जब पढ़ते थे तो तरह-तरह के लोगों को पढ़ते थे। साहित्य अच्छा तो लगता ही था मगर यह दिखाना भी अच्छा लगता था कि ‘देखो, हम दूसरों से अलग हैं, हम वह साहित्य भी पढ़ते हैं जो हर किसी की समझ में नहीं आता।’ अब सोचते हैं कि हमारी भी समझ में कितना आता था! गुलशन नंदा, रानू, कर्नल रंजीत के उपन्यास ले चुकने के बाद जब हम अदला-बदली करनेवालों से पूछते कि ‘कुछ साहित्यिक नहीं है क्या तुम्हारे पास’ तो वे कहते ‘हां है न, शिवानी है, चतुरसेन है, दत्त भारती है.........’
दत्त भारती कुछ समझ में आते थे, उन्हें काफ़ी पढ़ा। उस वक़्त आत्मविश्वास कम था, दबाव में आकर चतुरसेन और शिवानी को पढ़ने के लिए ख़ुदपर काफ़ी अत्याचार किया। पता नहीं इन लोगों ने कहानी लिखने के कौन-से कोर्स कर रखे थे, हमने कहानी पढ़ने का कोई कोर्स किया नहीं था, शायद इसीलिए इनसे कोई तालमेल बैठ न पाया। शिवानीजी के साहित्य को याद करने बैठें तो तीन-चार ही शब्द बार-बार याद आते हैं-गौरवर्ण, उन्नत और ललाट। आज सोचते हैं कि अगर आज भी हम दिल्ली के किसी मज़दूर या रिक्शावाले के सामने ये चार शब्द बोल दें तो वह घबरा जाएगा कि ‘भाईसाहब, पहले ही परेशान हैं, आप अंग्रेज़ी बोलकर और क्यों डरा रहे हो.......’
शिवानीजी की एकाध कहानी धुंधली-सी याद आती है कि किस तरह अच्छी-अच्छी बातें करनेवाले और बढ़िया नशा मिला खाना खिलाने वाले लोग आखि़र में दूसरों को ठगकर ग़ायब हो जाते हैं। भारी-भरकम हिंदी में लिखी गई इस तरह की हल्की-फ़ुल्की कहानियां आज बेहतर ढंग से समझ में आती है। आज अपने अनुभवों से और टीवी देख-देखकर हम यह अच्छी तरह जान चुके हैं कि अच्छी-अच्छी बातों का नशा पिलाकर लोगों को ठगने का काम कौन लोग करते रहे हैं। ऐसे लोगों को ग़ायब भी नहीं होना पड़ता। बल्कि समाज में सबसे ज़्यादा स्थापित वही लोग दिखाई पड़ते हैं। ठगी उनका परमानेंट जॉब है जिसका परमानंद वे ले रहे है।
बाद में सुना कि शिवानीजी के बच्चे वग़ैरह भी कहानियां वग़ैरह लिखने लगे थे। इसमें कुछ बुराई भी नहीं। स्टार-पुत्र अभिषक बच्चन, ऋतिक रोशन, शाहिद कपूर इत्यादि भी काफ़ी समय से फ़िल्म-इंडस्ट्री में जमे ही हुए हैं। छोटे-मोटे कोर्स हर कहीं उपलब्ध हैं।
इस सबके बाद सोचते हैं कि कितना अच्छा हुआ कि हम पर तथाकथित महान लोगों की परछाईयां नहीं पड़ी वरना हम भी इंसानियत, ईमानदारी और इस देश का श्राद्ध करके कई बार खा गए होते,
बिना कोई कोर्स किए ही.
-संजय ग्रोवर
(4 अप्रैल 2015 को फ़ेसबुक पर)
दत्त भारती कुछ समझ में आते थे, उन्हें काफ़ी पढ़ा। उस वक़्त आत्मविश्वास कम था, दबाव में आकर चतुरसेन और शिवानी को पढ़ने के लिए ख़ुदपर काफ़ी अत्याचार किया। पता नहीं इन लोगों ने कहानी लिखने के कौन-से कोर्स कर रखे थे, हमने कहानी पढ़ने का कोई कोर्स किया नहीं था, शायद इसीलिए इनसे कोई तालमेल बैठ न पाया। शिवानीजी के साहित्य को याद करने बैठें तो तीन-चार ही शब्द बार-बार याद आते हैं-गौरवर्ण, उन्नत और ललाट। आज सोचते हैं कि अगर आज भी हम दिल्ली के किसी मज़दूर या रिक्शावाले के सामने ये चार शब्द बोल दें तो वह घबरा जाएगा कि ‘भाईसाहब, पहले ही परेशान हैं, आप अंग्रेज़ी बोलकर और क्यों डरा रहे हो.......’
शिवानीजी की एकाध कहानी धुंधली-सी याद आती है कि किस तरह अच्छी-अच्छी बातें करनेवाले और बढ़िया नशा मिला खाना खिलाने वाले लोग आखि़र में दूसरों को ठगकर ग़ायब हो जाते हैं। भारी-भरकम हिंदी में लिखी गई इस तरह की हल्की-फ़ुल्की कहानियां आज बेहतर ढंग से समझ में आती है। आज अपने अनुभवों से और टीवी देख-देखकर हम यह अच्छी तरह जान चुके हैं कि अच्छी-अच्छी बातों का नशा पिलाकर लोगों को ठगने का काम कौन लोग करते रहे हैं। ऐसे लोगों को ग़ायब भी नहीं होना पड़ता। बल्कि समाज में सबसे ज़्यादा स्थापित वही लोग दिखाई पड़ते हैं। ठगी उनका परमानेंट जॉब है जिसका परमानंद वे ले रहे है।
बाद में सुना कि शिवानीजी के बच्चे वग़ैरह भी कहानियां वग़ैरह लिखने लगे थे। इसमें कुछ बुराई भी नहीं। स्टार-पुत्र अभिषक बच्चन, ऋतिक रोशन, शाहिद कपूर इत्यादि भी काफ़ी समय से फ़िल्म-इंडस्ट्री में जमे ही हुए हैं। छोटे-मोटे कोर्स हर कहीं उपलब्ध हैं।
इस सबके बाद सोचते हैं कि कितना अच्छा हुआ कि हम पर तथाकथित महान लोगों की परछाईयां नहीं पड़ी वरना हम भी इंसानियत, ईमानदारी और इस देश का श्राद्ध करके कई बार खा गए होते,
बिना कोई कोर्स किए ही.
-संजय ग्रोवर
(4 अप्रैल 2015 को फ़ेसबुक पर)
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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....