क्या हम 20-30 मिनट के लिए उनका गला छोड़ सकते हैं
जिन्हें नौकरियों और कुछ दूसरी जगहों पर आरक्षण मिलता है ? मेरा ख़्याल है
इतना तो हम अफ़ोर्ड कर ही सकते हैं। जीवन के दूसरे क्षेत्रों में आईए ज़रा।
याद करेंगे तो ज़रुर आपको ऐसा कोई न कोई संगी-साथी, जान-पहचान वाला याद आ
जाएगा जो मुश्क़िल से पास होता था मगर आज सफ़ल बिज़नेसमैन है। या कोई ऐसा जो
पढ़ाई में बस ठीक-ठाक था मगर आज नामी-गिरामी वक़ील है। सवाल है कि जीवन के
दूसरे क्षेत्रों में जिनका कि फ़लक आरक्षण वाले क्षेत्रों से बहुत बड़ा है,
वहां ‘मेरिट’ किस तरह काम करती है ? सिर्फ़ मेरिट ही काम करती है या कुछ और
भी काम करता है ? या वहां सफ़लता को ही ‘मेरिट’ मान लिया जाना चाहिए ?
साहित्य में आईए। पत्र-पत्रिका में छपने के लिए किसीको अपनी मार्कशीट नहीं दिखानी होती। फ़िर क्या योग्यता है पत्र-पत्रिका में छपने की ? कया आप यह मानने को तैयार हैं कि वे सभी लोग जो रोज़ाना पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं, उन सभी लोगों से ज़्यादा ‘मेरिटवान’ होते हैं जो कभी-कभार छपते हैं ?
फ़िल्म बनाने के लिए कौन-सी ‘मेरिट’ आवश्यक है ? आखि़र सभी निर्देशक पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट से तो नहीं आए होते ! अगर ‘मेरिट’ का पंगा खड़ा कर दिया जाए तो बहुत-से सफ़ल निर्देशकों को घर बैठना नहीं पड़ जाएगा ? फ़िल्म सिर्फ़ 'मेरिट’ से नहीं, तरह-तरह के संबंधों, जुगाड़ों और पैसा जुटाने की क्षमता की वजह से भी बनती है। और पूरी बन चुकने के बाद सेंसर के पास जाती है। अगर ज़िंदगी में 'मेरिट’ ही सब कुछ हुआ करती तो कई बड़े अभिनेताओं के बच्चे इण्डस्ट्री छोड़ चुके होते।
क्या आप मानते हैं कि आज के जितने सफ़ल उद्योगपति हैं सबके सब वाणिज्य विषय में अच्छे नंबरों के साथ पास हुए होंगे !? एक सफ़ल उद्योगपति या एक सफ़ल राजनेता की सफ़लता में ‘मेरिट’ का कितना हाथ होता है और छल-कपट-प्रबंधन का कितना, इस विषय में हम कुछ देर बैठकर सोच लेंगे तो आसमान नहीं टूटकर गिर जाएगा !
नौकरियों में कौन-सी ‘मेरिटरानी’ सारी दौड़ें जीतती आयी है ? चमचे तरक्की पा जाते हैं और मेरिटचंद पप्पू बने देखते रहते हैं। किसीके पास अप्रोच है, किसीके पास पैसा है, किसीके पास और कुछ है, आप पड़े रटते रहो ‘मेरिट-मेरिट’। जिनके पास ‘मेरिट’ के नाम पर डिग्रियां हैं भी, कैसे पता करोगे, असली हैं कि नकली ? पढ़कर मिली हैं या नकलकर के ?
और बाबागण ! इन्हें प्रवचन देने के लिए किस डिग्री-डिप्लोमा की दरकार है ?
रोज़ना धरने-प्रदर्शन-अनशन वगैरह होते हैं। इसके लिए कौन-सा डिप्लोमा ज़रुरी है ? जिसे चार लोग स्वीकृत कर लेते हैं वही जाकर बैठ जाता है। और तो और पूरे देश की जनता का प्रतिनिधित्व करनेवाली सिविल सोसायटी में भी जो पांच लोग बिठाए जाते हैं, उनके जैसी ‘मेरिट’ वाले पूरे देश में तो क्या उनके आस-पास ही काफ़ी निकल सकते हैं। बताओ, ‘मेरिट’ को कौन-से थर्मामीटर से नापोगे ?
