इस देश में योग्यता, प्रतिभा, वीरता और मौलिकता की ठीक से कद्र कभी भी नहीं हुई। ख़ामख्वाह सारी तवज्जो नेताओं को दे दी जाती है। हैरानी है कि भ्रष्टाचार के गुणगान के मामले में भी यही हो रहा है और कोई बोलनेवाला नहीं है। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया जिसे शायद चौथा खंबा कहते हैं, वह भी सिर्फ़ नेताओं के भ्रष्टाचार की आरती उतारने में लगा है। यूं तो ठीक भी है, खंबा नाम कुछ सोचकर ही दिया गया होगा। सारी दुनिया इधर से उधर हो जाए, खंबा कहां अपनी जगह से हिलता है ! ज़्यादा हुआ तो टूटकर अपने ही पैरों में घुस जाता है। यह जानते हुए भी कि खंबे हिलने के लिए नहीं होते, हम उन्हें हिलाने में लगे रहते हैं। और इन दिनों तो पक्षपात की हद हो रही है। जनता के टेलेंट पर पर्दा डाला जा रहा है। मैं पूछता हूं कि क्या भ्रष्टाचार की सारी योग्यता 100-50 नेताओं तक जाकर ख़त्म हो गयी है ?
अरे, कभी हमारे बीच आओं, एक-एक घर को देखो आकर, एक-एक नागरिक से मिलो, असलियत देखो, दिखाओ! ख़ामख्वाह नेता को सिर पर चढ़ा रखा है। क्षोभ होता है। जनता के यहां चप्पे-चप्पे पर वीरता की निशानियां भरी पड़ीं हैं। मौलिकता ठाठें मार रही है। क्या किसी राणा प्रताप की इतनी हिम्मत थी कि नक्शा कुछ हो और घर कुछ और बना दे !? घास की रोटियां खाने से कहीं संस्कृतियां बनतीं हैं? और उन गांधी जी को देखो! चल दिए आज़ादी की लड़ाई लड़ने ! भाई साहब! नीचे से ऊपर तक पूरा नेटवर्क बिठाना पड़ता है माफ़िया का, एक-एक विभाग में सैटिंग रखनी पड़ती है, पड़ोसियों को डराना-धमकाना और ‘समझाना’ पड़ता है तब जाकर एक नाजायज़ टॉयलेट या छोटा-सा कमरा बन पाता है। मज़ाक समझ रक्खा है क्या !? पड़ोसी ढीठ हो, असामाजिक हो, अधार्मिक हो, पिटकर भी न मानता हो तो मुश्क़िल हो जाती है। रात-रात भर जागकर काम करना पड़ता है।
अरे तुम आओ तो सही। मैं तो कहता हूं विदेशी पर्यटको को भी यहीं भेजो। कहां बेचारों को आगरा के ताजमहल और हैदराबाद के मीनारों पर भटका रहे हो? हमारी असली संस्कृति तो यहां घर-घर में बिखरी पड़ी है। ये बढ़ी हुई बालकनियां, ये छज्जे, ये गटर के ऊपर बनाए कमरे हमारी सांस्कृतिक धरोहर नहीं हैं तो क्या हैं ? ये जो अपने चरित्र के परमानेंट ठोस सबूत हमने अपने हाथों से बनाए हैं, इनका क्या कोई मतलब नहीं है? विदेशियों को ठीक से पता तो चले कि राष्ट्रवाद की, धार्मिकता की, सामाजिकता की, इंसानियत की हमारी असली अवधारणाएं आखि़र हैं क्या ? हमारा घर-घर, दुकान-दुकान टूरिस्ट प्लेस है। इनपर टिकट लगाकर कमाई भी हो सकती है। आधा पैसा सरकार ले आधा घरवालों को दिया जाए। वो इसलिए कि मैंने अकसर देखा है कि इन सजे-संवरे-पत्थरथुपे फ्लैटों में अकसर ग़रीब लोग रहते हैं। इन बेचारों की कभी पूर्ति नहीं होती। छज्जा निकल जाए तो इन्हें बालकनी चाहिए, बालकनी बन गयी तो इन्हें लगता है यार, यहां तो कमरा होना चाहिए था। कमरा हो जाए तो याद आता है कि शर्माजी ने तो अपने में 3 आगे और 2 पीछे बना रखे हैं, उनसे आयडिया लेकर आता हूं। कल बच्चे की शादी भी होनी है, जगह कम न हो जाए। बच्चे इनके हैं, भुगतेगा पड़ोसी। टूरिस्टों को दिखाना चाहिए कि देखो ऐसा होता है ज़िम्मेदार और सामाजिक आदमी। कुछ सीखो इन जगदगुरुओं से। ईडियटस्!
