मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

गालियों और लात-घूंसों के साथ जूठन भी प्राकृतिक स्वभाव !?


मटुकजूली के ब्लाग से चली यह बहस रा. सहारा  और गीताश्री के ब्लाग से होती हुई  मुझ तक आ पहुंची है क्यांकि एक टिप्पणी मटुक जूली के ब्लाग पर मैंने की थी। जिसपर उन्होंने अपने विचार रखे और उनपर मैं अपने रख रहा हूं।

(तकनीकी कारणों से यह मटुकजूली ब्लाग पर पोस्ट नहीं हो पा रही है। अपने और दूसरे ब्लाग पर डाल रहा हूं।)



प्रिय मटुकजूली जी,

कृपया इस ’प्रिय’ शब्द के कोई विशेष अर्थ न निकालें, यह कामचलाऊ भाषागत शिष्टाचार है, जिसका मैं खामख्वाह विरोध नहीं करना चाहता। चूंकि आपने ‘अपनत्व के छिलके’ शब्दों का प्रयोग किया इसलिए यह सावधानी बरतनी पड़ रही है। मैंने किसी विशेष अर्थ में आपके साथ ‘अपनत्व’ का कोई दावा किया हो, मुझे तो याद नहीं। हां, इस भीड़वादी समाज में दो लोग और निकलकर आए जिनके पास अपने कुछ विचार हैं और उन्हें सलीके से कहने का हौसला भी वे रखते हैं, इस नाते अपने से मिलते-जुलते स्वभाव और विचारों के लोगों को प्रोत्साहित करने की जो भावना मन में उठती है, वह ज़रुर कारण बनी। अब आप इसका अर्थ यह भी मत लगा लीजिए कि किसी का या मेरा प्रोत्साहन नहीं होगा तो आप कुछ कर नहीं पाएंगे। बिलकुल करेंगे। ऐसे प्रोत्साहन का एक कारण प्रोत्साहन देने वाले का अपना अकेलापन भी होता है जिसके चलते ही वह इस ज़रुरत को समझ पाता है कि उसके जैसे लोगों को प्रेरणा, प्रोत्साहन और नैतिक समर्थन की कितनी ज़रुरत होती है। इसका अर्थ कोई यह भी न लगा ले कि मैं हर उस आदमी का समर्थक हूं जो भीड़ से अलग या भीड़ के खिलाफ़ कुछ भी कर रहा है। देखना होता है कि उसके ऐसा करने की वजह क्या है, उससे समाज में किस तरह का बदलाव आने की संभावना है।

