मंगलवार, 19 जनवरी 2010

व्यंग्य-कक्ष में *****राष्ट्रप्रेम*****



कहते हैं कि प्रेम अंधा होता है, मगर हम आजकल के राष्ट्रप्रेमियों को देखें, तो लगता है कि राष्ट्रप्रेम कहीं ज्यादा अंधा होता है, और कथित राष्ट्रप्रेमियों को प्रेम करने वाले कितने अंधे हो सकते है, इसका अंदाजा तो कोई अंधा भी नहीं लगा सकता। अगर आपने देश की जेब, कूटनीतिज्ञों के कान और देशवासियों के गले काटने हों तो ‘राष्ट्रप्रेम‘ एक अनिवार्य शर्त है। राष्ट्रप्रेम ऐसा चुंगीनाका है, जहां सत्ता की ओर सरकने वाली हर गाड़ी को मजबूरन चुंगी अता करनी पड़ती है। राष्ट्रप्रेम ऐसी दुकान है, जहां प्रेम की चाशनी चढ़ा कर ज़हर भी अच्छे दामों पर बेचा जाता है। राष्ट्रप्रेम एक ऐसी सात्विक जिल्द है, जिसके पीछे छुपकर नंगी कहानियां भी ससम्मान पढ़ी जा सकती है। राष्ट्रप्रेम ऐसी चाबी है, जिसकी मदद से शोहरत और दौलत का कोई भी खज़ाना ‘सिमसिम‘ की तरह खोला जा सकता है। राष्ट्रप्रेम अभिनय की वह चरम अवस्था है जहां बी और सी ग्रेड के कलाकारों का कोई काम नहीं है। राष्ट्रप्रेम रूपी मुर्गी को जो धैर्यपूर्वक दाना चुगाता है, वह रोज़ाना एक स्वर्ण-अण्डा पा सकता है। जो अधीर होकर इसका पेट काटता है, उसके हाथ से अण्डे तो जाते ही हैं, मुर्गी भी मारी जाती है।

अपने-अपने ढंग से सभी लोग राष्ट्र को प्रेम करते हैं। जनता कुछ इस अंदाज़ में प्रेम करती है कि ‘जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां‘। अर्थात् जल में रह कर मगरमच्छ से वैर क्या करना। जब रहना ही यहीं है, तो बिगाड़ कर क्यों रहें? पटाकर क्यों न रखें। अर्थात् जिस अंदाज़ में वह पुलिस, डाकू, माफिया, आयकर अधिकारी और आसमानी सत्ता से प्रेम करती है, कुछ-कुछ उसी तरह का ‘ट्रीटमेन्ट‘ राष्ट्र को भी देती है। आज से कुछ पंद्रह-बीस साल पहले तक लोग ‘राष्ट्रप्रेम‘ में इतने भीगे रहते थे कि सिनेमाघरों में फिल्म खत्म होते ही राष्ट्रगान के सम्मान में उठ खड़े होते थे। कुछ डटे रहते तो बाकी हौले-हौले, खामोश कदमों से हाॅल से बाहर सरक लेते थे। इस तरह भीड़ छंट जाती और रास्ता साफ हो जाता। तब बाकी पंद्रह-बीस लोग भी बाहर आ जाते थे। बाहर आकर वे दो मिनट रूकते, अपनी सांसों को व्यवस्थित करते और गंतव्य की ओर चल देते, जहां एक कई गुना बड़ा राष्ट्र उनकी प्रतीक्षा कर रहा होता था। इस राष्ट्र में प्रेम की मात्रा इतनी अधिक होती थी कि लोग काली मिर्च की जगह पपीते के बीज और वनस्पति तेल की बजाय मोबिल आॅयल में तले समोसे श्रद्धापूर्वक गटक जाते थे। कहा भी है कि प्रेम से अगर कोई जहरीली शराब भी पिलाए, तो भी गनीमत होती है। यही क्या कम है कि आपके पैसे के बदले में उसने आपको कुछ दिया। न देता, तो आप क्या कर लेते?

