शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

हैंइ

देवियो और सज्जनो, मैं भगवान बच्चन इस ब्लॉग पर भी आपका स्वागत करता हूं। आप तो जानते ही हैं मैं अत्यंत सभ्य और भद्र एक्टर हूं। इंसान भी हूं।
‘कौन बनेगा ख्रोरपाती’ भी मैं ऐसे पेश करता था जैसे क्लास ले रहा होंऊ । हांलांकि मैं सबको सर-सर कहता था पर प्रतिभागी और दर्शक बच्चों की तरह डरे-डरे अनुशासित पड़े बैठे रहते थे।
अभिनय वह है जिसमें भगवान बच्चन, भगवान बच्चन लगे और फ़िलिप कुमार, फ़िलिप कुमार। मुझे बहुत अजीब लगता है जब पंकज काफ़ूर ‘मीन का पेड़’ में बुधैया लगने लगते हैं और ‘करमूचंद’ में करमूचंद। मोम पुरी मोम की तरह पिघल कर रोल में घुस जाते हैं। अरे, वो क्या एक्टर हुआ जिसका कोई स्टाइल ही न हो ! ऐक्टिंग तो सभी कर लेते हैं। पर मेरी ख़ासियत यह है कि आप मुझे कुली का रोल दे दो चाहे बहादुर शाह जफ़र का, मैं हर रोल में भगवान बच्चन ही लगता हूं। मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब बनाओ चाहे बाबा लंगड़दीन। मैंने एक कंधा टेढ़ा रखना है तो रखना है। अरे, वो  ऐक्टर ही क्या जो चरित्र निभाने के चक्कर में अपना वजूद खो दे ! स्टाइल छोड़ दे ! फ़िल्म और विज्ञापन निर्माता पैसे मुझे स्टाइल के देते हैं या  ऐक्टिंग के ! चलिए आप ही बताईए आप मुझे स्टाइल की वजह से पसंद करते हैं या  ऐक्टिंग की ! ज़्यादा मत सोचना ! गड़बड़ होगी और पचनौला खाना पड़ेगा। हैंइ। (बताईए स्टाइल है या  ऐक्टिंग)
हीरोइनें मेरी फ़िल्मों में गेंद या बिगड़ी घोड़ी की तरह आती-जातीं हैं। मैं या तो उन्हें बल्ले की तरह बाउंड्री के पार पहुंचाता रहा हूं या ट्रेनर की तरह सुधारता-सिखाता रहा हूं। हांलांकि एंग्री-युवा-छवि-मैन रहा और पीट-पीठकर लोगों को और सिस्टम को सुधारता रहा हूं मगर फ़िर भी हिरोइन को हाथ कम ही लगाया। लगाया भी तो उसी की भलाई के लिए। तालियां। अपने लिए मैंने कभी कुछ नहीं किया। वैसे भी हमारे यहां सभी सब कुछ समाज के लिए करते हैं। इत्ती मात्रा में सामाजिक प्राणी होने पर भी हमारे समाज की हालत खस्ता ही रहती है। न जाने क्यूं !? इस पर भी तालियां।
बुरा हो संजय पीला धंसवाली और पाजी पापाजी जैसों का कि बुढ़ापे मे एक्टिंग-वेक्टिंग के लफ़ड़े में फंसा दिया। अच्छा-खासा बूम में झूम रहा था। भले चीनी को थोड़ा कम चूम रहा था। पर नि:शब्द ही सही, शोर के आस-पास तो घूम रहा था। कुछ फ़िल्में स्त्री-स्वातंत्रय की समर्थक होते हुए भी पुरुषों का ही स्कोप बनाती हैं। और बुड्ढे की जान लोगे क्या !?
इधर गरम पाजी से लेकर काफ़ूर खानदान तक की लड़कियां परंपराएं तोड़-फ़ोड़ कर  ऐक्टिंग में हाथ-पैर आज़मा रहीं हैं। मगर सभ्यता-संस्कृति पर मेरी देसी पकड़ देखिए कि मेरी पत्नी-बेटी-बहू में से भी कुछ फ़िल्मों में हुआ करती थीं। अब वे हैं भी और नहीं भी हैं। आए भी वो गए भी वो। राजेंद्र वैधव की पत्नी एकदम सामाजिक मुद्दा है मगर मेरी एकदम व्यक्तिगत। इत्ते दर्शक ऐसे ही थोड़े मुझपर मरते है। जानता हूं कि हमारे लोग हाथी-दांत प्रगतिशीलता ही पसंद करते हैं।
परंपराएं मैंने भी कुछ कम नहीं तोड़ी। मनोरंजन और पापुलैरिटी के लिए ‘आ वारिस’ में हिजड़े के रोल में भी नाचा हूं। हां, अगर हिजड़ों की समस्या पर फ़िल्म बनानी हो तो उसके लिए दूजा भट्ट वगैरह हैं ना।
तो देवियो और सज्जनो, मैं हूं भगवान बच्चन। मुझपर कंकर भी फेंकना हो तो मेरी तरह सभ्य भाषा में लपेटकर फेंको। नही तो मेरे भक्तगण आपको कच्चा चबा जाएंगे।
हैंइ।

-संजय ग्रोवर


27 टिप्‍पणियां:

  1. कहीं एकतरफा विश्लेषण और मानसिकता से प्रेरित नहीं लगता?

