शुक्रवार, 11 जून 2010

....तो आएगी किस दिन क़यामत पता हो


ग़ज़ल




क्यूं करते हैं मेहनत ये नीयत पता हो
बीमारों की असली तबीयत पता हो


तुम्हे गर मेरे सच की जुर्रत पता हो
तो आएगी किस दिन क़यामत पता हो


पिता सर पे, पलकों पे माँ को रखेंगे
बशत्र्ते कि उनकी वसीयत पता हो


क्या तोड़ोगे आईना, कुचलोगे चेहरा?
करोगे भी क्या गर हक़ीकत पता हो


वो इज़हारे-उल्फ़त संभलकर करें, गर
जो है होने वाली वो ज़िल्लत पता हो



-संजय ग्रोवर



(‘द सण्डे पोस्ट, सहित्य वार्षिकी में प्रकाशित)

सोमवार, 7 जून 2010

कन्फ़्यूज़न में रणनीति है या रणनीति में कन्फ़्यूज़न !?

हंस के मई अंक में मेरा एक लेख है। यह अंक नेट पर आज, लगभग एक महीना देर से अवतरित हुआ है। वजह तकनीकी रहीं होंगीं। यह लेख हंस के कालम की कुछ बातों पर प्रतिवाद-स्वरुप है। अभी एक मित्र ने फोन पर कहा कि इसे ब्लाग पर लगाकर किसकी चर्चा चाहते हो-कालम की या अपनी !? बहरहाल, मैं इसका अगला भाग और छापकर अपनी तरफ़ से क़िस्सा ख़त्म करुंगा क्यों कि क्रिया-प्रतिक्रियाओं की भाषा लगातार छिछली हो रही है और (कालमिस्ट की मंशा जो भी रही हो )मामला महिला-मुक्ति से ज़्यादा दूसरे झगड़ों पर केंद्रित होता चला जा रहा लग रहा है।

(‘हंस’ में स्पेस की मारा-मारी के चलते जो कुछ एडिट हुआ या करना पड़ा, उसका भी कुछ हिस्सा यहां आ गया है। )

कन्फ़्यूज़न में रणनीति है या रणनीति में कन्फ़्यूज़न !?

