रविवार, 14 दिसंबर 2008

‘व्यंग्य-कक्ष’ में ‘‘ईश्वर किसे पुकारे’’

ईश्वर किसे पुकारे
फिलहाल मैं इस बहस में नहीं पड़ूँगा कि ईश्वर है या नहीं! क्योंकि ईश्वर के अस्तित्व को नकार दूँगा तो यह व्यंग्य कैसे लिखँूगा? नहीं लिखूँगा तो छपने को क्या भेजूंगा? नहीं भेजूंगा तो पारिश्रमिक कैसे पाऊँगा? नहीं पाऊँगा तो खाऊँगा क्या? तो फिलहाल मान ही लेता हूँ कि ईश्वर है। मित्र नास्तिकराम का तो दावा ही यह है कि ईश्वर का आविष्कार ही उसके नाम पर खाने-कमाने के लिए हुआ है। बहरहाल, अपनी-अपनी समझ है। मुझे क्या! मैं भी तो, स्वार्थवश ही सही, मान ही चुका हँू कि ईश्वर है!‘‘देखिए तो ज़रा, कैसे-कैसे अंधविश्वास आदमी ने जोड़े हैं धर्म और ईश्वर के साथ,’’ नास्तिकराम आहत स्वर में कहता है, ‘‘मगर आर्थिक पक्ष का वहाँ भी पूरा-पूरा ध्यान रखा है। जैसे शनिवार को यह नहीं लाना, मंगल को वह नहीं खाना, बुध को ऐसे नहीं करना, शुक्र को वैसे नहीं करना, सोम को यहाँ नहीं जाना, बृहस्पति को वहाँ से नहीं आना, फलां दिन शेव नहीं करनी, ढिकां दिन प्याज नहीं खाना वगैरहा-वगैरहा। मगर सप्ताह में एक भी दिन बल्कि महीने में एक भी दिन बल्कि साल में एक भी दिन ऐसा नहीं रखा जिसमें रिश्वत लेना निषिद्ध हो, बेईमानी करना मना हो, तिकड़मबाजी़ पर रोक हो, पाखण्ड पर टोक हो, छेड़खानी की मनाही हो, बलात्कार में बुराई हो। तो ऐसे में बेचारे ईश्वर की क्या औक़ात जो एकाध दिन अपने मन की कर ले।’’‘‘यार नास्तिकराम, तुम ईश्वर को नहीं मानते फिर भी तुम्हे उसकी इतनी चिन्ता है!?’’मेरा चैंकना स्वाभाविक था।‘‘ये ही कब मानते हैं,’’नास्तिकराम का आक्र्रोश और बढ़ गया, ‘‘मानने वाले क्या ऐसे होते हैं! क्या बना रखा है इन्होने अपने प्रिय ईश्वर का हाल! बेचारा दिन-रात मंदिर के कोने में पड़ा रहता है। जिसके मन में आता है उसके मुँह में एकाध पेड़ा, चैथाई बरफी, केले का टुकड़ा, पानी मिला दूध ठँूस जाता है। बिना उससे पूछे कि भगवन् आपको भूख भी है या नहीं! सारा दिन एक जगह पड़े-पड़े मीठा खाते रहना, फिर चलना-फिरना तो दूर, हिलने-डुलने तक की मोहलत नहीं! कैसे पचाता होगा ईश्वर इतना मीठा, वो भी बिना हिले-डुले! कोई भक्त यह सोचने का कष्ट नहीं करता कि बिना हिले एक ही जगह बैठे-बैठे खाते-पीते रहने से हमारे प्रिय ईश्वर का पेट खराब हो गया तो! बदहज़मी हो गयी तो! कैसे स्वार्थी भक्त हैं! अपने काम से काम! जब कोई मनोकामना पूरी हुई, चढ़ा दिया सौ-पचास का प्रसाद! मानों ईश्वर न हुआ बिजली-दतर का बाबू हो गया कि जनाब आपने तो हमारा बीस साल से पैंंिडग पचास हजार का बिल पाँच हज़ार में ही निपटवा दिया! इसलिए बचत के पैंतालीस में से यह तुच्छ भेंट आपके लिए।’’ नास्तिकराम बुदबुदाया, ‘‘जैसेकि नहीं दी तो ईश्वर नरक रुपी जेल में ठँूस कर थर्ड डिग्री मार्का यातनाएं देगा, क्या ये तथाकथित भक्त ईश्वर को एक भ्रष्ट पुलिस वाले जैसा समझते हैं कि भैय्या जी-भर कर पाप करो, दिन-भर, बस सुबह-शाम भगवान रुपी कोतवाल को नियम से सिर नवाते रहो, चढ़ावा चढ़ाते रहो तो सात खून माफ। कोई डर नहीं। फिर कैसी चिन्ता।’’मैं सहम गया था। बोला, ‘‘वो सब तो ठीक है नास्तिकराम, मगर तुम्हारी ऐसी बातों से भक्तों की भावनाओं को ठेस भी पहँुच सकती है!’’