
उदयप्रकाश प्रकरण पर लगातार कुछ न कुछ छप रहा है। मैंने इस संदर्भ में ‘मोहल्ला’ पर एक पोस्ट लगाई थी। उसमें कुछ सवाल रखे थे जो लगातार मेरे मन में उठते रहे हैं। जैसे-जैसे यह बहस आगे बढ़ रही है सवाल भी गहरा रहे हैं, कुछ नए प्रश्न भी जुड़ रहे हैं। पहले मैं पिछले प्रश्नों को दोहरा दूं:-
1.किसी भी अखबार में उदय का काॅलम शुरु होता है तो हमेशा 2-3 किस्तों के बाद बंद क्यों हो जाता है ? क्या सारे के सारे कालमिस्ट उदय से बेहतर हैं ?
2.क्या हिंदी साहित्य-जगत में उदय, राजेंद्र यादव और उनके दस-पाँच मित्रों के अलावा सब दूध के धुले हैं ? कोई कभी किसी राजनेता के साथ किसी मंच पर नहीं जाता ? किसी ने कभी अपनी पत्नी/पति के अलावा अन्यत्र संबंध नहीं रखे ! क्या हिंदी के सारे दिग्गज पुरस्कारों/सम्मानों को ठोकर मारते आए हैं !
3.कौन है वो शूरवीर जिसने पत्नी-बच्चों-परिवार के नाम पर अपने समझौतों को जस्टीफाई न किया हो ?
4.पिछले कुछ सालों में उदयप्रकाश और राजेंद्र यादव के अलावा अन्य किन लेखकों से इस तरह की जवाब-तलबी की गयी है और किन वजुहात से ?
5. केदारनाथ जी के अलावा अशोक वाजपेई का ‘मुर्दों के साथ मरने को तैयार न होना’ और भारतीजी का ‘केडिया प्रकरण’ और प्रभाषजी का ‘सती-प्रसंग’ भी मुझे याद है। लेकिन इनमें से कोई भी उस दलित-प्रसंग से जुड़ा नहीं था जिसके द्वारा राजेंद्र यादव ने हिंदी जगत की ‘कोरी-सहानुभूतियों’ के मुखौटे उखाड़ फेंके हैं। दोस्ती से लेकर रोज़ी-रोटी तक बंद कर देने के लिए जैसी घेरेबंदी राजेंद्र यादव और उदय की की जाने लगती है, वैसी क्या उक्त में से किसी को ‘नसीब’ हुई होगी !
6.दलितों-वंचितों के लिए उदय जैसी पीढ़ा और विद्रोह उदय के विरोधिओं के लेखन में क्यों नहीं दिखाई पढ़ती ?
7.क्यों उनमें से कुछ पहला मौका मिलते ही मायावती और लालू यादव के लिए तू तड़ाक की भाषा पर उतर आते हैं ?
8.मोहल्ला. काम को उदयप्रकाश के तरह-तरह के रंगीन फोटो कौन उपलब्ध करा रहा है ?
9.कुछ लोगों के लिए ‘उदयप्रकाश, हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण लेखक‘ तब-तब ही क्यों हो जाते हैं जब-जब उनपर कुछ उछालने-फेंकने का मौका आता है। वैसे उदयप्रकाश उनके लिए जहां-तहां से सामग्री चुराकर लिखने वाले लेखक रहते हैं।
यहां से नए सवाल जो रोज़ाना की बहस को देखकर उठ रहे हैं:-
1.दरअसल किसने वामपंथ को विचारधारा की तरह नहीं मुखौटे और दुकान की तरह इस्तेमाल किया ?
2.अगर वामपंथ वर्ण-विशेष की बपौती नहीं था तो मायावती और बसपा के करीब आने में इतने साल क्यों लगे ? और दोबारा दूर जाने में इतना कम समय क्यों लगा ?
3.वैसे तो शत्रुता की बात ही अजीब लगती है मगर करनी ही थी तो ‘वर्गशत्रु’ के बजाय ‘वर्णशत्रु’ जैसे शब्द और सोच क्यों नहीं अपनाए गए ? आखिर हिंदुस्तान में ग़रीबी और विषमता का बड़ा कारक वर्ग था या वर्ण ?
4.आप जा-जाकर अपने जानकारों, रिश्तेदारों और आम जनता से पूछिए और फिर परसेंटेज़ निकालिए कि कितने प्रतिशत लोगों को पता है कि शहीद भगत सिंह नास्तिक थे !? अगर 100 में से 10 को भी पता हो तो बहुत समझिएगा। आखिर कौन लेगा इसकी जिम्मेदारी ? क्यों किसी की रुचि नहीं है कि लोग इस बात को जानें !?