यादवजी, मान लीजिए आप सड़क पर जा रहे हैं। देखते हैं कि एक आदमी, दूसरे के पेट में छुरा घोंपने वाला है, आपकी पहुंच के दायरे में है। आप छुरे वाला हाथ पकड़ लेते हैं। तभी वह आदमी पूछता है कि कौन जात-धरम हो भाई ? आप कहते हैं हिंदू हूँ या इंसान हूँ या नास्तिक हूँ। जवाब आता है कि कुरान पढ़ा है कभी ? शरियत जानते हो। तुम्हे क्या पता कि क्या जायज़ है और क्या नाजायज़ ? जाओ पहले पढ़के आओ ! यादवजी, क्या आप उसका हाथ छोड़कर कुरान पढ़ने जाएंगे या ‘सब धान बाईस पंसेरी’ ही करना ठीक समझेंगे !?
यादवजी, मान लीजिए आप मुस्लिम हैं। घर में कोई बीमार है। डॉक्टर ने भी बोल दिया है कि शोर-शराबे से दूर ही रखिए नहीं तो पागल भी हो सकता है। ऊपर के फ्लोर पर ढोल-मंजीरों वाला कोई धार्मिक आयोजन चल रहा है। आपकी नसें फट पड़ने को हो रही हैं। आप ऊपर जाकर प्रार्थना करते हैं कि भाई मेरा बच्चा मर जाएगा, पागल हो जाएगा, शोर कुछ कम कर लो। प्रत्युत्तर है कि पहले सारे धर्मग्रंथ पढ़ लो फ़िर आना ऊंगली उठाने।
मान लीजिए कि तालिबान और मुल्ला-मौलवी किसी तरह यह सिद्ध कर देते हैं कि वे जो कर रहे हैं वही कुरान और शरियत में लिखा है और वही सही है तो ? तो क्या शीबा मुस्लिम स्त्रियों की मुक्ति के लिए अपने प्रयासों को छोड़ कर बुरक़ा पहन लेंगी और मैदान छोड़ देंगीं ? अगर छोड़ देंगी और सभी ऐसा करने लगेंगे तो क्या इस दुनिया में किसी गैलीलियो के लिए कभी जगह रह पाएगी ! जो चर्च आज उनसे माफ़ी मांग रहा है वही कल फ़िर उनकी छाती पर चढ़ दौड़ेगा। मेरी मूल आपत्ति हर बीमारी का इलाज धर्मग्रंथों में ढूंढने को लेकर है। फिर शीबा नया क्या कर रही हैं ? सभी एडजस्टमेंटवादी, कंफ्यूज़्ड और मीडिओकर भी तो यही करते हैं। कि नहीं ग्रंथों में तो सब कुछ अच्छा-अच्छा लिखा था पर कोई बीच में आकर गड़बड़ कर गया। मज़े की बात यह है कि हर धर्म के कट्टरपंथी भी बीच-बीच में यही तर्क देते हैं। कौन है भाई यह ‘गड़बड़िया’ जो आए दिन ग्रंथों में गड़बड़ करता है और आप पकड़ नहीं पाते। जबकि आधी से ज़्यादा दुनिया पहरेदारी में लगी है। और अगर आप पकड़ नहीं पाते तो गड़बड़ तो रुकने से रही। आप सिद्ध कैसे करेंगे कि मूल ग्रंथ कौन-सा था !? क्या इसका कोई प्रामाणिक तरीका भी है !?
अगर इस्लाम में इतना ही ख़ुलापन है तो शीबा को यह कॉलम एक हिंदी पत्रिका में क्यों लिखना पड़ रहा है ? क्या सारे उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में मुल्ला-मौलवी और तालिबान घुसे बैठे हैं ? और क्या राजेंद्र यादव को यह खुलापन इस्लाम से मिला है !? वे तो आज भी इसको पढ़ने को तैयार नहीं। अगर इस्लाम में सारी समस्याओं के हल है तो शीबा बताएं कि वहां क्लोनिंग के बारे में क्या लिखा है ? टेस्ट ट्यूब बेबी के बारे में क्या है ? सेरोगेट मदर के बारे में क्या है ? कंप्यूटर और इण्टरनेट के बारे में क्या है ? समलैंगिकता, ओरल, एनल, वोकल और लोकल सैक्स की बाबत क्या लिखा है ? जब शीबा यह बताएं तो ऐसे वाक्यांशों या अनुवादों के साथ बताएं जिनमें उक्त शब्द सीधे-सीधे आते हों। ज्योतिषियों वाली गोल-मोल भाषा नहीं चलेगी। वरना तो हिंदुत्व में भी सब कुछ निकल आएगा।
