ग़ज़ल
मज़दूर अपनी जान पे है खेल रहा तो!
धर्मात्मा भी ज्ञान अपना पेल रहा तो!
ज़ेवर के लिए ही जिन्होंने ज़िंदगी दे दी
ज़ेवर ही उनकी नाक में नकेल रहा तो!
कहने को अपनी ज़िंदगी आज़ाद रही है
जीवन रिवाज़ो-रस्म की इक जेल रहा तो!
बादाम मां ने, बाप ने भिगवा के रखे हैं
लौण्डा जो ठण्ड में है दण्ड पेल रहा तो!
सुनते हैं कान होते हैं सुनने के वास्ते,
दूजों को सुनना उनके लिए खेल रहा तो!
इस बार इनको देखा था अब उनको लाओगे?
पर इनकी-उनकी सांठ-गांठ, मेल रहा तो!
-संजय ग्रोवर
No east or west,mumbaikar or bihaari, hindu/muslim/sikh/christian /dalit/brahmin… for me.. what I believe in logic, rationality and humanity...own whatever the good, the logical, the rational and the human here and leave the rest.
बुधवार, 22 दिसंबर 2021
सुनते हैं कान होते हैं सुनने के वास्ते
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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........
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