5.जब बाबा रामदेव-वृंदा करात प्रकरण हुआ तो बाबा ने कहा ‘इनकी क्या है, ये तो भगवान को ही नहीं मानते’ तो जवाब में कम्युनिस्टों ने क्यों नहीं छाती ठोक कर कहा कि हां, हैं हम नास्तिक, और नास्तिक होना और होकर रहना बाबा होकर रहने से कई गुना ज़्यादा मुश्किल काम है।
6.व्यक्तिगत और नैतिक तौर पर मैं पूरी तरह से हिमांशु सभरवाल के साथ हूं पर यह देखकर अजीब भी लगता है और दुख भी होता है कि ग़रीबों-मजदूरों की हमदर्द कहलाने वाली पार्टी और उनसे जुड़े लोग अपने आंदोलनों में (शायद) सिर्फ फेसबुक और पेज़ थ्री से जुड़े लोगों को साथ लेते हैं। अपने नारों में नीतिश कटारा, मट्टू और जैसिका लाल के अलावा चैथा नाम नहीं इस्तेमाल करते !? ऐसे वक्त पर ऐसी बात कहते हुए मैं हिमांशु सभरवाल, नीलम कटारा व इन मामलों से संबद्ध सभी लोगों से हाथ जोड़कर माफी चाहूंगा मगर यह बात कहना उनकी लड़ाई के भी हक़ में ही है।
7.कुछ लोग कह रहे हैं कि भाजपा से फायदे ले लिए तो क्या, मंच शेयर करके किसी योदी-मोगी से पुरस्कार तो नहीं लिया ! अब चूंकि यह टेंªड पुराना हो गया तो इस पर क्यों कोई एतराज़ करे ! तो ठीक है भय्या करिए सेंटिग कि योदी-मोगी से कि देखिए पुरस्कार आपसे लेने में तो हमें कोई एतराज़ था ही नहीं पर मंच पर आप न आईए। मंच पर हमें राधामोहन किसान के हाथ पुरस्कार दिलवा दीजिए जिससे कि हमारा भी नाम रह जाएगा, आपका तो रहेगा ही क्यों कि पता तो सबको रहता ही है कि पुरस्कार का उद्गम कहां से हुआ है, साथ ही यह भी रहेगा कि देखिए आप ग़रीब किसान का कितना मान करते हैं। और राधामोहन तो मंच पर आने से खुश हो जाएगा, हाथ कुछ लगे न लगे।
8. क्यों हम पुरस्कारों के पीछे इतना पगलाए रहते हैं !? जब ये सारे पुरस्कार/कमेटियां/समितियां/अगैरह/वगैरह इसी धरती के इन्हीं इंसानों द्वारा बनाई जाती हैं जो कि गलतियों का पुतला है और राजनीतियों का ढेर है तो कोई भी पुरस्कार निर्विवाद कैसे हो सकता है ? भारतीय फिल्म/पुरस्कार समारोहों में जाने से बचने वाले आमिर खान क्यों आस्कर के लिए लाबिंग में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं ? कबीर, बुद्ध, एकलव्य या गैलीलियो को पुरस्कार नहीं मिलता था तो वे भी इनफीरियरटी काॅम्पलैक्स से ग्रस्त हो जाते थे क्या ? क्या इतिहास उन्हें भूल गया या उनका किया महत्वहीन हो गया ? क्या यह सच नहीं कि लगभग हर पुरस्कार देने वाली संस्था के पीछे कोई न कोई राजनीतिक दल, राजनीति, विचारधारा या पूर्वाग्रह मौजूद रहते हैं ? फिर इनके फैसले निष्पक्ष कैसे हो सकते हैं ?