एक बार फ़िर (‘हसं’,जनवरी 2010) वे अपने कॉलम का उद्देश्य और रणनीति बताते हुए अंत में कहतीं हैं कि ‘‘इसलिए जिन्हें ‘महिला सबलीकरण’ का एकमात्र रास्ता धर्मविमुख होना लगता है, यह बहस उस वर्ग के लिए नहीं है क्योंकि महिला सबलीकरण मुहिम धर्मविहीनता की ‘युटोपिया’ का इंतज़ार नहीं कर सकती।‘‘
इस तरह बहस के संभावित सबसे बड़े विपक्ष को वे पहले ही बाहर कर देती हैं । फ़िर यह बहस किसके लिए है !? मीडिओकरों और मुल्ला-मौलवियों के लिए !? क्या ये लोग ‘हंस’ पढ़ते हैं ? वे यह बहस मदरसों और मोहल्लों में क्यों नहीं चलातीं !? अगर धर्म-विमुखता युटोपिया है तो धर्म-प्रमुखता भी अंततः हमें ‘बिन-बाल-बुश‘ की बनायी आत्मघाती, निरंकुश, कट्टर और पढ़े-लिखे अनपढ़ों की दुनिया से आगे कहां ला पायी ? वे इसे ‘बीच के लोगों की गड़बड़’ कहेंगी तो मैं भी कहूंगा कि रुस और चीन में भी ‘बीच के लोगों ने गड़बड़’ की थी। सही बात तो यह है कि सही मायने में नास्तिकता का परिचय और परीक्षा तो अभी हुए ही नहीं हैं। हमारे यहां के तो कम्युनिस्ट भी नास्तिकता और मानवता को शरमा-शरमाकर, घबरा-घबराकर अंडरगारमेंट्स की तरह बरतते आ रहे हैं।
नूर ज़हीर और कृष्ण बिहारी ने शीबा की वैचारिक अस्पष्टता की ओर इशारा किया है। ‘हंस’ नवंबर 2009 के अपने लेख ‘...खाने के और दिखाने के और!’ मे शीबा पाठकों के कथनों के सहारे अपनी रणनीति स्पष्ट करने की कोशिश करती हैं ‘इस्लाम को प्रच्छन्न रणनीति के तौर पर इस्तेमाल कर क्या ठीक निशाना साधा है.....’ वगैरह। मगर प्रगतिशीलों, सेक्युलरों और प्रखर नारीवादियों के लिए उनके मुंह से बात-बेबात, बरबस फूट पड़ने वाले ताने और कोसने, सोचने पर मजबूर करते हैं कि रणनीति इससे कहीं ठीक उलट तो नहीं !? यहां तक कि बिना किसी विशेष संदर्भ-प्रसंग के तसलीमा पर फ़ट पड़ती हैं। देखें ‘हंस’, जनवरी 2010 में ‘प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रिया’। उन्हें लगता है कि विरोधी उनसे इसलिए नाराज़ हैं कि वे तसलीमा या ‘हंस में छपने वाली लेखिकाओं’ की तरह यौन-क्रियाओं के सूक्ष्म डिटेल्स नहीं दे रहीं। तसलीमा का नाम आते ही वे इस कदर धैर्य छोड़ बैठती हैं कि भूल जाती हैं कि तसलीमा की प्रसिद्धि की शुरुआत इन ‘डिटेल्स’ से नहीं ‘लज्जा’ से हुई थी। कि ‘यौन-डिटेल्स’ वाली दो-चार आत्मकथात्मक क़िताबें आने से पहले ही तसलीमा ‘औरत के हक़ में’ और ‘उत्ताल हवा’ जैसी कई कृतियों के ज़रिए ख़ासी मशहूर हो चलीं थीं। कि तसलीमा की सोच बिलकुल साफ़ और भाषा एकदम सरल है। इस भाषा में विद्रोही विचारों को प्रकट करना बहुत हिम्मत का काम होता है। हश्र में निर्वासन और पत्थर मिलते हैं। हिंदी साहित्य के तोप-विद्रोही समझे जाने वाले राजेंद्र यादव की भाषा में भी यह सरलता नहीं है। कहां अपनी साफ़ सोच, बेबाक बातों और अपने हर व्यक्तिगत को सार्वजनिक-सामाजिक बना कर दुनिया भर में लड़ती हुई तसलीमा और कहां बात-बात में डरने वाले, दिन में दस बार अपनी बात बदलने वाले और ‘कुछ कहने-कुछ करने’ वाले हम ! तसलीमा के प्रति उनकी ऐसी नफ़रत का कारण सिर्फ़ इतना ही है ! या तसलीमा की ‘धर्म-विमुखता’ भी एक कारण है ? वैसे शीबा अगर स्पष्ट करें कि उनका एतराज़ तसलीमा की यौन-क्रियाओं पर है या उन्हें लिखे जाने पर है तो आगे इस संदर्भ में बहस सही रास्ते पर चल सके।