आपका धन्यवाद कि आपने इतने धैर्य और सदाशयता के साथ मेरी टिप्पणी पर अपने विचार रखे। कलको गीताश्री भी मेरी उस सहमति पर आपत्ति उठा सकतीं हैं जो मैंने आपके कुछ विचारों पर व्यक्त की है। मैं उनका भी स्वागत करुंगा। आखिर यही तो वैचारिक और व्यक्तिगत अभिव्यक्ति की वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया है जिसके लिए मैं, आप, गीताश्री और हमारे जैसे लोग एक जगह बनाना चाहते हैं। पर कभी-कभी आप अतिरेक में चले जाते हैं (हो सकता है मैं भी जाता होऊं और जब ऐसा हो तो आप मुझे भी टोकिएगा) और बातों को  अपने अर्थ दे देते हैं। आप मुझे मेरी अगली-पिछली टिप्पणियों में से एक वाक्य निकाल कर दिखाईए जिससे यह पता चलता हो कि मैं आपको तुलसीदास से वंचित रखना चाहता हूं ! हां, किसी कवि, लेखक, चिंतक या दार्शनिक को पसंद करने के सबके अपने-अपने कारण होते हैं। आपके भी हैं, मेरे भी हैं। मुझे वे लोग अच्छे लगते हैं जो आम आदमी को समझ में आने वाली भाषा में बदलाव की बात करते हैं, रुढ़ियों और कुप्रथाओं के खिलाफ लिखते हैं। मुझे सौंदर्य इसी में नज़र आता है। चरित्र-चित्रण की बात है तो क्या आप यह मानते हैं कि ऐसा करते हुए लेखक के अपने पूर्वाग्रह आड़े नहीं आते होगे ! अगर मुझे घुट्टी में ही औरत से, कमज़ोर और वंचित से (सर्वावाइल आफ द फिटेस्ट !) नफ़रत सिखाई गयी है तो मैं उक्त सबका चरित्र-चित्रण बिना पूर्वाग्रहों के कैसे कर पाऊंगा !? और माफ़ कीजिए, मैं इस आधार पर किसीके बारे में अपनी राय नहीं बना सकता कि उसे रवींद्रनाथ टैगोर या बर्नार्ड शा पसंद करते थे कि नहीं करते थे। मैं किसी को पढ़ता हूं तो सीधे-सीधे पढ़ता हूं। मुझे एक लेखक की कोई बात जम रही है मगर चूंकि जयशंकर प्रसाद या अरुंधति राय को नहीं जमी इसलिए मैं भी विरोध करुं, मेरी समझ से कतई बाहर है। मुझे तो अत्यंत हैरानी है कि ऐसी बातें आप कह रहे हैं ! अभी कल ही कहीं पढ़ रहा था कि मिर्ज़ा ग़ालिब मीर के बड़े प्रशंसक थे। अब मैं इसका क्या करुं कि ग़ालिब मुझे अत्यंत प्रिय हैं, मीर समझ में नहीं आते। हांलांकि मीर मेरी इस कसौटी पर खरे हैं कि उनकी भाषा ग़ालिब की तुलना में आसान है। मगर इधर ग़ालिब ने व्यक्ति और समाज के मनोविज्ञान को जिस तरह समझा है, उधर दिखाई नहीं पड़ता। मेरी समझ में आज भी हमारे समाज को आसान भाषा में खरी-खरी कहने वाले लेखकों-चिंतकों की ज़रुरत है क्यों कि कबीरदास के ‘माला फेरत जुग भया‘ और ‘ता चढ़ मुल्ला बांग दे’ के बावज़ूद हमारा समाज वहीं का वहीं पड़ा है। कबीरदास के ऐसे दो-चार दोहे ज़रुर हमारे कोर्स की क़िताबों में हैं मगर कबीर, बुद्ध या चार्वाक के वास्तविक विचारों से हमारा आम आदमी ठीक से परिचित नहीं है या उसे होने नहीं दिया गया। ओशो का भी मैं प्रेमी हूं और मनसा आनंद जी के ब्लाग पर आजकल उनका ‘‘स्वर्णिम बचपन’’ पढ़ रहा हूं। लेकिन जैसे ही पूर्व-जन्म, अध्यात्म, आत्मा, ईश्वर, गुरु में अंधी श्रद्धा जैसे प्रसंग आते हैं, बात मेरी समझ से बाहर चली जाती है। किसी भी लेखक या चिंतक का लिखा-कहा सब कुछ कैसे सही हो सकता है !? मेरे दिमाग में तो यह बात कभी अट नहीं पायी। आपको मेरी या मुझे आपकी भी सारी बातें कहां जम रही हैं। तय परिभाषाओं के हिसाब से आप और मैं बड़े लेखक हों न हों, दोनों एक-दूसरे को तो कुछ-ना-कुछ समझ ही रहे थे।



औरतों-मर्दों के प्राकृतिक गुणों पर आते हैं। आपने बताया कि आपने परिवार में हमेशा औरतों को मिल-बांट कर खाते देखा। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं है। होनी भी क्यों चाहिए !? यहां एक मुसीबत यह भी तो है कि जो मिल-बांटकर नहीं खाएगी, आप तय कर देंगे कि यह तो औरत ही नहीं है। मुझे कुछ उदाहरण याद आते हैं। जब पिता किसी व्यवसायिक कार्य से रातों को बाहर जाया करते तो मां रात को घर में सोने के लिए किसी पुरुष रिश्तेदार को बुला लिया करतीं थीं। हांलांकि घर में हम छः छः बच्चे भी होते थे और थोड़े साहसी और व्यवहारिक हों तो एक-दो चोरों से निपटने के लिए कम नहीं होते। मगर उस मानसिक-सांस्कारिक कमज़ोरी का आप क्या करेगे जो स्त्रियों और कुछ बच्चों को परिवेश से मिली होती है। अब जिस पुरुष रिश्तेदार को बुलाया जाता था ज़ाहिर है कि उसकी अच्छी आवभगत भी होती थी। अब मैं और आप कैसे तय करेंगे कि यह मिल-बांट कर खाना था या कुछ और था !? जब मैं स्त्रियों और उनकी समस्याओं के प्रति न के बराबर संवेदनशील था तब भी नोट करता था कि मां हमेशा बासी चीज़ें खातीं थीं। घर की आर्थिक स्थिति कुछ खराब भी नहीं थीं। पिता ने भी कभी मां से ऐसी कोई टोका-टाकी नहीं की थी कभी। मगर मां जब भी अच्छा या महंगा कुछ खातीं तो तब जब घर में कोई सामने न हो या रसोई के एक कोने में छुपकर खातीं थीं। कोई चाहे तो इसे त्याग कह सकता है मगर मेरी समझ में सामाजिक-पारिवारिक-सांस्कारिक परिवेश से मिले अपराध-बोध और हीन-भावनाएं सीधे-सीधे इसके पीछे थीं। कमाल की बात कि मुझे भी एक रिश्तेदार महिला ने एक-दो बार रात सोने के लिए बुलाया जब उनके पतिदेव बाहर गएं। भाभी और उनकी बिटिया ठीक-ठाक ताकतवर थीं। जहां तक शारीरिक ताकत की बात है तो वे महिला अगर मुझे एक धक्का मारतीं तो मैं दो-चार कदम दूर जाकर ही गिरता। मगर संस्कारों की घुट्टी में मिली मानसिक कमज़ोरी का क्या करें !