क्या अपने यहां ‘मेरिट’ का सफ़लता से इतना ही साफ़-सीधा संबंध है जैसा दिखाने की कोशिश की जा रही है !?
-- संजय ग्रोवर
साहित्य में आईए। पत्र-पत्रिका में छपने के लिए किसीको अपनी मार्कशीट नहीं दिखानी होती। फ़िर क्या योग्यता है पत्र-पत्रिका में छपने की ? कया आप यह मानने को तैयार हैं कि वे सभी लोग जो रोज़ाना पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं, उन सभी लोगों से ज़्यादा ‘मेरिटवान’ होते हैं जो कभी-कभार छपते हैं ?
फ़िल्म बनाने के लिए कौन-सी ‘मेरिट’ आवश्यक है ? आखि़र सभी निर्देशक पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट से तो नहीं आए होते ! अगर ‘मेरिट’ का पंगा खड़ा कर दिया जाए तो बहुत-से सफ़ल निर्देशकों को घर बैठना नहीं पड़ जाएगा ? फ़िल्म सिर्फ़ 'मेरिट’ से नहीं, तरह-तरह के संबंधों, जुगाड़ों और पैसा जुटाने की क्षमता की वजह से भी बनती है। और पूरी बन चुकने के बाद सेंसर के पास जाती है। अगर ज़िंदगी में 'मेरिट’ ही सब कुछ हुआ करती तो कई बड़े अभिनेताओं के बच्चे इण्डस्ट्री छोड़ चुके होते।
क्या आप मानते हैं कि आज के जितने सफ़ल उद्योगपति हैं सबके सब वाणिज्य विषय में अच्छे नंबरों के साथ पास हुए होंगे !? एक सफ़ल उद्योगपति या एक सफ़ल राजनेता की सफ़लता में ‘मेरिट’ का कितना हाथ होता है और छल-कपट-प्रबंधन का कितना, इस विषय में हम कुछ देर बैठकर सोच लेंगे तो आसमान नहीं टूटकर गिर जाएगा !
नौकरियों में कौन-सी ‘मेरिटरानी’ सारी दौड़ें जीतती आयी है ? चमचे तरक्की पा जाते हैं और मेरिटचंद पप्पू बने देखते रहते हैं। किसीके पास अप्रोच है, किसीके पास पैसा है, किसीके पास और कुछ है, आप पड़े रटते रहो ‘मेरिट-मेरिट’। जिनके पास ‘मेरिट’ के नाम पर डिग्रियां हैं भी, कैसे पता करोगे, असली हैं कि नकली ? पढ़कर मिली हैं या नकलकर के ?
और बाबागण ! इन्हें प्रवचन देने के लिए किस डिग्री-डिप्लोमा की दरकार है ?
रोज़ना धरने-प्रदर्शन-अनशन वगैरह होते हैं। इसके लिए कौन-सा डिप्लोमा ज़रुरी है ? जिसे चार लोग स्वीकृत कर लेते हैं वही जाकर बैठ जाता है। और तो और पूरे देश की जनता का प्रतिनिधित्व करनेवाली सिविल सोसायटी में भी जो पांच लोग बिठाए जाते हैं, उनके जैसी ‘मेरिट’ वाले पूरे देश में तो क्या उनके आस-पास ही काफ़ी निकल सकते हैं। बताओ, ‘मेरिट’ को कौन-से थर्मामीटर से नापोगे ?
क्या अपने यहां ‘मेरिट’ का सफ़लता से इतना ही साफ़-सीधा संबंध है जैसा दिखाने की कोशिश की जा रही है !?
