शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

कुछ भगवान नास्तिकों के


जब ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ पर पहली बार लिखा कि बच्चा जन्म से नास्तिक ही होता है, आस्तिकता यानि ईश्वर और धर्म से संबंधित सारा ज्ञान उसपर ज़बरदस्ती थोपा जाता है तो नास्तिकों को यह बात ख़ूब जमी। लेकिन मज़ेदार बात यह है कि नास्तिकों ने भी बहुत सारे थोपे गए मूल्य स्वीकार कर रखे हैं। उन मूल्यों में शादी है, सफ़लता या मंज़िल है, नाम, अवार्ड, प्रतिष्ठा है, इतिहास में नाम है, कैरियर है.....
ये सारी चीज़ें भी हम पर बचपन से थोपी गईं हैं। बहुत कम लोग इन मूल्यों पर पुनर्विचार करते हैं। जैसे कि कुछ दस साल पहले तक भी भारतीय लड़कियों के लिए आखि़री मंज़िल विवाह होती थी। आज भी स्थिति कोई बहुत ज़्यादा नहीं बदल गई। कभी-कभार कोई लड़की कहती थी कि मैं शादी नहीं करुंगी। मगर साथ देनेवाला कोई नज़र नहीं आता था, ख़ुद मांएं-बहिनें भी डरातीं थीं। सच तो यह है कि जिस समाज में कुंवारें मर्दों के लिए भी जीना सूली पे लटकने जैसा हो, उसमें स्त्री की हिम्मत भी कैसे हो सकती थी कि वह अकेले रहने की सोचे। और सोचने की बहुत ज़्यादा जगह इस समाज में थी ही कहां। कोई मर्द भी सोचने लगे तो स्त्रियां ही परेशान कर देतीं थीं कि आप दूसरों की तरह क्यों नहीं हैं, ऐसा क्यों नहीं करते जैसा सब करते हैं, वहां क्यों नहीं जाते जहां सब जाते हैं, वगैरह........।

स्त्री पढ़ती भी थी तो इसलिए कि शादी अच्छी जगह हो सके। बी.ए, एम.ए. कर लेगी तो लड़का अच्छा मिल जाएगा, जल्दी मिल जाएगा......। वह रात-दिन अपने घरवालों के साथ, शादी की चिंता में घुलती थी। मैं सोचता हूं तो भयानक हैरानी होती है कि बचपन के थोपे हुए संस्कार आदमी को किस तरह जकड़ लेते हैं कि लड़कियां इंतज़ार करतीं थीं कि वह दिन कब आएगा जब वह उस घर को छोड़कर, जिसमें उन्होंने 20-30 साल बिताए, हमेशा के लिए छोड़कर किसी अनदेखे, अनजाने घर में चली जाएंगी। क्या कोई लड़का ऐसा सोच सकता है ? क्या यह कोई आसान काम है ?

मगर बचपन के दिए संस्कार ही आपके सपनों को भी रचते हैं। सपने क्या सभी लोगों के एक जैसे होते हैं? एक आदमी सपना देखता है कि सारी दुनिया उसकी सोच या उसके धर्म वगैरह के हिसाब से चले तो दूसरा आदमी सपना देखता है कि एक ऐसी दुनिया बने जिसमें सब तरह के लोगों के लिए जगह हो। लड़कियां और उनके घरवाले चाहते थे कि उनकी शादी अगर पढ़ाई के दौरान ही हो जाए तो कहना ही क्या। अगर यह न हो सके तो पढ़ाई पूरी होने के एक-दो साल में तो हो ही जानी चाहिए। वरना लोग जीना मुश्क़िल कर देंगे।


