सोमवार, 27 जुलाई 2009

उदयप्रकाश प्रकरण: कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना !?


उदयप्रकाश प्रकरण पर लगातार कुछ न कुछ छप रहा है। मैंने इस संदर्भ में ‘मोहल्ला’ पर एक पोस्ट लगाई थी। उसमें कुछ सवाल रखे थे जो लगातार मेरे मन में उठते रहे हैं। जैसे-जैसे यह बहस आगे बढ़ रही है सवाल भी गहरा रहे हैं, कुछ नए प्रश्न भी जुड़ रहे हैं। पहले मैं पिछले प्रश्नों को दोहरा दूं:-
1.किसी भी अखबार में उदय का काॅलम शुरु होता है तो हमेशा 2-3 किस्तों के बाद बंद क्यों हो जाता है ? क्या सारे के सारे कालमिस्ट उदय से बेहतर हैं ?
2.क्या हिंदी साहित्य-जगत में उदय, राजेंद्र यादव और उनके दस-पाँच मित्रों के अलावा सब दूध के धुले हैं ? कोई कभी किसी राजनेता के साथ किसी मंच पर नहीं जाता ? किसी ने कभी अपनी पत्नी/पति के अलावा अन्यत्र संबंध नहीं रखे ! क्या हिंदी के सारे दिग्गज पुरस्कारों/सम्मानों को ठोकर मारते आए हैं !
3.कौन है वो शूरवीर जिसने पत्नी-बच्चों-परिवार के नाम पर अपने समझौतों को जस्टीफाई न किया हो ?
4.पिछले कुछ सालों में उदयप्रकाश और राजेंद्र यादव के अलावा अन्य किन लेखकों से इस तरह की जवाब-तलबी की गयी है और किन वजुहात से ?
5. केदारनाथ जी के अलावा अशोक वाजपेई का ‘मुर्दों के साथ मरने को तैयार न होना’ और भारतीजी का ‘केडिया प्रकरण’ और प्रभाषजी का ‘सती-प्रसंग’ भी मुझे याद है। लेकिन इनमें से कोई भी उस दलित-प्रसंग से जुड़ा नहीं था जिसके द्वारा राजेंद्र यादव ने हिंदी जगत की ‘कोरी-सहानुभूतियों’ के मुखौटे उखाड़ फेंके हैं। दोस्ती से लेकर रोज़ी-रोटी तक बंद कर देने के लिए जैसी घेरेबंदी राजेंद्र यादव और उदय की की जाने लगती है, वैसी क्या उक्त में से किसी को ‘नसीब’ हुई होगी !
6.दलितों-वंचितों के लिए उदय जैसी पीढ़ा और विद्रोह उदय के विरोधिओं के लेखन में क्यों नहीं दिखाई पढ़ती ?
7.क्यों उनमें से कुछ पहला मौका मिलते ही मायावती और लालू यादव के लिए तू तड़ाक की भाषा पर उतर आते हैं ?
8.मोहल्ला. काम को उदयप्रकाश के तरह-तरह के रंगीन फोटो कौन उपलब्ध करा रहा है ?
9.कुछ लोगों के लिए ‘उदयप्रकाश, हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण लेखक‘ तब-तब ही क्यों हो जाते हैं जब-जब उनपर कुछ उछालने-फेंकने का मौका आता है। वैसे उदयप्रकाश उनके लिए जहां-तहां से सामग्री चुराकर लिखने वाले लेखक रहते हैं।
यहां से नए सवाल जो रोज़ाना की बहस को देखकर उठ रहे हैं:-
1.दरअसल किसने वामपंथ को विचारधारा की तरह नहीं मुखौटे और दुकान की तरह इस्तेमाल किया ?
2.अगर वामपंथ वर्ण-विशेष की बपौती नहीं था तो मायावती और बसपा के करीब आने में इतने साल क्यों लगे ? और दोबारा दूर जाने में इतना कम समय क्यों लगा ?
3.वैसे तो शत्रुता की बात ही अजीब लगती है मगर करनी ही थी तो ‘वर्गशत्रु’ के बजाय ‘वर्णशत्रु’ जैसे शब्द और सोच क्यों नहीं अपनाए गए ? आखिर हिंदुस्तान में ग़रीबी और विषमता का बड़ा कारक वर्ग था या वर्ण ?
4.आप जा-जाकर अपने जानकारों, रिश्तेदारों और आम जनता से पूछिए और फिर परसेंटेज़ निकालिए कि कितने प्रतिशत लोगों को पता है कि शहीद भगत सिंह नास्तिक थे !? अगर 100 में से 10 को भी पता हो तो बहुत समझिएगा। आखिर कौन लेगा इसकी जिम्मेदारी ? क्यों किसी की रुचि नहीं है कि लोग इस बात को जानें !?
5.जब बाबा रामदेव-वृंदा करात प्रकरण हुआ तो बाबा ने कहा ‘इनकी क्या है, ये तो भगवान को ही नहीं मानते’ तो जवाब में कम्युनिस्टों ने क्यों नहीं छाती ठोक कर कहा कि हां, हैं हम नास्तिक, और नास्तिक होना और होकर रहना बाबा होकर रहने से कई गुना ज़्यादा मुश्किल काम है।
6.व्यक्तिगत और नैतिक तौर पर मैं पूरी तरह से हिमांशु सभरवाल के साथ हूं पर यह देखकर अजीब भी लगता है और दुख भी होता है कि ग़रीबों-मजदूरों की हमदर्द कहलाने वाली पार्टी और उनसे जुड़े लोग अपने आंदोलनों में (शायद) सिर्फ फेसबुक और पेज़ थ्री से जुड़े लोगों को साथ लेते हैं। अपने नारों में नीतिश कटारा, मट्टू और जैसिका लाल के अलावा चैथा नाम नहीं इस्तेमाल करते !? ऐसे वक्त पर ऐसी बात कहते हुए मैं हिमांशु सभरवाल, नीलम कटारा व इन मामलों से संबद्ध सभी लोगों से हाथ जोड़कर माफी चाहूंगा मगर यह बात कहना उनकी लड़ाई के भी हक़ में ही है।
7.कुछ लोग कह रहे हैं कि भाजपा से फायदे ले लिए तो क्या, मंच शेयर करके किसी योदी-मोगी से पुरस्कार तो नहीं लिया ! अब चूंकि यह टेंªड पुराना हो गया तो इस पर क्यों कोई एतराज़ करे ! तो ठीक है भय्या करिए सेंटिग कि योदी-मोगी से कि देखिए पुरस्कार आपसे लेने में तो हमें कोई एतराज़ था ही नहीं पर मंच पर आप न आईए। मंच पर हमें राधामोहन किसान के हाथ पुरस्कार दिलवा दीजिए जिससे कि हमारा भी नाम रह जाएगा, आपका तो रहेगा ही क्यों कि पता तो सबको रहता ही है कि पुरस्कार का उद्गम कहां से हुआ है, साथ ही यह भी रहेगा कि देखिए आप ग़रीब किसान का कितना मान करते हैं। और राधामोहन तो मंच पर आने से खुश हो जाएगा, हाथ कुछ लगे न लगे।
8. क्यों हम पुरस्कारों के पीछे इतना पगलाए रहते हैं !? जब ये सारे पुरस्कार/कमेटियां/समितियां/अगैरह/वगैरह इसी धरती के इन्हीं इंसानों द्वारा बनाई जाती हैं जो कि गलतियों का पुतला है और राजनीतियों का ढेर है तो कोई भी पुरस्कार निर्विवाद कैसे हो सकता है ? भारतीय फिल्म/पुरस्कार समारोहों में जाने से बचने वाले आमिर खान क्यों आस्कर के लिए लाबिंग में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं ? कबीर, बुद्ध, एकलव्य या गैलीलियो को पुरस्कार नहीं मिलता था तो वे भी इनफीरियरटी काॅम्पलैक्स से ग्रस्त हो जाते थे क्या ? क्या इतिहास उन्हें भूल गया या उनका किया महत्वहीन हो गया ? क्या यह सच नहीं कि लगभग हर पुरस्कार देने वाली संस्था के पीछे कोई न कोई राजनीतिक दल, राजनीति, विचारधारा या पूर्वाग्रह मौजूद रहते हैं ? फिर इनके फैसले निष्पक्ष कैसे हो सकते हैं ?
इन बातों पर विचार करें। आगे बात करने का फायदा है बशत्र्ते कि हम सब अपने अंदर झांकने को, किसी नतीजे पर पहुंचने को तैय्यार हों,। सिर्फ गाली-गलौज, पुराने हिसाब-किताब करने हों, हार-जीत के खेल खेलने हों तो सादर नमस्ते।
[जहां तक मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, जो लोग आत्मालोचना करते हैं, माफियां मांगते हैं, हमेशा घाटे में रहते हैं। सारे दोष उनपर मढ़ दिए जाते हैं। (उनमें से कुछेक को सौ-पचास साल बाद किसी गैलीलियो की तरह मान्यता मिल जाए, अलग बात है।) दोष मढ़ने वाले ज़्यादातर वे लोग होते हैं जिन्हें अपने बारे में न तो कुछ ठीक से पता होता है न वे पता करना चाहते हैं न उनमें हिम्मत होती है। उनके लिए राहत और जस्टीफिकेशन की सबसे बड़ी वजह यही होती है कि जिस समाज में वे रह रहे होते हैं उसमें ज़्यादातर लोग उन्हीं की तरह होते हैं। अन्यथा बिना कुण्ठाओं, कमियों, कमज़ोरियों के भी दुनिया में कोई आदमी, विचारधारा, सम्प्रदाय आदि हो सकते हैं, यह सोचना भी मुझे तो हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण और अहंकार का द्योतक ही लगता है।]