‘‘क्यों! भावनाएं क्या सिर्फ आस्तिकों की होती हैं! हमारी नहीं!? हम संख्या में कम हैं इसलिए!? दिन-रात जागरण-कीर्तन के लाउड-स्पीकर क्या हमसे पूछकर हमारे कानों पर फोड़े जाते हैं? पार्कों और सड़कों पर कथित धार्मिक मजमे क्या हमसे पूछ कर लगाए जाते हैं? आए दिन कथित धार्मिक प्रवचनों, सीरियलों, फिल्मों और गानों में हमें गालियां दी जाती हैं जिनके पीछे कोई ठोस तर्क, तथ्य या आधार नहीं होता। हमनें तो कभी नहीं किए धरने, तोड़-फोड़, हत्याएं या प्रदर्शन!! हमारी भावनाएं नहीं हैं क्या? हमें ठेस नहीं पहुँचती क्या? पर शायद हम बौद्धिक और मानसिक रुप से उनसे कहीं ज्यादा परिपक्व हैं इसीलिए प्रतिक्रिया में बेहूदी हरकतें नहीं करते।’’मैं सिर झुकाए सुनता रहा।नास्तिकराम बोलता रहा, ‘‘कभी-कभी ईश्वर भी सोचता होगा कि मुझसे अच्छे तो चपरासी और होमगार्ड हैं जिन्हें रिश्वत में कम-अज़-कम सौ-दो-सौ रुपए तो मिलते हैं। मुझे तो भक्तगण मुट्ठी-भर-प्रसाद में टरका जाते हैं।उसमें से भी बूंद-भर ही हिस्से में आ पाता है बाक़ी फिर से बाज़ार में बिकने पहुँच जाता है। मेरे ही बनाए संसार में मेरे ही बनाए आदमी द्वारा कैसी दुर्दशा की जा रही है मेरी! आदमी होता तो मदद के लिए ईश्वर को पुकारता। ईश्वर हूँ तो किसे पुकारुँ? इस चालाक आदमी को पुकारा तो ज़रुर आसमान से गिरा कर खजूर में अटका देगा!’’बड़े बेमन से नास्तिकराम प्रवचन के अंत तक पहुँचा, ‘‘तो जिस दुनिया में भगवान की क़ीमत और हालत ऐसी हो जाए उसमें भगवान का होना-न-होना बराबर हुआ कि नहीं?!’’बहरहाल, नास्तिकराम कुछ भी कहे मैं तो चाहता हूँ कि भगवान का नाम इस दुनिया में हमेशा चलता रहे ताकि लोग उसके साथ व्यंग्यपूर्ण हरकतें करते रहें और मैं उन हरकतों पर व्यंग्य लिख कर नाम और (कभी-कभार) पैसा कमाता रहूँ।
-संजय ग्रोवर
व्यंग्य-संग्रह ‘‘मरा हुआ लेखक सवा लाख का’’ से साभार

4 टिप्‍पणियां:

  1. bahot hi badhiya byanga kasa hai aapne bahot khub.. aapko dhero badhai sahab....

    arsh

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  2. Arsh,Manish Kumar aur Mehek shuru se hi mera hausla badhate rahe haiN.MaiN inke sahyog ko salaam karta huN.Lage hath ek sh'er bhi pel deta huN :-
    ye mere khwab ki dunia nahiN sahi lekin/
    ab aa gaya huN to do din quayaam karta chaluN//
    (shayar ka naam yaad nahiN par gaya ise Jagjit Singh ne hai)

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  3. आप तो यहाँ क्या क्या गुल खिला रहे हैं . और हमें पता ही नहीं . छि: छि: हम भी ना कितने ...होशियार हैं .
    आप पर नज़र रखनी पडेगी आगे से क्या पता क्या काण्ड हो जाय आपके हाथों . काले चश्मे वालों का कोई भरोसा थोडे ही है :)

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  4. बहुत सुंदर शब्द प्रवाह अंत तक पाठक को बंधने के लिए विवश कर देने वाला
    बधाई

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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