व्यंग्य)

20 टिप्‍पणियां:

  1. जी हाँ, आम आदमी का जिक्र तभी होता है अखबार में, जब वह एक्सीडेंट में, बीमारी से या भूख से मरता है. नहीं तो वो ऐसे सम्मेलनों में जाता है, ताली बजाता है और लौट आता है. बहुत अच्छा व्यंग्य किया है. भला पुरस्कार देने वाले और लौटाने वाले से गधे का क्या मतलब?

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  2. अच्छा लगा आपका व्यंग्य और शैली। आनंदित कर देने वाली शैली है आपकी।

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  3. प्रभु मैं आपसे बहुत प्रभावित हुआ और आपसा ही बनना चाहता हूँ। कृपया बताइए आप इस गधेपन के साथ ही पैदा हुए थे या आप इस अवस्था को बाद में प्राप्त हुए। आप पर यह गधापन लादा हुआ तो बिलकुल नहीं लगता।

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  4. 15 साल पुराना व्यंग लेकिन आज भी उतना ही ताज़ा...इसे कहते हैं कालजयी लेखन...वाह...कृशन चंदर की एक गधे की आत्म कथा और एक गधे की वापसी की याद ताज़ा कर दी...कभी इन किताबों को ना जाने कितनी बार पढ़ के हंसा करता था...आज कृशन चंदर को कोई शायद ही जानता हो...
    नीरज

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  5. भाई अभी तो कई लोगों ने शलाखा को थप्पड़ लगाया है…लगे हाथ उनको भी बधाई दे डालिये। व्यंग्य चुटीला है अभी…नीरज भाई लोग जानते हैं अब भी कृशन चंदर को…मैने पुस्तक मेलों मे आज भी उनकी किताबें ख़ूब बिकती देखी हैं…पर उन पर बात नहीं होती…शायद डरते हैं लोग।

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  6. @VICHAAR SHOONYA 'kisi ke jaisa' ban-ne ki koshish kareNge to kabhi maulik gadhe nahiN ban payeNge :)

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  7. अपने ताज़ा व्यंग्य को क्यों 15 साल पहले का बता रहे हो भाई। ऐसा कह कर क्या अपने आप को ज्योतिषी सिद्ध करके भविष्यवक्ता की दुकान खोलने का इरादा है? या वक़्त ही नहीं बदला शायद जो 15 साल पुराना भी अभी तक मौज़ूं है।
    बहरहाल बधाई इत्यादि।

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  8. अगर आपने सिर्फ़ गधे से क्षमायाचना कर ली होती तो काम नहीं चलता क्या?

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  9. बेहद सटीक और प्रासंगिक।
    बधाई।

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  10. बहुत प्रभावशाली लेख है. कटाक्ष की धार पैनी, दिशा, दशा और लक्ष्य साफ़ है .
    बधाई

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  11. deepti gupta
    bazariye EMAIL likhti hain :

    संजय जी, आपका व्यंग बहुत रुचिकर बन पड़ा है. आपने क्या खूब भिगो कर प्यार से वार किए हैं. मुझे बहुत अच्छा लगा.इसके लिए आपको पुरस्कार मिलना चाहिए. आजकल साहित्य जगत में पुरस्कारों का जिस तरह आटम - बाटम हो रहा है - आपका व्यंग उसका सटीक चित्र खींचता है. और लिखिए ऐसा ही कुछ.

    दीप्ति

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  12. बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति! बढ़िया व्यंग्य! उम्दा प्रस्तुती!

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  13. मज़ा आ गया संजय जी..! ज़रा और लंबा होता तो भी...!

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  14. @Uday Prakash
    निश्चय ही कुछ चीज़ें और जोड़ी जा सकती थी इसमें। पर थोड़ी हड़बड़ी में, थोड़े आलस्य में और कुछ असमंजस में, पुराने को ही उठाकर जैसे का तैसा डाल दिया।

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  15. सटीक लिखा है , आपने पहले भी आदमी के उत्पाद होने की बात कही है , सब बिका है बाज़ारों में ,सागर साहब की कुछ पंक्तियाँ जोड़ना चाहूँगा

    ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं
    इन में कुछ साहिब-ए-असरार नज़र आते हैं

    कल जिसे छू नहीं सकती थी फ़रिश्तों की नज़र
    आज वो रौनक़-ए-बाज़ार नज़र आते हैं

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  16. बहुत सुन्दर संजय जी.कितना भी पुराना हो है तो सामयिक और जरूरी .
    लगे रहो................................... :)

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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