-- संजय ग्रोवर
क्यों न पहले मेरिट की बात उठाने वाले इन फ़िल्मकारों की मेरिट पर बात हो। इन अभिनेताओं की मेरिट पर बात हो ? कौन-सी मेरिट के आधार पर ये एक भूखे राष्ट् के करोड़ों रुपए लगाकर सामाजिक समस्याओं पर मनमाने ढंग से फ़िल्में बनाते हैं ? किस मेरिट के आधार पर ये सुपर स्टार करोड़ों रुपए का मेहनताना लेते हैं ? इनकी फ़िल्मो में पैसा लगानेवालों की मेरिट क्या होती है ? सेंसर बोर्ड को फ़िल्म पास करने से पहले निर्देशक की मेरिट तय करनी चाहिए। कैसे तय होती है इनकी मेरिट ? इसके लिए भी पैमाने बनाए जाने चाहिए। इनकी मेरिट हम इनकी फ्लॉप और कला फ़िल्मो से तय करें या मौके के मुताबिक समाज को मिसगाइड करने वाली कमर्शियल फ़िल्मों से तय करें ?
जवाब देंहटाएंयह मैं किसी एक फ़िल्म या एक फ़िल्मकार के बारे में नहीं कह रहा। मगर जो कोई भी तथाकथित ‘मेरिट’ को ही सब कुछ मानता है ‘मेरिट’ के नाम पर समाज से करोड़ों रुपए, पुरस्कार और सम्मान जुटाता है उसे अपनी ‘मेरिट’ को भी ‘मेरिट’ के किन्हीं तयशुदा पैमानों के दायरों में लाना चाहिए। और अगर ‘मेरिट’ सामाजिक और आर्थिक सफ़लता से तय होती है तो ‘मेरिट’ का हौवा खड़ा करना बंद करना चाहिए।
बिलकुल सही। यह हौआ बिलकुल बंद होना चाहिए।
जवाब देंहटाएं------
ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें!
क्या भारतीयों तक पहुँचेगी यह नई चेतना ?
to kahne ka tatparya ye hain..jab har tarf nanga nanch chal raha hain...to kyun na "reservation" naam ke "brhamasthra" ko bhi khuli chuut aur vaidhtya de jai...
जवाब देंहटाएंaur kyun nahi 60 saal mein eska eetna labh samajik roop se peechdey hue tabko ko mila hain ki..unki santane bhi aaj bina "reservation" ke compete kar rahi hain!!
Akhirkar "democracy" hain..jin samuho ki jitni jansankhya hain..unhe utni sahuliyatey milni chahiye!!
Dada Bahut jabarjast hai ye lekh, Arakshan virodhiyo ka band darwaja khulna he chaheye.
जवाब देंहटाएंमेरिट?? ये क्या होता है? :)
जवाब देंहटाएंSALUTE !
जवाब देंहटाएंअभी हम लोग मैरिट मैरिट क्यों कर रहे है. एड्मिसन तो सब हो गए.
जवाब देंहटाएंसब कुछ गोलमाल है ! सफलता का पैमाना, सच्ची ज़रूरत के अनुसार मिलने वाला आरक्षण, ईमानदारी से हुई नियुक्तियाँ या पदोन्नतियाँ, समाज में छाया प्रभुत्व और रुतबा कुछ भी विश्वसनीय नहीं है ! दुःख यही है कि किसी पर भी कोई नैतिक, वैधानिक, सामाजिक या किसी भी अन्य प्रकार कोई भी अंकुश लागू नहीं है इसीलिये सब निर्बाध तरीके से होता चला जा रहा है ! एक चिंतनीय आलेख के लिये आभार !
जवाब देंहटाएंमैं बचपन में पढ़ने में बहुत मेधावी था.. फिर कुछ कारणवश दसवीं तक आते आते मैं किसी तरह घिसट-घिसट कर पास करने लगा जो बारहवीं तक चला.. घिसट-घिसट कर से मेरा मतलब 40% to 45% only.. फिर ग्रैजुएशन में अपने विश्वविद्यालय में तीसरे स्थान पर रहा.. और अभी तक जो कुछ भी करना चाहा उसमें देर सवेर ही सही मगर सफलता जरूर मिली.. अब बताए मुझमें मेरिट है या नहीं?