मुझे तो कई बार लगता है कि बचपन से यह सोच न थोपी गई होती और लोग परेशान न करते होते तो लड़कियों को ऐसी क्या आफ़त आ रही होती थी कि शादी को मरी जातीं !? शादी में ऐसा क्या ख़ज़ाना छुपा है !? जो ख़ज़ाना छुपा भी था वो आज सभी को मालूम है। भारतीय लड़के-लड़कियों को शादी के बिना विपरीत-लिंगी का प्रेम और यौन-सुख उपलब्ध नहीं था। वरना सास-ससुर की सेवा को कौन मरा जा रहा था!? अपने घर में ही मां-बाप और अन्य बुज़ुर्ग उपलब्ध थे, उनकी ही सेवा कब पूरी पड़ती थी। पुरुषों को भी इस सेवा में बराबरी से शामिल कर लिया जाता तो बची-ख़ुची गुंजाइश भी ख़त्म थी। आप मेरे मां-बाप की सेवा करो, मैं किसी और के मां-बाप की सेवा के लिए अपना घर हमेशा के लिए छोड़ दूं, इस तमाशे की ज़रुरत क्यों आ पड़ी !? कुवारे लड़के भी ज़्यादा उम्र में शादी न होने पर मां-बाप के घर में रहते ही थे। फ़िर भी लड़कियां ही क्यों काटती हुई लगतीं थीं !?

फ़िर समाज का दिया हुआ, बचपन का थोपा हुआ एक और मूल्य है-प्रतिष्ठा, ख़ानदान की इज़्ज़त। प्रतिष्ठा क्या होती है ? क्या इसे नापने का कोई एक पैमाना संभव है!? लेकिन लोग इसके लिए लड़ते-मरते हैं, एक-दूसरे की टांग भी खींच लेते हैं, धोखा करते हैं, झूठ बोलते हैं, पाखंड करते हैं, पैसा ख़र्च कर-करके या ‘इस हाथ दे उस हाथ ले’ के आधार पर अपनी तारीफ़ लिखवाते-कराते हैं। और फ़िर इन्हीं ऊटपटांग चीज़ों के जोड़ से जो कचरा पैदा होता है उसे कहते हैं प्रतिष्ठा। जैसे आप तरह-तरह के ज़हर जमा कर लें फ़िर उन्हें हिला-मिला लें, फ़िर कहें कि लो अमृत तैयार हो गया, आंखें बंद करके इसे पी जाओ। सचमुच के अमृत का ही नहीं पता कि उससे कुछ होता था या नहीं होता था मगर यह एक और अमृत हमने पैदा कर लिया।

लड़कियां डरतीं थीं कि जल्दी शादी न हुई तो औरों की तो छोड़ो, अपनी क़रीबी सहेलियों में ही इमेज गिर न जाए। क्योंकि अपनी खोपड़ी तो यहां कोई इस्तेमाल करता नहीं। जिसकी शादी हो जाती, और किसी आई.ए.एस., पी.सी.एस., इंजीनियर, डॉक्टर, सी.ए., उद्योगपति-वति से हो जाती, उससे कोई पूछने की ज़रुरत भी न समझता कि तेरे क्या हाल-चाल हैं, पति कैसा व्यवहार करता है, काम कितना करना पड़ता है वगैरह.......। उसकी ज़रुरत भी क्या है? क्योंकि प्रतिष्ठा की जो शर्त्तें हैं, वो तो पूरी हो चुकीं। व्यक्तिगत का अपने यहां कोई कॉलम है नहीं। हम ठहरे सामाजिक लोग। तो लो जी, भारतीय स्त्री को तो यहां मिल गई अपनी ‘मंज़िल‘। अब वो ऐसी-तैसी कराए, भाड़ में जाए। हमें जो सिखाया-पढ़ाया गया था, उसके हिसाब से हमने तो अपनी ज़िम्मेदारी कर दी पूरी।

फ़िर एक और मूल्य आदमी ने पैदा किया-सफ़लता। ये प्रतिष्ठा की भी माताजी ठहरीं। ये, ख़ानदानी इज़्ज़त जैसे कई बच्चों के पिताजी ठहरे।
(जारी)
-संजय ग्रोवर
04-10-2013

1 टिप्पणी:

कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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