33 टिप्‍पणियां:

  1. "जब बाबा रामदेव-वृंदा करात प्रकरण हुआ तो बाबा ने कहा ‘इनकी क्या है, ये तो भगवान को ही नहीं मानते’ तो जवाब में कम्युनिस्टों ने क्यों नहीं छाती ठोक कर कहा कि हां, हैं हम नास्तिक, और नास्तिक होना और होकर रहना बाबा होकर रहने से कई गुना ज़्यादा मुश्किल काम है।" - सहमत।

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  2. सही है ...
    ये प्रश्न नहीं प्रश्नचिन्ह हैं, जिनका उत्तर ना कोई देना चाहता ना ही सुनना चाहता | शायद कोई देना पसंद नहीं करता |
    नास्तिक को स्वीकार क्यों नहीं किया जाता ? भगत सिंह या नेहरु, इनकी नास्तिकता को छुपाया जाता है | यहाँ तक की बुद्ध को भी साजिश के तहत अवतार मान लिया जाता है |
    उदयप्रकाश को छद्म कहा जाता है | मैं ज्यादा नहीं जानता लेकिन उदय प्रकाश की कविताओं में जो दर्द और वंचितों के लिए जो जगह है, वह कितनों में दिखती है ?

    मैं समझता हूँ यह सब वही लोग करते हैं जो यथास्थितिवादी हैं, वर्ण को बरकरार रखना चाहते हैं और उसी के सहारे दलितों, वंचितों को सिर्फ लालीपाप देना चाहते हैं |

    भारत के वामपंथी पूर्णतः भ्रमित हैं | उनकी गति साँप छछूंदर की तरह है | ना लील सकते न उगल सकते |
    मार्क्स और मनु के बीच पिसे जा रहे हैं |

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  3. इन बातों पर विचार करें। आगे बात करने का फायदा है बशत्र्ते कि हम सब अपने अंदर झांकने को, किसी नतीजे पर पहुंचने को तैय्यार हों,। सिर्फ गाली-गलौज, पुराने हिसाब-किताब करने हों, हार-जीत के खेल खेलने हों तो सादर नमस्ते।

    बिल्कुल सही फरमाया है।
    हमारी भी सादर नमस्ते।

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  4. chhil kar rakh diya hai... in narpungavon ko... lekin baat nikli hai to door talak jayegi... akhir uday prakash bhi to YOGI ke hathon sammanit hue hi hain... is tathya ko kaise jhuthlayenge aap...

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  5. मैने विस्तार से पिछली बार आपके इन सारे प्रश्नों का मोहल्ला पर उत्तर दिया था … कुछ नये सवाल ज़रूर हैं पर भावना वही है।

    आप शायद उदय मोह से इस क़दर ग्रस्त हैं कि कुछ और देखना सुनना चाहते ही नहीं। आप जिन पार्टियों की बात कर रहे हैं उनमें सबसे प्रमुख सीपीएम के लेखक संगठन जलेस में उदय वर्षों रहे (शायद अब भी हैं) तो ये सवाल उन्होंने क्यूं नहीं उठाये?

    आज वर्ण को लेकर इतना शोर है कि लगता है कि वर्ग कोई जातिवादी अवधारणा है। तेलंगाना से लेकर नक्सलबारी और भोजपुर तक जिन किसानों और भूमिहीनों की लडाई लडी गयी क्या वे सवर्ण ही थे? आपको मायावती अगर वर्ण राजनीति की माडल लगती हैं और एस सी मिश्रा उसके सबसे प्रखर प्रवक्ता तो कम्यूनिस्टों से दिक़्क़त होगी ही। वैज्ञानिक समाजवाद कोई धार्मिक प्रवचन नहीं।

    और क्या कहना चाहते हैं आप? कि सब भ्रष्ट हैं तो फिर किसी पर सवाल क्यूं उठाया जाय? मतलब चुपचाप योगी कि जयकार में शामिल हो जाया जाय? अगर आप भी यह करना चाह्ते हैं तो शौक से करिये।

    और उदय जी जितना उत्पीडित और निरीह अपने को बता रहे हैं उतने हैं नहीं। पता नहीं वह इस ग़रीब हिन्दी से क्या क्या पा लेना चाहते हैं। उन्हें अकेले अशोक बाजपेयी पुरस्कार दे दें तो यह प्रतिभा का सम्मान और दूसरों को मिल जाये तो यह जोड तोड? वह एशोआराम की ज़िन्दगी बितायें तो बेरोज़गारी और दूसरे बितायें तो आह आह बेईमानी? वो योगी से सम्मान लें तो मासूमियत और कोई सवाल उठाये तो जातिवाद?
    कितनी बार वास्तव में उपेक्षित लेखकों के पक्ष में उन्होंने उठाई है आवाज़? उनके ख़िलाफ़ जिसने भी बोला गालियां मिली…इस बार भी शुरुआत तो 'पाखाने वाली भाषा 'से ही हुई थी। एसे में भक्त उन्हें मिले…चेले…चमचे…दोस्त कैसे मिलते?