जवाब देंहटाएंमास्टर डिग्री के समय 95 Percentile तक लाने के बावजूद मुझे किसी अच्छे सरकारी कालेज में एडमिशन नहीं मिला, जबकि उसी समय कुछ विद्यार्थियों को अच्छे सरकारी कालेज में मात्र 0.04 Percentile पर भी एडमिशन मिला, और उनमें से कुछ के बारे में बाद में पता चला कि लगातार तीन साल फेल होने के बाद उन्हें कालेज से निकाल दिया गया.. अब ये कहें की मेरे मन में क्या विचार आने चाहिए?
मैं आरक्षण के खिलाफ नहीं हूँ, मगर उसका अंध समर्थन भी नहीं करता हूँ.. मेरा बस ये कहना है की आरक्षण भी उन्हें ही दो जो उसे पाने के लायक हों..
मैं कुछ लोगों को जानता हूँ जो मेरे ही समय में 60 Percentile लाकर अच्छे सरकारी कालेज में एडमिशन लिए, अच्छे से पढ़ाई पूरी की और अभी अच्छे से कमा-धमा रहे हैं.. आरक्षण देना ही है तो ऐसे लोगों को दिया जाए जो कम से कम पास करके आगे अच्छा कर सकें..
Very well said.
जवाब देंहटाएंOften those who flee India saying they're not getting equal chance due to reservation in India, end up going abroad and being taxi drivers/ hair dressers/ restaurant waiters. If you had it in you, why didn't you go ahead and become something great overseas where there is no reservation? Crying against reservation is the hobby and excuse of mediocre upper caste candidates. Merit students of any caste don't suffer and get their way in life- and I'm not talking about the Mark-sheet merit but the Personal merits that include the qualities it takes for one to make it large.
http://merawalaindia.blogspot.com/2011/06/stop-bloody-reservation.html
पी. डी. भाई मैं आपकी व्यक्तिगत तक़लीफ़ से असहमत नहीं हूं पर सोचता हूं कि जब आप सब कुछ होते हुए इतने तक़लीफ़ में हैं तो उनकी हालत क्या होगी जिन्होंने तकलीफ़, अपमान, उपेक्षा, गालियां, जूठन, गंदगी आदि के अलावा कुछ देखा ही नहीं। किसीमें मेरिट है या नहीं, कम-अज़-कम मेरे लिए तो यह तय करना बहुत ही मुश्क़िल काम है। यह कहने में मुझे ज़रा भी हिचक नहीं है कि हमारे जैसे समाजों में सफल आदमी की सफ़लता में मेरिट से ज़्यादा दूसरी चीज़ों का योगदान होता है।
जवाब देंहटाएंमेरे भी कुछ व्यक्तिगत अनुभव हैं। जैसे मैं सफ़ाई कर्मचारी से, रिक्शावाले से, कोशिश करता हूं कि ‘आप’ कहकर इज़्ज़त से बात करुं, उन्हें पूरे पैसे दूं। अकसर इसके नतीज़े मुझे उल्टे ही मिले हैं। जैसे वे डांटने-धमकाने वालों का काम पहले कर देते हैं, उनसे पैसे कम लेते हैं, उनसे इज़्ज़त से बोलते हैं। मेरे साथ अकसर उल्टा करते हैं। इसके पीछे उनकी क्या मजबूरी है, क्या मानसिकता है, मैं समझता हूं। स्त्रियों के साथ भी मेरे अनुभव बहुत अच्छे नहीं हैं। लेकिन मैं न स्त्री-आरक्षण के खि़लाफ़ हूं न दलित आरक्षण के। मेरे जैसे के साथ वे वही करते हैं जो ऐसे आदमी के साथ ऐसी परिस्थितियों में खाते-पीते-कमाते लोग करते हैं।
जब आटा-बाटा-इरला-विरला इतना कमा-खा के नहीं बदले तो इन्हीं से मैं क्यों उम्मीद करुं ! मैं ही कौन-सा देवता हूं ! और इस सबका मतलब यह तो नहीं कि उनके साथ सामाजिक अन्याय नहीं हुआ ? मैं कैसे भूल जाउं कि आज भी लगभग हर हफ्ते ख़बर आती है कि फ़लां गांव में दलित औरत को बेइज़्ज़त करके घुमाया गया। कैसे भूल जाउं कि मेरे सामने छोटे-से सफ़ाई-कर्मचारी बच्चे से कथित उच्च और धार्मिक लोग कैसा जानवरों जैसा व्यवहार करते हैं। कैसे भूल जाउं कि ज़मीन-आसमान जैसे, ऐसे सभी फ़र्कों को भूलकर वे लोग ही अब कहते हैं कि अब तो सब कुछ बदल गया अब हमें भी आरक्षण दो जो आरक्षण आने से पहले दलितों पर बात करना भी समय बरबाद करना समझते थे। मैं कैसे भूल जाउं कि कोई धर्म अगर जानवर के बदले मेरी हत्या करने में अपनी सार्थकता समझेगा तो मुझे कैसा लगेगा !