और स्त्रियां तो बांटकर खातीं हैं मगर हमारे दलित-हरिजन-वंचित-पिछड़े ! वे तो गालियों और लात-घूंसों के साथ जूठन खाते आएं हैं। इसे भी उनका प्राकृतिक स्वभाव कहेंगे आप !? उनकी बुद्धि भी ‘भटक’ गयी है जो वे अपने हक मांग रहे हैं। मेरा कहना आपसे यही था कि हम पहले ठीक से तय तो कर लें कि क्या प्राकृतिक है और क्या समाज-व्यवस्था द्वारा लादा गया है। इसमें मेरी या आपकी उम्र से कोई लेना-देना नहीं था। हज़ारों सालों की तयशुदा परिभाषाओं में से बहुत सी स्त्री के संदर्भ में ग़लत साबित पड़ती जा रही हैं, इसलिए आप तो जल्दी न करें। मेरा निवेदन यह था। शारीरिक ताकत की बात करें तो क्या सारे पुरुष फौज में भर्ती होने के क़ाबिल होते हैं !? वे पुरुष भी जो पुस्तकों के लोकार्पण और वैचारिक अभिव्यक्ति पर लोगों को पीट-पीटकर मार डालते हैं, आतंकवादियों के हमलों के वक्त गायब हो जाते हैं। एक वक्त होता था जब हम साफ-साफ देखा करते थे कि आस्ट्रेलिया जैसे देशों की (महिला) खिलाड़िनें भी हमारे  जैसे देशों के (पुरुष) खिलाड़ियों से कद-बुत और दम-खम में बेहतर होतीं थीं। आज हमारे देश की बहुत सी स्त्रियां बहुत से ऐसे काम कर रहीं हैं जो उनके लिए असंभव घोषित कर दिए गए थे। सीधी बात है कि जो महिलाएं ख़ुदको आधी रात को घूमने या फायटर पायलट बनने के अनुकूल पाएंगी वे निभा ले जाएंगी बाकी अपने दूसरे कामों में लगेंगी। नौकरी करने के लिए महिलाएं हों या पुरुष दोनों ही को कुछ न कुछ त्याग तो करने पड़ते ही हैं। आधी रात को घूमने की बात है तो दो ही इलाज हैं कि या तो हम समाज को इतना खुला और कुण्ठामुक्त बनाएं कि रात को उनका घूमना सामान्य बात हो जाए या उन्हें ज़िंदगी भर दबा-छुपाकर रखते रहें। आधी रात को घूमने में कई खतरे आखिर पुरुष को भी रहते हैं। आपको और मुझे भी अपनी बात कहते हुए तरह-तरह के खतरे होते हैं, तो क्या हम अपनी बात कहना छोड़ देते हैं !?

कुछ स्त्री-संगठनों ने आपके प्रसंग में जिस तरह के तर्क दिए मुझे जमे नहीं थे। लेकिन स्त्री-संगठनों की उपयोगिता से मैं इन्कार नहीं कर सकता। हो सकता है कुछ स्त्रियां अतिरेक में जाकर तो कुछ आर्थिक कारणों से कई बार ग़लत बातें कर देती हों मगर हमारे समाज में अभी तक वह माहौल नहीं बन पाया कि जहां स्त्री-संगठनों की प्रासंगिकता ही खत्म हो जाए। मैं तो आरक्षण के भी खिलाफ हूं पर मेरे नज़दीक यह बिलकुल साफ है कि बिना आरक्षण के इस समाज में दलितों-वंचितों की स्थिति कतई बदलने वाली नहीं थी। ओशो भी संगठन या संस्थाबाज़ी के खि़लाफ थे पर अंततः उन्हें भी एक कामचलाऊ जमावड़ा बनाना पड़ा।

35 और 24 में भारतेंदु और भगतसिंह काफी कुछ कह गये लेकिन सब कुछ नहीं कह गए। बहुत कुछ अभी कहने को भी बाकी है और दोहराए जाने को भी।

-संजय ग्रोवर

20 टिप्‍पणियां:

  1. सन्जय जी बहुत सटीक लिख हये बडे ही सलीके से.