बाज लोग मनोज कुमार की तरह फिल्में बनाकर भी राष्ट्रप्रेम को अभिव्यक्ति देते हैं। ‘पूरब और पश्चिम‘ में सायरा बानो, ‘रोटी, कपड़ा और मकान‘ में ज़ीनत अमान और ‘क्रांति‘ में हेमा मालिनी की मार्फत मनोज कुमार दर्शकों को संदेश देते हैं कि राष्ट्रप्रेम में अगर कपड़े उतार कर बरसात में भीगना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। राष्ट्रप्रेम में अगर हम थोड़ा-सा जुकाम भी नहीं अफोर्ड कर सकते, तो लानत है हम पर। देशप्रेम की उक्त पद्धति से प्रभावित दर्शकों की आँंखें भीग जाती है और मुंह से लार टपकने लगती है।

राष्ट्रप्रेम में डूब कर लोग क्या नहीं करते। नेता दंगे करवाते हैं। पब्लिक दुकानें लूटती है। खेलप्रेमी पिच खोद देते हैं। लड़कियां ‘प्लेब्वाॅय‘ टाइप पत्रिकाओं का सहारा बनती हैं। संगीतकार धुनें चुरा लेते हैं। विद्यार्थी बसंे जला देते हैं। पुलिस व सेना बलात्कार करती हैं। प्रोफेसर ट्यूशन पढ़ाते हैं। दूरदर्शन नंगे कार्यक्रम दिखाता है। मां-बाप बच्चों को ठोंक-पीटकर अच्छा नागरिक बनाते हंै। बच्चे मां-बाप को गालियां देकर क्रांति की नींव रखते हैं। साधु-सन्यासी तस्करी, ठगी और बलात्कार करते है। देशद्रोही गद्दारी करते हैं।

बेरोजगारी युवक-युवतियों से मेरी अपील है कि वे आलतू-फालतू चक्करों में न पड़ें। वे राष्ट्रप्रेम करें। इससे बढ़िया धंधा कोई नहीं। अब प्रश्न उठता है कि राष्ट्रप्रेम किस विधि से करें, ताकि यह दूसरों को भी राष्ट्रप्रेम लगे और आप इसका ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा सकें। बहुत आसान है। राष्ट्र की कमियों को भूलकर भी कमियां न कहें, बल्कि खूबियां कहें। अंधविश्वासों और कुप्रथाओं को सांस्कृतिक धरोहर बताएं। राष्ट्र के शरीर पर उगे फोड़े-फुंसियों को उपलब्धियां बताएं। आनुवंशिक और असाध्य रोगों को अतीत का गौरव कहें। अपनी सभ्यता और संस्कृति में भूलकर भी कमियां न निकालें। भले ही विदेशी वस्तुओं और तौर-तरीकों पर मन ही मन मरे जाते हों, पर सार्वजनिक रूप से इन्हें गालियां दें। बच्चों को पढ़ाएं तो अंग्रेजी स्कूलों में, मगर उन बच्चों के नाम संस्कृत में रखें। स्त्रियों का भरपूर शोषण करें, मगर उन्हें ‘देवी‘ कह-कह कर।

दलितों-शोषितों-पिछड़ों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार करें, मगर ऊपर-ऊपर मानवता के गीत गाएं। तबीयत से काले धंधे करें, मगर लोगों को दिखा-दिखाकर, सुना-सुना कर राष्ट्र, धर्म और भगवान के नाम पर दान करते रहें। रात में अगर दस नाबालिग लड़कियों के साथ सोएं, तो सुबह बीस विधवाओं की शादी करवा दें। आॅफिस भले ही आठ घंटे लेट जाएं, मगर मंदिर में मत्था टेकने सुबह चार बजे ही जा धमकें।

उक्त सभी उपाय आज़मा कर देखें। फिर देखता हूं कि कौन माई का लाल आपको राष्ट्रप्रेमी नहीं मानता। कोई क्यों नहीं मानेगा! सभी तो राष्ट्रप्रेमी हंै।

-संजय ग्रोवर

(नवंबर, 1997 को हंस में प्रकाशित)

25 टिप्‍पणियां:

  1. ग़जब !
    ऐब्सर्डिटी की इंतहा दिखा दी।
    लगता है जैसे नए युग के 'अन्धा युग' में कोई अश्वत्थामा स्वगत प्रस्तुति कर रहा हो।
    ..इसकी प्रशंसा के लिए शब्द कम पड़ रहे हैं। यूँ शब्दों के साथ भाव बहते बहते एकाकार हो जाँय और व्यंग्य, क्षोभ, प्रलाप अभिव्यक्ति की धार बन जाँय, ऐसा हमेशा तो नहीं होता।

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  2. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है. सच है की राष्ट्रभाव के गीत कूकने वाली कोयलें राजभवन के दरबार में पहुचने पर कोओं के सुर में सुर मिलाती हैं. बाज़ारों का युग है ,चाहे जो बेच लीजये बस पेकेजिंग सुंदर होनी चाहिए. हमारे आकाओं में से किसी के दिल में अगर दुष्यांतजी की यह पकतियाँ गूजनती तो शायद ........

    ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
    ये मुझको उकसाते हैं ।
    पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
    मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
    मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
    क़सम देती हैं ।
    कुछ हो अब, तय है –
    मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
    पत्थरों के सीने में
    प्रतिध्वनि जगाते हुए
    परिचित उन राहों में एक बार
    विजय-गीत गाते हुए जाना है –
    जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

    मेरी प्रगति या अगति का
    यह मापदण्ड बदलो तुम
    मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

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  3. गिरिजेश जी ने ना कहते भी इतना कहा ! मैं इतना भी नहीं कह सकता (कह पाता)!
    एक बात साफ कह सकता हूँ कि जीवन में कभी नहीं पढ़ा था व्यंग्य ! मतलब जी नहीं करता था पढ़ने का । ले देकर परसाई जी ! पर आपने इशारा कर दिया इस विधा के प्रति भी सजग रहने के लिये इन व्यंग्यों से ! आभार ।

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  4. आपकी राष्ट्र भक्ति को सलाम :)
    असली बात तो गिरिजेश जी ने कह ही दी है .

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  5. आपको और आपके परिवार को बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें!
    वाह बहुत बढ़िया लगा! बधाई!

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  6. व्यंग्य नहीं कष्ट और क्षोभ का प्रलाप है. अन्धो के बीच आँख खोलने का प्रयास है.

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  7. व्यंग्य पढ़ना मुझे भी बहुत नहीं भाता. जी तिलमिला उठता है, जैसे किसी ने आइना दिखा दिया हो. ऐसा ही लगा इसे पढ़कर. समाज को अच्छा आइना दिखाया है आपने.

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  8. बहुत तीखा और सटीक व्यंग्य है। पढ़ा 97 में हंस में भी था परन्तु यहाँ ज्यादा मारक लग रहा है।

    प्रमोद ताम्बट
    भोपाल
    www.vyangya.blog.co.in

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  9. बहुत तीखा व्यंग ....बिलकुल सटीक... समाज को आईना दिखता हुआ...

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  10. " bahut hi badhiya vyang ...aapki lekhnee ko salaam ."

    ---- eksacchai { aawaz }

    http://eksacchai.blogspot.com

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  11. तीखी बात कही है आपने ....... राष्ट्र प्रेम की चादर ऑड कर सभी अपना उल्लू सीधा करते हैं ....... लाजवाब व्यंग है संजय जी .........

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  12. बहुत सुंदर व्यंग्य!
    ग्रोवर जी इस आलेख के लिए आप की कलम चूमने को जी चाहता है।

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  13. राष्ट्रप्रेम ऐसा चुंगीनाका है, जहां सत्ता की ओर सरकने वाली हर गाड़ी को मजबूरन चुंगी अता करनी पड़ती है। राष्ट्रप्रेम ऐसी दुकान है, जहां प्रेम की चाशनी चढ़ा कर ज़हर भी अच्छे दामों पर बेचा जाता है।

    तीखी बात..........

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  14. सच्चाई को पेश करने का यह तीखा अंदाज़ वाकई में आपके देशप्रेम और आपके भीतर एक दर्द को प्रदर्शित कर कर रहा है....... जो समाज में फैली बुराइयों को देखकर हर सच्चे देशप्रेमी को होती है.....
    हम सभी आपके विचारों से सहमत है.....
    आपके निराले अंदाज़ के लिए आपको सलाम.....

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  15. दलितों-शोषितों-पिछड़ों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार करें, मगर ऊपर-ऊपर मानवता के गीत गाएं।

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  16. एक सार्थक व्यंग्य के लिए आप को बधाई.

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  17. dear grovarji,,,vish khakar bhi ab aadmi martaa nahi hai ,,,,kitni bhi kadvi baat kaho kisika man dukhtaa nahi hai ,,,,kaisi bhi do gaali padaasin aadmi hiltaa nahi hai ,,,fansii tak ki baat se bhrast aadmi darataa nahi hai ,,,kyaa isiliye bhgvan, tumharaa man ab hamaari praarthnaa se pasijtaa nahi hai ,,,,,kamna mumbai

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  18. BAHUT KHOOB LIKHA .KUCH BAKI HI NAHI CHODA KYA COMMENT KARUN.SACCHA TANZ HAI AUR HAKIKAT HAI.BHAI AP SAHIR HAIN.ISE TAREH SONE WALON KO JAGANE KI KOSHISH KARTE RAHO.APKI KALAM KO SALAM
    SHAFFKAT

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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