कैसे भूल जाउं !? आप भी सोचकर देखें एक बार।
आरक्षण की बात करते हुए हम कई बार इतिहास का हवाला देने लगते हैं। मेरे विचार में संविधान का निर्माण करते समय भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं भौगोलिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा गया होगा और उसी के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई। लेकिन किसी भी क्षेत्र में अतिवाद की स्थिति बहुत खतरनाक होती है। आज आरक्षण के कारण जहां दलितों को अच्छे अवसर मिल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ सवर्णों को लगता है कि उनके अवसर छीने जा रहे हैं। दलित अपने ऊपर हजारों सालों से होते आए अत्याचार का हवाला देते हैं यह ठीक है, लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नहीं होना चाहिए कि आप भी हजारों सालों तक सवर्णों पर अत्याचार करने की तैयारी करने चल पडें। ऐसे तो सवर्ण सदैव आशंकित रहेगा और एन्टीथीसिस के रूप में जमा होते रहेगा। सामाजिक क्षेत्र की असमानता को राजनीतिक तरीकों से पूरी तरह नहीं दूर किया जा सकता। अभी हाल ही में खबर आई थी कि दक्षिण भारत में एक सरकारी कार्यालय में एक दलित अधिकारी के रिटायर होने के बाद उसके कक्ष को धोकर साफ किया गया क्योंकि वहां पर एक सवर्ण अधिकारी को विराजमान होना था। सामाजिक और शैक्षिक स्तर पर पहल किये बिना इस प्रकार की असमानता नहीं दूर होने वाली।
जवाब देंहटाएंआरक्षण के कारण मन की दूरियाँ बढ़ी हैं और भेद भाव के सभी अवसर को बढ़ावा मिला है. समान अवसर समान सुविधा देना आवश्यक है न कि आरक्षण. आरक्षण से कहीं से भी समाज की तरक्की की कोई गुंजाइश नहीं है. अगर हम जान जाते कि कोई आरक्षण से किसी पद को हासिल किया है भले हीं वो पद के उपयुक्त हो फिर भी मन में उसके प्रति उपेक्षा रहती है और उसकी अपनी योग्यता धूमिल हो जाती है. कुछ ख़ास तबकों पर ज़रूर फायदा देखा जा रहा है लेकिन इससे नुकसान हीं अधिक है. आरक्षण का एक मात्र आधार आर्थिक होना चाहिए न कि जाति.
जवाब देंहटाएंजेन्नी जी, अगर आरक्षण ग़लत है तो उसके आर्थिक आधार पर होने या माहिला आरक्षण होने से सही कैसे हो जाता है ? महिला आरक्षण को क्यों नहीं स्त्री और पुरुष को बांटने वाला कहा जाता ? आर्थिक आधार पर आरक्षण होने से ग़रीब और अमीर के बीव बढ़ने वाली खाई की चिंता क्यों नहीं की जाती ? क्या इन दोनों आरक्षणो से ‘अयोग्य’ लोग नहीं आएंगे ?
जवाब देंहटाएंआरक्षण पर विवाद चलता ही रहेगा जबतक समाज में समता स्थापित नहीं होती. शायद आरक्षण से स्टार्टिंग लाइन सब के लिए बराबर हो जाए यद्यपि यही एक रास्ता नहीं हैं.
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