    आत्मालोचना कहां कि उन्होंने? जो ब्लाग पर लिखा है वह न तो आत्मालोचना है ना माफ़ी… बस कवर अप वह भी झूठ और प्रवंचना की बुनियाद पर खडा। वह आयोजन कतई पारिवारिक नहीं था। वह शुरुआत थी उन सालाना आयोजनो की जिनमें प्रतिवर्ष योगी के हाथ से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतिनिधियों को सम्मान देंगे। अगर उदय जी को वास्तव में ग्लानि होती तो लौटा चुके होते यह सम्मान्।

    और जो कुछ कहा उन्होंने? लेखक को विचारधारा के चौखटे में नहीं बंधना चाहिये…उसपर आपकी सहमति है क्या?

    पुरस्कार बंद करने पर आपसे मेरी पूर्ण सहमति है। उदयजी शुरुआत करें यह कह कर कि अब मैं कोई पुरस्कार नहीं लूंगा…मै इस अभियान मे सबसे पहले हस्ताक्षर करुंगा।

    और जेनरलाईजेशन किसी भी चीज़ को डाइल्यूट करने का आसान तरीका होता है…नाम लीजिये और बहस चलाईये।

    मै जानता हूं यह सब आप पर कोई प्रभाव नहीं डालेगा…भक्त देवमूर्ती के अलावा और कुछ नहीं देखते…नास्तिक होने से भी आगे की चीज़ है तार्किक और वस्तुपरक होना।

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  6. हां यह कहने कामुझे नैतिक आधार है…मेरी ज़िंदगी के किसी पन्ने पर अगर वे छिटें दिख जायें तो ज़रूर दिखायें।

    और नास्तिकता और भगत सिंह के विचार दोनों का मेरा संगठन जम के प्रचार करता है। 14 अगस्त से उनके जन्म दिवस को युवा दिवस घोषित करने, उनके लेख पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग को लेकर हम हस्ताक्षर अभियान चलाने जा रहे हैं।

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  7. अशोकजी,
    भक्ति चाहे भगवान की हो, व्यक्ति की हो, विचारधारा की हो, हर हाल में खतरनाक होती है। राजनीतिक विचारधाराओं में सबसे ज्यादा प्रभावित मैं वामपंथ से रहा हूं। उसके अलावा मैं आर्यसमाज, ओशो रजनीश, गांधी जी से लेकर बाबा साहेब तक हर विचारधारा में आता-जाता हूं, मगर रुकता वहीं तक हूं जितनी वहां तार्किकता, वस्तुपरकता और विवेकशीलता दिखाई देती है। एक तरफ तो आपको यह संभावना भी अजीब लग रही है कि कहीं मैं भी विचारधारापरक चैखटे तोड़ने का तोड़ने का हिमायती तो नही ंतो दूसरी तरफ आप मुझे भक्त भी बता रहे हैं।
    पुरस्कार बंद करने को लेकर मैंने जो कुछ कहा उसमें कौन-सी बात उदय के हक में जाती है ? आप अपनी विचारधारा-भक्ति के चलते इस बात पर भी ध्यान नहीं दे पाए कि मोहल्ला को उदय के रंगीन फोटो सप्लाई करने को लेकर मैंने जो शक ज़ाहिर किया उसके दायरे में उदय भी आ जाते हैं कि कहीं यह बहस प्रायोजित तो नहीं और कहीं फोटो खुद उदय के यहां से तो नहीं आ रहे। और मैं भक्त होता तो ‘‘उदय-उदय’’ न लिख रहा होता, ‘‘उदयप्रकाशजी-उदयप्रकाशजी‘‘ का जप कर रहा होता। इस ‘पावन परंपरा’ से तो आप भी भली-भांति परिचित होंगे।
    और, अभी आपसे पहले ‘मोहल्ला’ पर अंशुमाली की सराहना में जो टिप्पणी छोड़कर आया वो ! उसमें अंशुमाली ने उदय और उनके नए दोस्त अशोक वाजपेयी से लेकर प्रभाष जोशी तक किसी को नहीं बख्शा। हे राम ! मैंने तो अपने गुरु के सखा के खिलाफ टिप्पणी की सराहना कर दी। अच्छा मेरे पास तो इतने साधन नहीं हैं, आप ही पता करके बताईए कि रस्मन ही सही प्रभाष जोषी, धर्मवीर भारती से लेकर अशोक वाजपेयी तक किसे माफी मांगनी पड़ी थी?
    आप बार-बार एक ही बात कह रहे हैं कि अगर सब पापी हैं तो kya कोई भी किसी से जवाब न मांगे ! और मैं फिर-फिर कह रहा हूं कि सारे पापियों के एवज में बाकी पापियों द्वारा तय कर दिए गए दो-तीन पापियों को ही बार-बार फांसी क्यों दी जाए भला !? क्यों कि उनका बहुमत है इसलिए !? क्यों कि उनकी मौज की छनती आ रही है इसलिए !?
    बात ये है कि अगर उदय और राजेंद्र यादव जैसे लोग दलितों-पीढ़ितो-वंचितों-स्त्रियों की बात छोड़ दे ंतो उनके भी सात खून माफ होंगे जैसे कि बाकी पापियों के होते हैं। चिढ़ कोई और है और बहाने कोई और हैं। कभी विदेशी साहित्य से चोरी का आरोप लगाया जाता है कभी पत्नी मन्नू को सताने का आरोप कभी योगी से पुरस्कार के बहाने चिल्लपों। और किन लेखकों की पत्नियों के इण्टरव्यू लिए गए और विशेषांक निकाले गए !? इसीलिए मैंने कहां कि निगाहें कहीं और हैं निशाने कहीं और।
    जिस तरह से आपने विचारधारा और उससे जुड़े लोगों से लौ लगा ली है उसी रौ में आप कह रहे हैं कि उदय पुरस्कार लेना बंद कर दें......अरे मेरे भाई पुरस्कार बंद करने की बात मैं उठा रहा हूं उदय नहीं। और यह महज आपकी कल्पना है कि उदय व मेरे बीच भगवान-भक्त जैसा कोई अजीबो-गरीब संबंध है।
    और किसी योगी या इमाम से मेरा लेना-देना तो बहुत दूर की कौड़ी है मैं तो इतना ‘धार्मिक‘ हूं कि आज तक अपना गोत्र भी नहीं पता।
    और पार्टी या विचारधारा से मिली नास्तिकता से बहुत आगे की चीज़ होती है अपने तर्क और विवेक से आयी नास्तिकता। ऐसी नास्तिकता ही आपको विचारधाराओं के कुंओं से बाहर निकाल सकती है।
    और जिस दिन मायावती जी ने एस. के. मिश्रा को आगे करना शुरु किया था उन्हीं दिनों मैंने अपने एक दलित मित्र से कहा था कि माया अब ज़रुर धोखा खाएंगी और ज़्यादा दिन नहीं चलेंगीं। अंदर की बात तो पता नहीं पर अंशतः मेरी बात सच हुई। मायावती वर्ण राजनीति की माडल हैं कि नहीं यह जुदा बात है। पर जब हजारों साल के भरे-खाए-अघाए लोग भर-भर कर भ्रष्टाचार और जुल्म करते हैं तो मायावती जी को अलग से गलियाते रहना किस मानसिकता का द्योतक है ?
    बात फिर वही आती है....कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना ...
    आप अपने व्यक्तिगत जीवन को बीच में क्यों ला रहे हैं ? क्या यह आपकी-मेरी व्यक्तिगत लड़ाई है ? ज़रुर आपने भगतसिंह को लेकर बहुत कुछ किया होगा और बहुत कुछ करेंगे। पर वह मेरे सवाल का जवाब नहीं है, मेरे दोस्त !