देखो इनका कॉन्फ़िडेंस लेवल! क्या बच्चा, क्या बूढ़ा, क्या डॉक्टर, क्या वक़ील, क्या स्त्री, क्या पुरुष ! एक से एक हैं। इन्हें कहीं बिठा दो, कहीं भेज दो, हर जगह भ्रष्टाचार करके दिखा देंगे। मंदिर में रखवा दो, दुकान पे बिठा दो, ऑफ़िस में लिटा दो, प्राइवेट सेक्टर में भेज दो, सरकारी में ऐडजस्ट करा दो....कहीं से भी बिना भ्रष्टाचार किए लौट आएं तो आप मेरा नाम बदलकर ईमानदार रख देना। लानत भेजना मुझ पर अगर पता चले कि कि कोई विदेश में जाकर अपनी ‘संस्कृति के चिन्ह’ छोडे़ बिना लौट आया। फ़िर क्यों मीडिया नेताओं की मेरिट को बढ़ा-चढ़ाकर दिखा रहा है ? क्या उन्होंने मीडिया को कुछ डोनेशन वगैरह दे दिया है ? अरे हमें बताओ तो सही, हम और बढ़िया इंतज़ाम करके देंगे। टीवी पर दिखने के लिए हम मुंह पोतकर उछलने को भी तैयार रहते हैं तो फिर क्यों हमारी योग्यता को दबाया जा रहा है ?
मुझे लगता है कि सरकार और मीडिया इस मामले में कुछ नहीं करनेवाले। क्या सरकार को इस बात का अंदाज़ा नहीं कि पड़ोसी के मीटर में तार डालना और हर बार इस तरह मीटर बदल-बदलकर डालना कि पड़ोसी को सिर्फ़ इतना ही लगे कि ‘हां, यार कभी-कभी आ जाते हैं सौ-दो सौ रु. ज़्यादा, कोई बत्ती जलती छूट गयी होगी किसी दिन’ कुछ कम बड़ा हुनर है !?
मीडिया अगर साथ दे तो बहुत कुछ हो सकता है। रियल रिएलिटी शो बनाए जा सकते हैं जैसे-‘भ्रष्टाचार का आंचल’, बेईमानी की छांव में’, ‘ईमानदारी का नरक’, ‘खा-पी टीवी पर पहलीबार: असली जनता का असली भ्रष्टाचार’, ‘असली भ्रष्टाचारी कौन ?’, इनमें टीमें बनायी जा सकती हैं। टीमों को काम दिए जा सकते हैं कि जो सबसे पहले नाजायज़ कमरा बना कर दिखाएगा, विजेता होगा। डांसिंग-फ्लोरस् बनाकर उनके नाम रखे जा सकते हैं-'क़ानून की छाती',' इंसानियत का मलबा' आदि। सरप्राइज़ तत्व डाले जा सकते हैं जैसे कि ईमानदार या मजबूर पड़ोसी बेईमान कमरा निर्माताओं को ख़ुद आमंत्रित कर रहा है कि आईए सर, हे वीर पुरुष, हे महासामाजिक प्राणी, हे धर्म-धुरंधर, आओ, पचास-पचास के गुट बनाकर मुझे पीटो। मैं आपसे पिटकर पवित्र होना चाहता हूं। आप नहीं आएंगे तो मैं आपको निमंत्रण-पत्र भेजकर बुलाऊंगा। आखिर देश की असली सभ्यता-संस्कृति-परंपरा को टूटने से बचाने का सवाल है। देखो, कितने विदेशी दर्शक तुम्हारी योग्यता, वीरता और प्रतिभा का प्रदर्शन देखने दूर-दूर से आए हैं। देखने