ऐसे मौक़े पर किसी एक पक्ष के बारे में रचना लिख दो, अकसर मशहूर हो जाती है।
किसीने लिख दिया कि हम पेपर नहीं दिखाएंगे।
बिलकुल ठीक है, नागरिकता वगैरह के पेपर की मांग से ग़रीबों और दूसरे कई लोगों को बहुत मुश्क़िल होगी। वैसे भी, क्या गारंटी है जो यहां का निकलेगा वो अच्छा भी निकलेगा!
क्या अभी तक आपने नहीं देखा कि यहां लोग क्या बोलते हैं और क्या निकलते हैं ?
पेपर नहीं दिखाएंगे। बिलकुल ठीक है।
मेरे ग्रुप में किसी ने यह कविता लगा दी, अच्छी लगी। इसलिए कि भाषा बहुत आसान है। सब समझ में आता है।
हम पेपर नहीं दिखाएंगे।
लेकिन देखोगे तो सही! कि देखोगे भी नहीं?
क़ागज़ देखने के मामले में, लगता है भारत के लोग, लगता है, अभी पुराने ज़माने में ही रह रहे हैं।
बहुत-से लोग कहते हैं कि हम ईबुक नहीं लेंगे, हमें तो क़ागज़ की क़िताब ही चाहिए।
उनको सजाया जा सकता है। फिर लेखक चाहे फ़ोटो-कॉपी मशीन जैसा क्यों न हो, लोग पीछे सजी नुमाइश से प्रभावित होते हैं।
उनमें से ख़ुशबू आती है (हो सकता है कोई परफ्यूम वगैरह लगा रहता हो)।
और उनको रखने को कई अलमारियां और रैक वगैैरह चाहिए।
और बड़ी बात, उनको तकिये के नीचे दबाया जा सकता है। भारत में ‘तकिया-तले’ साहित्य का महत्व कौन नहीं जानता। यहां तो अभी तक संस्कृति भी वही चलाए रखना चाहते हैं कई लोग।
बाद में उन्हीं में से बदबू भी आती है।
क्योंकि उन्हीं में कीड़ा लग सकता है।
उनकी रद्दी बेची जा सकती है, ईबुक का क्या बेचोगे?
हांलाकि विचार उसमें बिलकुल वही होते हैं जो ईबुक में होते हैं।
पर इसको समझने के लिए भी तो कुछ विचार चाहिएं।
फिर भारत में इतनी स्वतंत्रता आ गई तो ‘भारतीय’ टाइप के विद्वानों और प्रकाशकों का क्या होगा ?
और कौन-से क़ागज़ नहीं देखोगे ?
क्या इंटरव्यू के समय भी क़ागज़ नहीं देखोगे-दिखाओगे?
क्या फ़िल्म देखने जाओगे तो भी क़ागज़ नहीं दिखाओगे?
क्या गाड़ी का लाइसेंस भी नहीं दिखाओगे ?
चूंकि मैं भारत का चरित्र कई साल से देख रहा हूं इसलिए थोड़ा शक़ होता है।
क्या पेपर मतलब एग्ज़ाम भी नहीं दोगे?
क्या असंवैधानिक अमीर कमरों के क़ागज़ भी नहीं दिखाओगे?
ऐसा मत करना। बड़ी अव्यवस्था फैल जाएगी।
फैली ही हुई है।
इधर एक ऐतिहासिक कविता हुई-कि ‘हम नहीं दिखाएंगे’।
उधर एक ऐतिहासिक नज़्म हो चुकी-‘हम देखेंगे’।
‘हम नहीं दिखाएंगे’
‘हम देखेंगे’
‘हम नहीं दिखाएंगे’
‘हम देखेंगे’
ऐसे भी गाओ, एक इतिहास और बनेगा।
-संजय ग्रोवर
किसीने लिख दिया कि हम पेपर नहीं दिखाएंगे।
बिलकुल ठीक है, नागरिकता वगैरह के पेपर की मांग से ग़रीबों और दूसरे कई लोगों को बहुत मुश्क़िल होगी। वैसे भी, क्या गारंटी है जो यहां का निकलेगा वो अच्छा भी निकलेगा!
क्या अभी तक आपने नहीं देखा कि यहां लोग क्या बोलते हैं और क्या निकलते हैं ?
पेपर नहीं दिखाएंगे। बिलकुल ठीक है।
मेरे ग्रुप में किसी ने यह कविता लगा दी, अच्छी लगी। इसलिए कि भाषा बहुत आसान है। सब समझ में आता है।
हम पेपर नहीं दिखाएंगे।
लेकिन देखोगे तो सही! कि देखोगे भी नहीं?
क़ागज़ देखने के मामले में, लगता है भारत के लोग, लगता है, अभी पुराने ज़माने में ही रह रहे हैं।
बहुत-से लोग कहते हैं कि हम ईबुक नहीं लेंगे, हमें तो क़ागज़ की क़िताब ही चाहिए।
उनको सजाया जा सकता है। फिर लेखक चाहे फ़ोटो-कॉपी मशीन जैसा क्यों न हो, लोग पीछे सजी नुमाइश से प्रभावित होते हैं।
उनमें से ख़ुशबू आती है (हो सकता है कोई परफ्यूम वगैरह लगा रहता हो)।
और उनको रखने को कई अलमारियां और रैक वगैैरह चाहिए।
और बड़ी बात, उनको तकिये के नीचे दबाया जा सकता है। भारत में ‘तकिया-तले’ साहित्य का महत्व कौन नहीं जानता। यहां तो अभी तक संस्कृति भी वही चलाए रखना चाहते हैं कई लोग।
बाद में उन्हीं में से बदबू भी आती है।
क्योंकि उन्हीं में कीड़ा लग सकता है।
उनकी रद्दी बेची जा सकती है, ईबुक का क्या बेचोगे?
हांलाकि विचार उसमें बिलकुल वही होते हैं जो ईबुक में होते हैं।
पर इसको समझने के लिए भी तो कुछ विचार चाहिएं।
फिर भारत में इतनी स्वतंत्रता आ गई तो ‘भारतीय’ टाइप के विद्वानों और प्रकाशकों का क्या होगा ?
और कौन-से क़ागज़ नहीं देखोगे ?
क्या इंटरव्यू के समय भी क़ागज़ नहीं देखोगे-दिखाओगे?
क्या फ़िल्म देखने जाओगे तो भी क़ागज़ नहीं दिखाओगे?
क्या गाड़ी का लाइसेंस भी नहीं दिखाओगे ?
चूंकि मैं भारत का चरित्र कई साल से देख रहा हूं इसलिए थोड़ा शक़ होता है।
क्या पेपर मतलब एग्ज़ाम भी नहीं दोगे?
क्या असंवैधानिक अमीर कमरों के क़ागज़ भी नहीं दिखाओगे?
ऐसा मत करना। बड़ी अव्यवस्था फैल जाएगी।
फैली ही हुई है।
इधर एक ऐतिहासिक कविता हुई-कि ‘हम नहीं दिखाएंगे’।
उधर एक ऐतिहासिक नज़्म हो चुकी-‘हम देखेंगे’।
‘हम नहीं दिखाएंगे’
‘हम देखेंगे’
‘हम नहीं दिखाएंगे’
‘हम देखेंगे’
ऐसे भी गाओ, एक इतिहास और बनेगा।
-संजय ग्रोवर
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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....