    क्या अभी भी आपको लगता है कि आपने मेरे सवालों का जवाब दे दिया था !?

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  8. हां भाई लगता अभी भी है…अब ये भी साफ़ है कि सवाल हैं ही नहीं। रेटोरिक है, वितण्डा है और जेनेरलाईजेशन्…इन सबके आड में निशाना कहीं और है।

    बात उदय जी के बहाने की जायेगी तो उन तक पहुंचेगी…और आपकी आस्था क प्रमाण है आपकी लेखनी से निसृत यह सच

    ''कभी पत्नी मन्नू को सताने का आरोप कभी योगी से पुरस्कार के बहाने चिल्लपों। ''

    क्या मन्नू जी ने ख़ुद अपनी आत्मकथा में यह सब नहीं लिखा? क्या कोई इतना महान होता है कि उसके ख़िलाफ़ कुछ कहा ही नहीं जा सकता? मन्नू क्या साजिश कर रही हैं? लेखन में स्त्री विमर्ष और घर में सामंती व्यव्हार…क्या इस पर बात नहीं होनी चाहिये?आप की स्त्री विमर्ष की सीमा भी दिखती है जब मन्नू के लेखकीय योगदान को भूलकर आप पूछते हैं कि किस लेखक के पत्नी का इंटर्व्यू लिया गया? क्या महाभोज की लेखिका का परिचय सिर्फ़ राजेन्द्र यादव की पत्नी होना है? यही वह सोच का स्तर है जहां आप और राजेन्द्र यादव एक साथ बैठे नज़र आते हैं।

    और योगी से सम्मान लेना इतनी छोटी बात है कि उस पर हमारा विरोध बस चिल्ल-पों? कहीं ओशो वगैरह के चक्कर लगाते आप गोरखनाथ जाकर हिन्दूवाहिनी वालों से तो नहीं मिल आये? वहां हिन्दू होना अभी काफ़ी है गोत्र वे आराम से पता कर लेंगे।
    एक पूरे विरोध के आख्यान को चिल्लपों कहकर ख़ारिज़ कर देना आपकी निगाहों के असली निशाने का साफ़ पता देता है भाई। भक्ति सगुण ना सही निर्गुण की ही सही। लक्ष्य तो एक ही है।

    मै जिस विचारधारा से हूं उससे प्रभावित नही उसका अनुगामी हूं … पार्टी फिलहाल नहीं कोई मेरी पर वामपंथ ही मेरी विचारसरणी का निर्माण करता है। भौतिकवाद को समझे बिना कोई सच्चे अर्थों में नास्तिक या तार्किक हो सकता है… मैं नहीं मानता। और मेरी विचारधारा कुंआ नहीं एक विशाल आकाश है जिसका चक्कर लगाने के लिये पंखों और हौसलों दोनों में ताक़त चाहिये।

    आप सब-सब कहकर परेशान है- तो लीजिये न नाम? कौन रोकता है? या बताईये पहले कौन सी घटना के बाद स्टैण्ड लिया और किसी ने साथ नहीं दिया? मै बताउंगा तो कहेंगे व्यक्तिगत हो गया।

    व्यक्तिगत बातें इस लिये कि सब पर जो हमले हैं वे उनकी व्यक्तिगत शुचिता को लेकर ही हैं।तो लगा अब हिन्दी में बहस करने के लिये प्रमाणपत्र लेकर आना पडेगा।

    यह जो गायत्री परिवार वाली नैतिकता है ना दर असल व्यक्ति और समाज को गहरे अपराधबोध में डालकर भविष्य के अपराधों को खुला रास्ता देने के लिये है…आप की तर्कप्रणाली उसी पर आधारित है।

    स्वतंत्रता सोच के लिये आधार देती है और स्वछंदता किये को ज़ायज़ ठहराने के लिये तर्कों के निर्माण का… विचार ख़ारिज़ करने वालों की यही समस्या है…राजेन्द्र यादव की, उदय प्रकाश की और आपकी भी।

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  9. हां पुरस्कार की ख़ूब कही।
    चलिये आप ही अभियान चलाईये- और सबसे पहले उदय के पास आप प्रपोज़ल लेकर चाहिये- मैं अब भी दूसरा होने को तैयार हूं…हां उस सूची में शामिल होने की औकात है कि नहीं यह फ़ैसला आपको ही करना होगा।

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  10. अशोक जी, मैं फिर से आपसे गुजारिश करुंगा कि मेरे सवाल एक बार फिर से पढ़ें और खुद फैसला करें कि आपने जो कहा वो जवाब हैं या टालमटोली है, बात को इधर-उधर कर देने की कोशिश है।
    क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि विशेषांक चित्रा मुदगल और गगन गिल पर निकले और आधी पत्रिका अ. न. मुदगल या निर्मल वर्मा के चरित्र-हनन से भरी पछ़ी हो। क्या कभी निर्मल और गगन या चित्रा और अ.न. क ेलेखन की परस्पर ऐसी तुलना देखने में आयी है जैसी राजेंद्र और मन्नू क ेलेखन की की जा रही है ? लगता यही है कि बहस के बहाने, दलितों और स्त्रियों के लिए साहित्य में राजेंद्र यादव द्वारा बनाए माहौल का क्रेडिट छीनने की कोशिश की जा रही है। ऐसी छल-प्रधान रणनीतियों की मूल प्रतियां इतिहास में आसानी से तलाशी जा सकती हैं।

    देशकाल. काम पर मैंने यादवजी से एक सवाल पूछा था, उसे भी यहां रख रहा हूं:
    ’’’’’’’’’प्रश्न: क्या हिंदी साहित्य-समाज में आप अकेले ऐसे साहित्यकार हैं जिसने पत्नी को सताया (?) व अन्यत्र संबंध रखे !? जरुर आपसे भी बड़े-बड़े धुरंधर रहे होंगे। फिर सारी ‘‘ख्याति’’ आपके हिस्से क्यों आती है !? क्या इसकी वजह कहीं अन्यत्र छुपी है ? क्या यह संभव नहीं कि कुछ लोग बहुत ही शातिराना ढंग से मन्नूजी का इस्तेमाल कर रहे हों !?