लायक दृश्य होगा कि ‘क़ानून की छाती’ पर चढ़कर पचास-पचास लोग एक आदमी को पीट रहे हैं, ‘इंसानियत के मलबे’ पर अपने-अपने षड्यंत्रों के साथ नाच रहे हैं। ‘सलाम ज़िंदगी’, ‘हलो ज़िंदगी’, ‘जीना इसीका नाम है’ जैसे कार्यक्रमों से प्रेरणा लेकर कुछ और दृश्य जोड़े जा सकते हैं। जैसे पीछे परदे पर पीटनेवाले जन-भ्रष्टाचारियों के संबंधियों-दोस्तों के साक्षात्कार चल रहे हों। लीजिए, एक बहिन कह रही है,‘भैया तो शुरु से ही बड़े स्मार्ट थे। बिना टिकट ही गाड़ी में भी घूम आते थे और फ़िल्म भी देख आते थे। और बचे पैसों के समोसे लाकर आधे मुझे खिला देते थे। हमारा नेचर बिलकुल एक जैसा है, इसलिए शुरु से ही बहुत पटती थी।’ और यह सुनकर इकले को पीटते-पीटते भैया की आंखें भर आतीं हैं। पीटना रोककर वह इकले की कमीज़ फ़ाड़ते हैं और अपने आंसू पोंछने लगते हैं। उधर परदे पर अंग्रेजी में सबटायटल्स भी चल रहे हैं ताकि विदेशी दर्शक हमारी सभ्यता-संस्कृति को क़रीब से अर्थात् ज़मीनी यानि ग्रासरुट लेवल पर समझ सकें और भ्रष्टाचार के संदर्भ में भारतीय राजनेताओं से उनका मोहभंग हो सके। बड़े भ्रष्टाचारी बने फ़िरते हैं ससुरे। क्या औक़ात है इनकी भारत की जनता के सामने !?
अव्वल तो कोई पूछता नहीं मगर यह रिएलिटी शो है इसलिए एक आदमी आ गया है पूछने, ‘भाई साहब, आप सब इस आदमी को क्यों पीट रहे हैं !?
‘बड़ा ऐंटी-सोशल आदमी है जी, किसीसे मिल-जुलके नहीं चलता।’
‘अच्छा जी ! हुआ क्या ?’
एक छोटी-सी दुकान बना रहा हूं ज़रा-सी ज़मीन ऐनक्रोच करके, साला बनाने नहीं दे रहा, कहता है मेरे घर का रास्ता बंद होता है! हम कह रहे हैं तू भी बनाले कुछ, हम सहयोग कर देंगे पर मानता नहीं, साले ने अपने अलग ही क़ानून बना रक्खे हैं !’
‘बड़ा ग़लत आदमी है ! जरा मैं भी हाथ फरैरे कल्लूं।’
पीछे गाना बज रहा है,‘सारे बजाज और सारे दलाल, चाहते हैं अच्छा लुकपाल, जिन्नलुकपाल, जिन्नलुकपाल, चहिए हमको जिन्नलुकपाल....’
ठीक भी है, कम-अज़-कम जिन्न का ‘लुक’ तो ऐसा होना ही चाहिए जिसे ‘पाला’ जा सके!
और भारत में कैसी हैरत ! जो लोग अपने बीच क़ानून का पालन करनेवालों को बर्दाश्त नहीं कर सकते, उन्हें नेताओं के खि़लाफ़ एक कड़ा क़ानून चाहिए।
(जारी)
--संजय ग्रोवर
13-11-2011
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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....