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  2. संजय जी ! आप तो बस कमल ही कर देते है ! इतने खुराफाती विचार अपने खोपड़ी के प्याले में सम्भालते कैसे हैं ! करोडो करोड़
    मिमियाते लोगों में एक सफलता
    अजूबा ही लगती है !व्यंग्य धर्मिता का निर्वाह है !

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  3. आपने जो लिखा है वह तथ्‍य है । जिसे बहुत ही मनोरंजक ढंग से पेश किया है । व्‍यंग तो खरा है ही । बल्कि कहना चाहिए कि धो डाला है ।

    हमें भी अमिताभ की फिल्‍में पसंद है । लेकिन भगवान बनाकर आलोचना के दायरे से बाहर रखना किसी के भी हित में नहीं है ।
    अमिताभ जिस मुकाम पर हैं वहॉं से समाज के प्रति जिम्‍मेदारियॉं काफी बढ जाती हैं ।

    लेकिन मुझे लगता है कि अमिताभ बच्‍चन से लोग कुछ ज्‍यादा ही उम्‍मीद कर रहे हैं , पता नहीं क्‍यों ? शायद पर्दे पर उनके निभाए चरित्रों की वजह से । भावुकता ।
    अब मान भी लीजिए कि अमिताभ बच्‍चन के लिए उनके व्‍यावसायिक हित ही सर्वोपरि हैं । एक कुशल अभिनेता और कुशल व्‍यवसायी । और कुछ नहीं ।

    जनता जब चमत्‍कारों और महानायकों पर यकीन करती है तो
    तुमको क्‍या प्राब्‍लम है , हैंइ ?

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  4. wah wah bahut khoob bahut acha likha hai aapne :)

    http://liberalflorence.blogspot.com/
    http://sparkledaroma.blogspot.com/

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  5. इनके बारे में मेरे पिताजी के भी यही विचार थे. पर आपने धो डाला. अच्छा व्यंग्य किया है.

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  6. "हम जैसे भी है हमको तुम यूँ साला साइड लाईन कर सकते हैयं, हम अच्छे हैं बुरे लेकिन हैं और ये बात ही असली है, लोग हमारी फिल्म देखते हैं हमारे में लिखते हैं पढ़ते हैं ये क्या कम है? हैयं...अब साला हर कोई परफेक्ट नहीं हो सकता है...इंसान हैं तो इंसान वाली कमियां भी होनी ही चाहियें....सब में होती हैं फिर भाई ये आपकी ऊँगली हमारी तरफ की क्यूँ...हैयं.?"
    खूब लिखा है भाई.
    नीरज

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  7. हैयीं ! अपुन का बात नीरज भाई पहिलाच बोल गयेला है.लेकिन बिडू अपुन ये चौबीस घंटा /३६५ दिन वाला एक्टर से तो अच्छा है न . देश का वाट नहींलगाता .बस मॉल और नाम कमाता है और उसका शर्म भी नहीं है . बोलेगा तो पैसा देने पर तुमरे ब्लॉग का अड भी कर देगा क्या !
    लेकिन तुस्सी यार ग्रेट हो. मेरा चड्ढी तक नहीं छोड़ा :) .

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  8. @ऊषा राय

    जैसे आप अपने शरारती कमेंट्स् संभाले रखती हैं:)

    @अर्कजेश और नीरज गोस्वामी & RAJ SINH

    मैं भी ‘हैंइ’:)

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  9. Bahot Khoob !!! Maza a gaya... B'Bhagwan ki maya ka aar-paar naap dala... badhai..jari rahiye...!

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  10. " accha vyang "

    ----- eksacchai { AAWAZ }

    http://eksacchai.blogspot.com

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  11. नायक और महानायक तो आजकल मिडिया बनाती है...वह जिसे चाहे महा या हीन बना सकती है....
    एक अभिनेता को सदी का महानायक ठहरा देना,इस तरह ग्लेमेराइज कर देना,सचमुच मानसिक दिवालियापन है...
    फ़िल्मी अभिनेताओं/अभिनेत्रोयों को हम आम दर्शक जितना जान समझ पाते हैं,उसके हिसाब से कहें तो अमिताभ बच्चन एक सभ्य शिष्ट पुरुष है और बहुत अच्छा अभिनय करते हैं,पर उन्हें भगवान् या सदी का महानायक घोषित करना किसी भी तरह जायज नहीं...पर किसी में हिम्मत भी नहीं की इसके खिलाफ आवाज उठाये...
    आपने आवाज़ उठाई,इसके लिए बहुत बहुत आभार..

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  12. तीखा व्यंग...किसी भी अभिनेता को नायक या भगवान हम जैसे लोग ही बनाते हैं ..

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  13. बहुत ही बढ़िया व्यंग्य....
    "बच्चन जी...आप पहले सही थे या अब गलत है?" के नाम से मैंने भी एक पोस्ट लिखी थी...अगर समय निकाल सकें तो ज़रूर गौर फरमाएँ
    http://hansteraho.blogspot.com/2009/12/blog-post_21.html

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  14. मेरे पास फेन है... फूल है... फालतू है.... फोकटिये है...फर्जी है....तुम्हारे पास क्या है???..हैंई...
    मेरे पास....मेरे पास ...मेरे पास...फूं फाँ ...है!!!!!!!!

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  15. सदैव की तरह मोहित हूँ इस व्यंग पर !
    बेहतरीन !

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  16. करार व्यंग्य ..... बहुत अच्छा लगा ....

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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