    उत्तर: ज़रुर कर रहे हैं, मगर इसके पीछे कारण व्यक्तिगत नहीं हैं। मेरे खिलाफ जो एक विरोधी वातावरण पिछले दसियों साल से बना है, उसी मानसिकता में ये लोग मेरी कमज़ोरियां और कमियां तलाशा करते हैं और उन्हें ही बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं। धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, कमलेश्वर हर किसी के संबंध अपनी पहली पत्नियों से बिगड़े ही नहीं बल्कि कोता भारती ने तो एक निहायत ही अपमानजनक पुस्तक ‘रेत की मछली’ लिख डाली। अगर मैं मन्नू के साथ अच्छे पति की तरह नहीं रह पाया तो क्या मुझे इस चुनाव का अधिकार नहीं कि अच्छे मित्र की तरह उसके साथ संबंध बनाकर रखूं, जो आज भी हैं। बाहर हम दोनों को साथ देखकर कोई सोच भी नहीं सकता कि हम अलग-अलग रहते हैं।’’’’’’’’’’’


    मित्रवर, मन्नू जी ने आत्मकथा लिख दी और मौका आपके हाथ लग गया। आपने यह नहीं सोचा कि आत्मकथाएं आत्मस्वीकृतियां राजेंद्र यादव के आस-पास से ही क्यों ज़्यादा आती हैं ? ‘हंस’ का पाठक और लेखक ही क्यों इतना खुलकर लिखता-सोचता है !? कैसे बना है यह स्पेस ?
    आप ले देकर एक दो बातें दोहरा रहे हैं। कि सभी पापी हैं तो क्या हुआ मेरे वाले 98 पापी जज रहेंगे और आपके वाले 2-3 पापी फांसी पाएंगे। दूसरे आप कह रहे हैं कि नाम लीजिए, नाम लीजिए। मज़े की बात यह है कि खुद आपको उदयप्रकाश और राजेंद्र यादव के अलावा तीसरा नाम नहीं सूझ रहा ! हिम्मत नहीं पड़ रही या पक्षधरता और गुट पहले से ही तय कर लिए हैं या तयशुदा एजेण्डे पर चल रहे हैं, यह तो आपको ही पता होगा। मैं तो खुद भी नाम ले रहा हूं और इसी वजह से अंशुमाली की तारीफ भी कर आया हूं। एक आदमी तो निकला जिसने उदय के साथ चार नाम और भी लिए। इसी घटना के समानांतर छत्तीसगढ़ कांड और हिंदी अकादमी कांड भी प्रगति पर हैं, लेकिन उदय के विरोधियों को खुजली तक नहीं हो रही ! क्यों कि वे उदय के विरोधी हैं, किसी सही-गलत के नहीं, इसलिए !? बंधुवर कितनी भी छिपायी जाए पर वजह वही है जिसके चलते वी पी सिंह को ऐतिहासिक गालियां मिलीं और आरक्षण विरोधी प्रदर्शनों में जूता पालिश करने और झाड़ू लगाने का नाटक करने जैसी निकृष्ट हरकतें की गयीं।

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  11. अब आते हैं औकात पर। चलिए कबीर और रहीम के ज़माने में तो पुरस्कार बांटने वाली संस्थाओं का आविष्कार नहीं हुआ था । पर क्या मुक्तिबोध, धूमिल और निराला के वक्त में भी सूची बनाने वाली महानताओं के दिमागों को लकवा मार गया था ? जिस ओशो रजनीश को कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला उनके पास भी आपके न जाने कितने परमश्री और भरमभूषण चक्कर लगाते थे। कितने आज भी उन्हीं की किताबों से काम चला रहे हैं। औकात की बात करके आपने वर्णवाद, रंगवाद और भेदभाव वादी मानसिकता की कलई पूरी तरह से खोल ली है। क्या हौती है औकात ? कि राष्ट्रपति के साथ दो बार चाय पी है कि नहीं ! कि चार संपादकों के बीच उठना-बैठना है कि नहीं ! कि प्रकाशक आपको नए लेखकों के शोषण की कीमत पर दारु पिलाता है कि नहीं ! कि आप किसी ऐसे पद पर है कि नहीं कि आप भी ‘बदले’ में दूसरे का कुछ फायदा करा सकें कि नहीं ! औकात तो इसी से पता चल जाती है कि जो भारत भूषण पुरस्कार सिर्फ एक कविता के आधार पर दिया जाता है वह आजतक किसी अनजाने-अदेखे लेखक को मिलता नहीं देखा गया। उसमें भी न जाने कौन-कौन सी गिनतियां गिनी जाती हैं ! यही पुरस्कार योरप के किसी देश में होता तो हर वर्ष एक नितांत नयी खोज सामने आती। जो भी हमारे पुरस्कारों की हकीकत जान लेगा उसके लिए पुरस्कार लेने वाला विश्वसनीय नहीं संदिग्ध होता जाएगा।
    पुरस्कार बंद करने की शुरुआत भी उदय ही करें, ऐसा आप चाहते हैं। आप वही कर रहे जो एक दफतर के सारे निकम्मे लोग उस दफतर में काम करने वाले एकमात्र आदमी पर अपना सारा काम लाद कर करते हैं। वही मैंने पहले भी कहा कि किस तरह का व्यवहार यहां लोग आत्मालोचना करने वाले और माफियां मांगने वाले के साथ करते हैं।
    आप मुझे गायत्री परिवार का कहें, सावित्री परिवार का कहें या किसी और परिवार का कहें, आपकी समझ है। मेरा ‘परिवारबाज़ी’ में विश्वास ही नहीं है। किसी विचारधारा से मेरा ऐसा रिश्ता कभी रहा ही नहीं जैसा किसी पालतू जानवर का अपने, गेंद फेंकर उठालाने का खेल सिखाने वाले मालिक से होता है। अगर किसी आर.एस.एस वाले को शुरु से दो बाई दो का का वैचारिक स्पेस मिला है और वामपंथी को छः बाई छः का मिला है तो उसमें बहुत खुश होने की ज़रुरत इसलिए नहीं है कि दोनों ही दिए गए स्पेस से काम चला रहे हैं। उसको खोलने-बढ़ाने के लिए न इसने कुछ किया न उसने। दोनों में अंतर क्या हुआ फिर !
    इस सब पर विचार कीजिए न !

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  12. और जो एक वामपंथी सवर्ण ने जो प्रोफ़ेसर था और वामपंथी लेखक
    संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में है, देवी शंकर अवस्थी पुरस्कार पा चुका है, जब वह एक निचली जाति की शोध छात्रा का यौन शोषण करता है, तो वह किस भौतिकवादी दर्शन के तहत ऐसा करता है?
    उस पर कोई पांडे या दूसरा 'वामपंथी' क्यों निंदा, भर्त्सना नहीं करता।

    दूसरा यह कि कुंवर अर्जुन सिंह किस मार्क्सवादी विचारधारा के मुताबिक ऐसे जातिनिर्पेक्ष धर्मनिरपेक्ष शख्सियत बन जाते हैं कि सारा वामपंथ उनके दरबार में हाज़िरी लगाता है? भोपाल गैस त्रासदी, चुरहट लाटरी कांड, केरवा डैम कांड, मौनी बाबा की भक्ति और पी.एम. की कुर्सी पाने के लिए तंत्र-मंत्र और सोनिया की शर्मनाक चाटुकारिता के बाद भी उनकी चरणामृत पीते हुए पद और पुरस्कार हथियाते रहते हैं, उसके पीछे कौन सी आइडियोलाजी है...?