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  2. सही बात है । कोई भी विचार अंतिम नहीं है ।
    सुधार की गुंजाइश हमेशा रखनी चाहिए ।

    किसी की किसी बात की तारीफ करने का मतलब ये नहीं है कि उसके हम शत प्रतिशत सहमत हो गये ।

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  3. प्यारे मित्र
    मैंने ‘अपनत्व के छिलके’ शब्द का प्रयोग नहीं किया था. मैंने लिखा था- ‘‘ आपके सुझाव के छिलके में सँजोये अपनत्व-रस का पान किया ’’. आपकी वह टिप्पणी असहमतियों के बावजूद बहुत प्रेमपूर्ण ढंग से लिखी गयी थी.
    हमें वैचारिक स्तर पर आपसे अपनत्व महसूस होता है. आज की टिप्पणी में भी वह अपनत्व है. आज आपके प्रतिसंवेदन की किसी भी बात से हमारी असहमति नहीं. आप ऐसे ही बनें रहें, और प्रगति करें , हमारी हार्दिक शुभकामनायें.

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  4. बहुत सारे विचारणीय मुद्दे उठाए हैं।
    घुघूती बासूती

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  5. बहुत कुछ अभी कहने को भी बाकी है और दोहराए जाने को भी।
    nice post

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  6. घुघुती बासूती जी, इस शब्द का अर्थ भी बता देतीं तो क्या ही अच्छा होता !

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  7. देखिए मटुकजूलीजी, आपने तो हमें प्रौढ़ और परिपक्व बता दिया। अब आप ही बताईए एक 20-25 बरस के बच्चे को इस तरह डराना ठीक है क्या ;-) ? दोस्त होकर भी आप हमारे रास्ते बंद किए दे रहे हैं। अभी तो हमें बहुत कुछ करना है।

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  8. बहुत बढ़िया लेख लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है!

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  9. please read my post at nepathyaleela.blogspot.com related to the incident occured at bhopal

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  10. पूरे आलेख में बहुत सी सुलझी बातें हुई हैं । आलेख का यह चिंतन ही चुरा कर ले जा रहा हूँ -
    "किसी भी लेखक या चिंतक का लिखा-कहा सब कुछ कैसे सही हो सकता है !?"

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  11. संजय जी ,
    पूरा सन्दर्भ लेख और उस पर टिप्पणियां नहीं पढ़ पाया अभी तक , पर सन्दर्भ कुछ समझ में आया.फिर भी आप ने अपनी बात सुन्दरता,सलीके और तत्वतः कही है .

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  12. बहुत अच्छा लेख । बधाई स्वीकारें।

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  13. @ मगर मां जब भी अच्छा या महंगा कुछ खातीं तो तब जब घर में कोई सामने न हो या रसोई के एक कोने में छुपकर खातीं थीं।

    भैया, कैसे इसकी मीमांशा कर पाए? इतनी सम्वेदना !

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  14. Girijesh bhai, puri tarah samajh nahiN paya aapki baat. Itna hi kahuNga ki hamaare yahaN ye bahut se gharoN ki kahaani rahi hogi. samvedna zyada ho aur pryaas kam (kaaran kuchh bhi ho sakte haiN) to kunthayeN aur badh jaati haiN.

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  15. संजय जी आप का लेख बहुत साफ सुथरा सीधा सरल और अच्छा है । बहुत कुछ नहीं कह पाऊँगी मैं इस विषय पर क्योंकि मूल बात से अनभिज्ञ हूँ । पर ये तो मैं भी कहूँगी की भाषा जितनी सरल हो उतना अच्छा क्योंकि ब्लॉग पर हम अपनी भाषा की निपुणता दिखाने नहीं आये हैं । हम तो अपने विचार और मन के भाव व्यक्त करना चाहते हैं। यहाँ हर कोई स्वतंत्र है अपनी बात कहने को और किसी की बात सुनाने को या न सुनने को।
    आभार

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  16. aapka lekh to dilchasp hai hi; us se bhi zyada dilchasp laga aapka parichaya.

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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