ग़ज़ल
मैं भी प्यार ‘जताऊं’ क्या
झूठों में मिल जाऊं क्या
15-03-2019
जिस दिन कोई नहीं होता
उस दिन घर पर आऊं क्या
जीवन बड़ा कठिन है रे
फिर जीकर दिखलाऊं क्या
इकला हूं मैं बचपन से
कहो भीड़ बन जाऊं क्या
जब खाता तब खाता हूं
तुमको कुछ मंगवाऊं क्या
जो-जो मैंने काम किए
तुमको भी दिखलाऊं क्या
यूंही जलती रहती है
बत्ती सुनो बुझाऊं क्या
मैं दुनिया से नहीं मिला
तो मैं जां से जाऊं क्या
कभी-कभी डर लगता है
सुनो अभी मर जाऊं क्या
14-04-2019
-संजय ग्रोवर
मैं भी प्यार ‘जताऊं’ क्या
झूठों में मिल जाऊं क्या
15-03-2019
जिस दिन कोई नहीं होता
उस दिन घर पर आऊं क्या
जीवन बड़ा कठिन है रे
फिर जीकर दिखलाऊं क्या
इकला हूं मैं बचपन से
कहो भीड़ बन जाऊं क्या
जब खाता तब खाता हूं
तुमको कुछ मंगवाऊं क्या
जो-जो मैंने काम किए
तुमको भी दिखलाऊं क्या
यूंही जलती रहती है
बत्ती सुनो बुझाऊं क्या
मैं दुनिया से नहीं मिला
तो मैं जां से जाऊं क्या
कभी-कभी डर लगता है
सुनो अभी मर जाऊं क्या
14-04-2019
-संजय ग्रोवर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-04-2019) को "तुरुप का पत्ता" (चर्चा अंक-3307) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-04-2019) को "तुरुप का पत्ता" (चर्चा अंक-3307) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'