    आखिर आप लोग ईमानदारी से स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि आप लोग कट्टर हिंदूवादी जातिवादी हैं और आप मार्क्सवाद का मुखौटा अपने असली चेहरे को ढंकने के लिए कर रहे हैं?

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  13. मैने बात अपनी औकात की की थी…आप गौर से पढें।
    जिस सूची मे उदय जी जैसे बडे लेखक हों वहां शामिल होने की मेरी औकात होगी कि नहीं यह आपको तय करना है।

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  14. हां बहस काफ़ी कटु हो चुकी है…शायद अब इसे और आगे ज़ारी रखना उचित नहीं होगा।
    आपसे मेरी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं…बल्कि आप का तो मैं सम्मान ही करता हूं।
    विचारधारा कभी स्पेस की सीमा नहीं बनाती।
    आप भी मेरी बातों पर दुबारा सोचियेगा ठंढे दिमाग से और मै भी…शायद कोई रास्ता निकले।

    हां मेरा वाला कोई नहीं…कभी मिले तो आराम से बात होगी। यह फिर भी पब्लिक स्पेस है।

    आशा है संवाद बना रहेगा।
    9425787930

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  15. ्मैने की थी निंदा…समयांतर में भी और मोहल्ला पर ग्रोवर साहब की एक पोस्ट पर किये कमेंट पर भी।
    उदय उसी वाले लेखक संघ में ही थे …पूछिये उन्होंने क्या किया था उसे संगठन से निकालने के लिये।
    और हां नरेन्द्र मोदी का प्रचार करने वाली मायावती का समर्थन मैं नहीं कर सकता… किसी भी आरोप की कीमत पर्।

    अर्जुन सिंह और पीडब्ल्यू ए के संबंधों पर तो विस्तार से लिखा है मैने समयांतर में ही…पर आप क्यों पढेंगे? जैसे मै किसी की इज़्ज़त इसलिये नहीं करता कि वह बाभन है वैसे ही दलित उपनाम होने भर से मै किसी को सर्टिफ़िकेट नहीं देता। ना ही आप जैसों के सर्टिफ़िकेट की परवाह करता हूं।

    पुरस्कारों के लिये चक्कर लगाने वालों से सवाल पूछिये … आप उन चारणों में से एक के ही उपचारण है। अब आपके लिये आदित्यनाथ के भी रास्ते खुल गये हैं। इस बन्दे तो जीवन में कभी पुरस्कार ना लेने की खुली घोष्णा की है वह भी तब जब अगले चार महीने में चार किताबेम आनी हैं।

    ग्रोवर साहब की इज़्ज़त करता हूं उनके पुराने स्टैण्ड की वज़ाह से… आप जैसों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना आता है। यह मत समझिये कि अपने उपनाम के अपराधबोध में दबकर डर जाऊंगा।

    स्वीकार आप कीजिये अपने परले दर्जे के चमचे, मौकापरस्त और कुण्ठित मानसिकता के होने के।

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  16. सोनिया की चाटुकारिता अर्जुन की मज़बूरी थी पर आप वाले कुंवर साहब क्यूं कर रहे थे अपने ब्लाग पर्…तब कहां थे आप?

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  17. यह क्‍या हल्‍ला मचा रखा है? यह संवादघर है कि झगडाघर। जब भी यहां आता हूं कोई न कोई पंगा मचा रहता है। क्‍या लोग शांति से नहीं रह सकते। पडोसियों को परेशानी होती है भई । बुद्व, महावीर, नानक और महात्‍मा गांधी जैसे महापुरुषों की इस धरती पर राजेन्‍द्र यादव, और पता नहीं कौन उदय प्रकाश जैसे लोगों के लिए इतना फसाद किया जा रहा है। मजे की बात यह कि बीच बीच में मायावती, लालू यादव, वृंदा कांरत जैसे मौकापरस्‍त, और घटिया राजनेताओं की वकालत की जा रही है। जानवर और मानव में यही फर्क है कि जानवर किसी धर्म को नहीं मानते और मानव मानवता को धर्म मानते हैं। नास्तिक और कीडे एक श्रेणी में रखे जा सकते हैं क्‍योंकि दोनों ही भगवान को नहीं मानते और सच की अनदेखी करते रहते हैं। इस घटिया और बंजर सोच की पैदावार को वामपंथी कहा जाता है जो वस्‍तुत: मौकापरस्‍ती और घटियापन की बेजोड मिसाल है। जैसे उपजाऊ भूमि से घास को निकाल फेंका जाता है वैसे ही लोकतंत्र में से वामपंथ और कम्‍युनिस्‍टों को निकाल देना चाहिए। पस्‍सू भइया (पासवान) चाहें तो वर्गभेद और जातिवाद पर अपनी सडी और बासी सब्‍जी फेंक कर खुश हो सकते हैं और बाद में उसी सडी और बासी सब्‍जी की आरक्षण रुपी खाद पर अपने बच्‍चों के लहलहाते भविष्‍य की फसल काट सकते हैं। यह अव्‍वल सिंह के विचार हैं लेखक का इनसे सहमत होना आवश्‍यक नहीं है।

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  18. अपना नहीं पता, दूजे को दे दवा !1 अगस्त 2009 को 9:15 am बजे

    अव्वलसिंह जी, यह आस्तिकता की बब्बलगम अब थूक दो। इसका नकली मीठापन कबका खत्म हो चुका। कब तक ज़बरदस्ती चबाओगे ? बार-बार का हठ ठीक नहीं। वैसे भी यह झगड़ा नहीं बहस है। झगड़ा भी दंगे से तो बेहतर ही होता है। बिना प्रोफाइल वाले पड़ोसी खामख्वाह ऊंगली करेंगे तो हाथ धोने की परेशानी तो उठानी पड़ेगी। अगर हाथ धोने में अहंकार घिसता है तो ऊंगली दूर रखो भाई। और जानवर तो खाते भी हैं, हंगते भी हैं, जनते भी हैं। तो क्या इनसे अलग दिखने के लिए आदमी ये सब काम बंद कर दे ? कोई नए तर्क लाओ, यार। ये तो इतने सड़ गए कि अब खाद भी नहीं बनेगी। नास्तिक को आप चाहो तो कीड़े की श्रेणी में रख सकते हो। कीड़ा बुरा नहीं मानेगा। पर आस्तिक ! जब मतलब पड़ा कीड़े का बहुरुप। जब मरज़ी आयी इंसानों जैसी ऐक्टिंग। आपका कोई मुकाबला नहीं। आप वाकई लाजवाब हो। आप हज़ार साल पुराने वर्णवादी आरक्षण को छोड़ने को तैयार नही ंतो दूसरों से क्या उम्मीद रखते हो ? बुद्व, महावीर, नानक और गांधी के नाम किस मजबूरी में ले रहे हो भाई ? ताज़ा धर्मनिरपेक्षों और लचीले लौह पुरुषों से बड़ी जल्दी पिण्ड छुड़ा लिया। बड़े मतलबी निकले।
    ये अच्छे और सच्चे पड़ोसी के विचार हैं, नकली प्रोफाइलों का इनसे सहमत होना अनिवार्य नहीं।

