ग़ज़ल
लड़कियों को ख़ुदसे कमतर मानते हैं सबके सब
इसलिए ही उनके संग देते हैं नज़राना बड़ा
शर्म था वो शहर मैंने उसको थूका बार-बार
दाग़ था वो दौर मुझको बारहा जाना पड़ा
खो गया जो खो गया उसका तो कुछ शिकवा नहीं
है बहुत अफ़सोस उसपे मुझको जो पाना पड़ा
मैं चला था देखकर आए-गए लोगों की चाल
पर जहां अंजाम देखा लौटकर आना पड़ा
-संजय ग्रोवर
05-10-2020
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-10-2020) को "जीवन है बस पाना-खोना " (चर्चा अंक - 3847) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह।
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