शीबा की रणनीति पर उनका अपना कन्फ्यूज़न देखना है तो ‘हंस‘, मई 2009 में छपा ‘सब धान बाईस पंसेरी’ पढ़ जाईए। जिसमें राजेद्र यादव द्वारा अपने एक संपादकीय में इस्लाम पर किए ‘हमले’ पर गुस्सा खा जाती हैं। अपनी समझ में यादवजी की ऐसी-तैसी करते हुए वे फ़िल्म ‘ख़ुदा के लिए’ के हवाले से कहती हैं ’‘पर जब मौलाना वली इस्लाम में संगीत, शिक्षा, निकाह में स्त्री की मर्ज़ी, हलाल कमाई, आधुनिक वेशभूषा व वस्त्र आदि को इस्लामी इतिहास, कुरान की व्याख्या व मोहम्मद साहब के जीवन से उदाहरण लेकर सिद्ध करते हैं तो मौलाना ताहिरी के ग़ुब्बारे की हवा निकल जाती है और उसका गुमराह किया नौजवान सरमद उसकी ही मस्ज़िद में जींस-टीशर्ट में अज़ान देकर उसे चुनौती भी दे पाता है।‘‘
चलिए, यह तो हुआ इस्लाम को रणनीति के तौर पर इस्तेमाल किए जाने का मामला। पर यहां शीबा यह भी याद रखें कि इस रणनीति के तहत सरमद ख़ुद कितना भी चाहे पर अज़ान को चुनौती फिर भी नहीं दे सकता। इसे दूसरे कोण से देखें तो नतीजा यह भी निकलता है कि जींस पहनी तो क्या हुआ, करना तो वही सब पड़ा ! एक अपने कबीरदास थे जो बिना जींस पहने ही ‘ता चढ़ मुल्ला बांग दे’ गाते फिरते थे। शीबा यह भी सोचें कि इन रणनीतियों का ज़्यादा फ़ायदा अंततः ‘बिन-बाल-बुश’ को ही तो नहीं हो रहा। अभी कितने हज़ार साल और हम इन रणनीतियों पर कुर्बान करेंगे !? आगे चलें। इसी लेख में वे फिर यादवजी पर कुनमुनाती हैं, ‘आपके संपादकीय का तीसरा विरोधाभास यह है कि आप तुर्की के इस्लाम या इंडोनेशिया के इस्लाम की तारीफ़ भी कर रहे हैं और पूरे विश्व के इस्लाम को एक भी मान रहे हैं। क्या आप यह नहीं देख पाते कि जो क्षेत्र इस्लाम पूर्व की कबीलाई व्यवस्था में जकड़े हैं वहीं पर स्त्रियों पर अत्याचार अधिक हैं।’
यहां फिर वे कुछ-कुछ कट्टरपंथिओं वाला सिरा पकड़ लेती हैं कि दोष इस्लाम में नहीं, इधर-उधर हैं। और अपरोक्ष तरीके से फिर वही बात कि मुक्ति इस्लाम के भीतर ही संभव है। अब हम इसे रणनीति मानें कि कट्टर आस्था !? आगे कहती हैं कि ‘राजेंद्र जी, काश धर्म के प्रति आपकी झुंझलाहट और गुस्सा, आपको और गहरे अध्ययन व विश्लेषण की ओर प्रेरित कर पाता।’ क्या धर्म को रणनीति की तरह इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति इसके प्रति गुस्सा और झुंझलाहट रखने वाले व्यक्ति को इसके अध्ययन के लिए कहेगा !? उसके भीतर तो ख़ुद यह झुंझलाहट होनी चाहिए। इस्लाम के प्रति यह श्रद्धा भाव इस पूरे लेख में आपको दिखाई देगा। लेकिन जहां उन्हें मुफ़ीद लगता है वे इसे रणनीति भी करार दे देतीं हैं। ऐसे विरोधाभास उनके कॉलम में कई जगह हैं। एक ही लेख में ज़्यादा लिखा तो संभव है वे मुझे भी कॉलम का दुश्मन और किसी कट्टर धार्मिक संगठन का आदमी बता दें। काहिल, जाहिल और झूठ का पुलिंदा बता दें।

-संजय ग्रोवर

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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