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  19. संवाद घर इज संजय ग्रोवर और अशोक पांडे जी की बहस पढ़ कर समझ में आया कि दो सही लोग कैसे किसी आधे तीतर आधे बटेर को अपने कोण से त्तीतर और बटेर साबित करने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं . पर यह अच्छा ही इससे हम जैसे लोगों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है. दरअसल इस मिश्रित व्यवस्था से उपजे लोग भी इसी की तरह होते हैं चाहे वे जो मुखौटा धारण करते हों . पूंजीवादी व्यवस्था कोई मोटा तगडा नाना दादा नहीं है जिस पर बाम पंथी बच्चे अपने छोटे छोटे घूँसे मार रहे हों और वह मजे ले रहा हो . यह सीधी लड़ाई है इसमें हम ही उस पर दबाव नहीं बनाते वे भी हमारे ऊपर भरपूर ताकत और कुटिलताओं से हमले करते हैं इससे हमारे लोग भी प्रभावित होते हैं. राजेंद्र यादव हों , उदय प्रकाश हों या अजय तिवारी हों इनमें से हरेक का अपना अपना उजला पक्ष भी है. परखने कि बात यह है कि कौन सा पक्ष सच्चा है और कौन सा मुखौटा है .अनेक लोग बाम पंथ का मुखौटा इसलिए भी लगा लेते हैं क्योंकि वह अब भी सब से विश्वसनीय और बेदाग है . वैज्ञानिक दृष्टिकोण उसे विश्वसनीयता प्रदान करता है . इस बहस में आप दोनों ही लोग समाज और वर्ग के साथ सहानिभूति पूर्वक सोच रहे हैं . देखने कि बात यह है कि किसका इतिहास कैसा रहा है , कौन कितनी तेजी से सुविधाओं कि और दोड़ कर जाता है और कितने समझौते करता है .वकील तो सबको मिल जाते हैं .अच्छे वकील तर्क भी अच्छे देते हैं .
    में समझता हूँ कि उनके संघर्षशील पक्ष को समर्थन देते हुए उनकी कमजोरियों की भी निर्मम समीक्षा होते रहना चाहिए . जो लोग बाम पंथ का मुखौटा लगाये हैं उनको तो और अधिक कठोर आलोचंनाओं से गुजरने के लिए तैयार रहना चाहिए . इसमें सावधानी यह होना चाहिए कि हम उसके अच्छी कामों की भी लगातार तारीफ भी करते चलें

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  20. अरे पड़ोसियों, क्या कभी तुम्हारे पड़ोसी मंगलेश डबराल ने भी अयोध्या
    में कोई पुरस्कार लिया था ? याद करके बताओ तो।

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  21. प्रिय संजय जी
    आपका उत्‍तर पढा। इस वाद विवाद, फसाद या संवाद में मजा आने लगा है। हांलाकि व्‍यक्गित तौर पर तो मैं आपको नहीं जानता पर आपके शक्तिशाली तर्कों से स्‍पष्‍ट है कि विद्वान पुरुष के बौद्विक स्‍तर में वामपंथ रुपी वायरस ने स्‍थायी निवास बना लिया है। इस वायरस ने नास्तिकता, आरक्षणवाद, लंपट राजनेताओं का पक्ष लेने वाले जैसे कई दुर्गुणी वायरस भी पैदा कर दिए हैं पर जैसे डाक्‍टर अपने मरीज से स्‍नेह करते हैं वैसे ही मैं भी आपसे स्‍नेह रखते हुए इन कीडों/बीमारियों से आपको मुक्‍त करने का विश्‍वास दिलाता हूं। पुराने मर्ज को देखते हुए लंबे इलाज की दरकार है पर इसके अलावा कोई उपाय भी नहीं है। पर शर्त एक ही है कि इस दौरान भाषा अमर्यादित न हो और चुटीली रहे तो इस इलाज का असर तुरंत दिखने लगेगा। अगर हो सके तो कब्‍ज पैदा करने वाले वामपंथी साहित्‍य और अपनी ही भूमि पर मर चुके साम्‍यवाद तथा उन लेखकों जो आपके ब्‍लॉग में प्रशंसित होते रहते हैं के महिमामंडन से बचिएगा क्‍योंकि हो सकता है अपने छोटे से स्‍वार्थहित के लिए आप अपने बौद्विक स्‍तर का बडा ह्रास कर रहे हों। इस कडी को यहीं समाप्‍त करते हैं ताकि आपकी ऊर्जा किसी अच्‍छे विषय को पकाने में खर्च हो। हां मेरी विजिट होती रहेंगी ताकि मैं सुनिश्चित कर सकूं कि सब कुछ सही चल रहा है। अगली पोस्‍ट का अव्‍वल सिंह को बेसब्री से इंतजार रहेगा।
    शुभकामनाओं सहित।

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  22. अपना नहीं पता, दूजे को दे दवा !2 अगस्त 2009 को 3:27 pm बजे

    बेबात दूसरन का कीड़ा-कव्वा बोलन वाले का मुख से मरियादा, सालीनता जैसा लफज अच्छा नाहीं ना लगत। डागदर बनिबे का जादा ही सौक रहा तुमका। तौ डिगरी काहे ना लेत बचवा। डिगरी लइकै पूरा साइन बोरट लगइ के करौ न डागदरी। ई का नीम-हकीमन की तरियां छुप-छुपके सरमा-सरमा कै सिकार ढूंढत फिरत हौ। आपुना असल नाम भी ना बता सकत हौ किसी का। या फिर ऐइसा करिहों, ई जो तोहार सोकेसी नाम हैना-‘तोहारी खोज मा’, ईका बदलि कै करि लेओ ‘बिमारी, खोज मा’। जिससे का आम पाठक झट से समझ जईंए कि ई ब्लंडर बिमारी कोई सवसथ मरीज की खोज में निकर पड़ी है। आपुनाबचाव का तरीका करिके रखिबे का।
    और हां, हमार संजय जी को भुनगा कीड़ा नाहीं है कि तुम उनका ईपंथी, ऊसंघी बताए रहे हौ। संजयजी जैसा स्वतंत्र मानस के आदमी का काहे तुम पंथ, धरम, संघ, धारा बिगैरह की छोटी-छोटी गुल्लकन मा फिट कर रहे हौ, भाई ? और जाऔ पहिलें आपुना असली नाम पता करिकै आऔ। जे कौन से खेल का नियम रहा के तुम तौ बार करौगे छुपि-छुपिकै और संजयजी का बना देओगे खुल्ला अभिमन्यु ? ना भाई ना। हम संजय जी का अइसा रिसक नाहीं लेन देंगे। जाऔ पहिले आपुना नाम पता करौ। अरे, जाओ-जाओ, तनिक तो हिम्मत करो, भाया। हां, साबास। हम ईहां वेट करत हैं तोहारा। लौट कै जरुर अईहों लला।

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  23. बीमारी खोजन की खातिर तो हम यहां पहुंचल बा बबुआ। इ जो खिसियाए रहो हो, इ कि दरकार न बा। हम तुहार दुसमन न बा। और कीडा कव्‍वा हम तोहके न बोले रहिन इ तो मुहावरे हैं, अगर ठेस पहुंची हो तो बाइज्‍जत हम शर्मिंदा बा। पर बबुआ अब ऐंठ छोड दो और नाराजगी भी, क्‍योंकि हम इहां झगडा करन खातिर नहीं आइल। जब समय आइ तो पहचान भी हो जाइ और पोस्‍ट भी लग जाइ । और हम इहां अभिमन्‍यु को बचान खातिर आई शहीद करन खातिर नाहीं। अगर अब भी लगत है कि हम तो पे वार करत हैं तो इ तुहार बुद्वि, पर बबुआ आपन दिमाग और ऊर्जा अच्‍छे काम खातिर लगा। और ई गुल्‍लक, तिजोरी की बात छोडि के आपन हाथ फैलाओ और दुनिया को थोडे बडे चश्‍मे से देखन की कोसिस करो। इ दुनिया बहुत खूबसूरत बा।

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  24. कबीर को मैग्सेसे पुरस्कार मिलना चाहिए था. एकलव्य को तो यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर बना देना चाहिए था. वाइस चांसलर बनकर धृष्टद्यूम्न को फेल कर देता. उसके पाँव का अंगूठा कटवा लेता सो अलग. बुद्ध को बाबासाहब आंबेडकर पुरस्कार से नवाजा जाना चाहिए था. गैलिलियो के लेख नया ज्ञानोदय में छपने चाहिए थे और उसे १००१ रूपये के साथ ताम्रपत्र दिया जाना चाहिए था. तब जाकर इतिहास रोज उनका चालीसा पढ़ता. (मेरा मतलब लोग)

    और ई किसान का नाम राधामोहन काहे बताते हैं जी? इससे तो ये सवर्ण किसान लगता है. अरे भैया, सवर्ण किसाने हो जाएगा तो फिर असली किसानी तो जाती रहेगी मुलुक से. और ई हिमांशु सभरवाल भी त सुना है हत्या का आरोप से आरोपियाये हैं. जे एन यू का नेतवा सब उसका चरित्र के बारे में का कहता है जी? येचुरी जी?...का चुरा रहे हैं अब?

    और का ई आप वर्णशत्रु और वर्गशत्रु का बात कर रहे हैं? कोई ठीक से पढेगा त आपके ही उपरे आरोप लगा देगा कि आप शत्रुघ्न सिन्हा के कहने पर ई लेख लिखे हैं. वर्गशत्रु बताने से पैसा मिलता है. समझिये. आप भी महराज?
    बामपंथियों से ई भी पूछिए कि काहे महाश्वेता देवी आजकल ममता बनर्जी का मंच पर लौकती हैं?....ई सब काहे नहीं बताता कि तथाकथित प्रगतिवादी कवि-लेखक सब ई सब को डिजर्ट करके बंगाल में काहे चला गया....ई बामपंथिया सब का चरित्तर के बारे में काहे नहीं पोछता सब?

    खैर, छोडिये...जाने दीजिये. केतना कहेगा मनई सब? ई सब चिरकुटई नहीं छोडेगा.

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  25. वामपंथ को गाली देना फ़ैशन हो गया है आजकल।
    विपर्यय के दौर में यह अस्वाभाविक भी नहीं

    पर हां ऐसे लोग बतायेंगे कि ख़ुद उनकी परंपरा क्या है? उनकी पक्षधरता क्या है? अगर नंदीग्राम के ख़िलाफ़ हमारे जैसे लोग सीपीएम को डेज़र्ट कर रहे हैं तो यह वाम के प्रति हमारी प्रतिबद्धता है। हम बंगाल की सत्ता का जश्न मनाने के लिये नहीं इस देश की व्यापक जनता की पक्षधरता के लिये वामपंथी हैं।

    और इस पर हमें आज भी गर्व है।

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  26. अरे भाई पांडे जी त बिदक गए. पांडे बाबू को ई भी त देखने का ज़रुरत है कि बंगाल में नंदीग्राम से पहिले का कुछ हुआ ही नहीं था? ई नंदीग्राम त पराकाष्ठा है भाई पांडे बाबू. जब पानी सर से ऊपर चला गया तब आपको लगा कि पानी ऊपर अऊर आप भितरे. कोई देख ही न पायेगा आपको. तब आप हुआँ से निकलकर डिजर्ट में खड़े हो गए. अब शेखी बघार रहे हैं? आपको मालुम है बाबू कि नंदीग्राम से पहिले ही आपका भगवान (सौरी. भगवान पर त विशबासे नहीं है आपका) सबका राज्य में राशन दुकान सब लुटना शुरू हो गया था? काहे हुआ ऐसा? पूछे कभी उनसे जिनके लिए नारा लिखकर साहित्यकार का लिस्ट में नाम डलवाए हैं?

    खैर, जाने दीजिये.

    धन्य है बाम. और धन्य हैं काम. (रेड?)

    जवाब देंहटाएं
  27. अरे भाई पांडे जी त बिदक गए. पांडे बाबू को ई भी त देखने का ज़रुरत है कि बंगाल में नंदीग्राम से पहिले का कुछ हुआ ही नहीं था? ई नंदीग्राम त पराकाष्ठा है भाई पांडे बाबू. जब पानी सर से ऊपर चला गया तब आपको लगा कि पानी ऊपर अऊर आप भितरे. कोई देख ही न पायेगा आपको. तब आप हुआँ से निकलकर डिजर्ट में खड़े हो गए. अब शेखी बघार रहे हैं? आपको मालुम है बाबू कि नंदीग्राम से पहिले ही आपका भगवान (सौरी. भगवान पर त विशबासे नहीं है आपका) सबका राज्य में राशन दुकान सब लुटना शुरू हो गया था? काहे हुआ ऐसा? पूछे कभी उनसे जिनके लिए नारा लिखकर साहित्यकार का लिस्ट में नाम डलवाए हैं?

    खैर, जाने दीजिये.

    धन्य है बाम. और धन्य हैं काम. (रेड?)

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  28. जिन्हें अपना नाम बताने में शर्म आती है वे दूसरों पर सवाल किस हक़ से उठाते हैं? कितना जानते हैं आप हमें? अगर खाली समयांतर पढते तो पता चलता कि जो अब आप चिल्ला रहे हैं वो हम कई बरस पहले तर्क और आंकडो सहित बयान कर चुके हैं। वामपंथ चूं चूं का मुरब्बा नहीं कि नेट पर नेटे की तरह छिनक दिया।

    पूरी जवानी संघर्षों में बिताकर कहने सुनने का हक़ पाया है। किसी ममता या बसु ने नहीं जनता ने सिखाया कि आज भी मुक्ति का हथियार वहीं है। और आप की विचारधारा क्या है? सबको गरियाना और फिर पेट भर खा के गंद फैलाना। वाम की चिंता छोडिये…आप जहां से खाद इकट्ठा करते हैं वहीं उसी लीद की गंध पर ध्यान दीजिये- स्वास्थ्य ठीक रहेगा

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  29. और नारे कौन से कब लिखे हैं हमने बताईयेगा? अंधेरे में तीर मत चलाइये कहीं आप तक ही ना लौट आये

    आप जिनकी चड्ढी धोते हैं उनका पता बताईये।

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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