इन बातों पर विचार करें। आगे बात करने का फायदा है बशत्र्ते कि हम सब अपने अंदर झांकने को, किसी नतीजे पर पहुंचने को तैय्यार हों,। सिर्फ गाली-गलौज, पुराने हिसाब-किताब करने हों, हार-जीत के खेल खेलने हों तो सादर नमस्ते।
[जहां तक मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, जो लोग आत्मालोचना करते हैं, माफियां मांगते हैं, हमेशा घाटे में रहते हैं। सारे दोष उनपर मढ़ दिए जाते हैं। (उनमें से कुछेक को सौ-पचास साल बाद किसी गैलीलियो की तरह मान्यता मिल जाए, अलग बात है।) दोष मढ़ने वाले ज़्यादातर वे लोग होते हैं जिन्हें अपने बारे में न तो कुछ ठीक से पता होता है न वे पता करना चाहते हैं न उनमें हिम्मत होती है। उनके लिए राहत और जस्टीफिकेशन की सबसे बड़ी वजह यही होती है कि जिस समाज में वे रह रहे होते हैं उसमें ज़्यादातर लोग उन्हीं की तरह होते हैं। अन्यथा बिना कुण्ठाओं, कमियों, कमज़ोरियों के भी दुनिया में कोई आदमी, विचारधारा, सम्प्रदाय आदि हो सकते हैं, यह सोचना भी मुझे तो हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण और अहंकार का द्योतक ही लगता है।]
1.किसी भी अखबार में उदय का काॅलम शुरु होता है तो हमेशा 2-3 किस्तों के बाद बंद क्यों हो जाता है ? क्या सारे के सारे कालमिस्ट उदय से बेहतर हैं ?
2.क्या हिंदी साहित्य-जगत में उदय, राजेंद्र यादव और उनके दस-पाँच मित्रों के अलावा सब दूध के धुले हैं ? कोई कभी किसी राजनेता के साथ किसी मंच पर नहीं जाता ? किसी ने कभी अपनी पत्नी/पति के अलावा अन्यत्र संबंध नहीं रखे ! क्या हिंदी के सारे दिग्गज पुरस्कारों/सम्मानों को ठोकर मारते आए हैं !
3.कौन है वो शूरवीर जिसने पत्नी-बच्चों-परिवार के नाम पर अपने समझौतों को जस्टीफाई न किया हो ?
4.पिछले कुछ सालों में उदयप्रकाश और राजेंद्र यादव के अलावा अन्य किन लेखकों से इस तरह की जवाब-तलबी की गयी है और किन वजुहात से ?
5. केदारनाथ जी के अलावा अशोक वाजपेई का ‘मुर्दों के साथ मरने को तैयार न होना’ और भारतीजी का ‘केडिया प्रकरण’ और प्रभाषजी का ‘सती-प्रसंग’ भी मुझे याद है। लेकिन इनमें से कोई भी उस दलित-प्रसंग से जुड़ा नहीं था जिसके द्वारा राजेंद्र यादव ने हिंदी जगत की ‘कोरी-सहानुभूतियों’ के मुखौटे उखाड़ फेंके हैं। दोस्ती से लेकर रोज़ी-रोटी तक बंद कर देने के लिए जैसी घेरेबंदी राजेंद्र यादव और उदय की की जाने लगती है, वैसी क्या उक्त में से किसी को ‘नसीब’ हुई होगी !
6.दलितों-वंचितों के लिए उदय जैसी पीढ़ा और विद्रोह उदय के विरोधिओं के लेखन में क्यों नहीं दिखाई पढ़ती ?
7.क्यों उनमें से कुछ पहला मौका मिलते ही मायावती और लालू यादव के लिए तू तड़ाक की भाषा पर उतर आते हैं ?
8.मोहल्ला. काम को उदयप्रकाश के तरह-तरह के रंगीन फोटो कौन उपलब्ध करा रहा है ?
9.कुछ लोगों के लिए ‘उदयप्रकाश, हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण लेखक‘ तब-तब ही क्यों हो जाते हैं जब-जब उनपर कुछ उछालने-फेंकने का मौका आता है। वैसे उदयप्रकाश उनके लिए जहां-तहां से सामग्री चुराकर लिखने वाले लेखक रहते हैं।
यहां से नए सवाल जो रोज़ाना की बहस को देखकर उठ रहे हैं:-
1.दरअसल किसने वामपंथ को विचारधारा की तरह नहीं मुखौटे और दुकान की तरह इस्तेमाल किया ?
2.अगर वामपंथ वर्ण-विशेष की बपौती नहीं था तो मायावती और बसपा के करीब आने में इतने साल क्यों लगे ? और दोबारा दूर जाने में इतना कम समय क्यों लगा ?
3.वैसे तो शत्रुता की बात ही अजीब लगती है मगर करनी ही थी तो ‘वर्गशत्रु’ के बजाय ‘वर्णशत्रु’ जैसे शब्द और सोच क्यों नहीं अपनाए गए ? आखिर हिंदुस्तान में ग़रीबी और विषमता का बड़ा कारक वर्ग था या वर्ण ?
4.आप जा-जाकर अपने जानकारों, रिश्तेदारों और आम जनता से पूछिए और फिर परसेंटेज़ निकालिए कि कितने प्रतिशत लोगों को पता है कि शहीद भगत सिंह नास्तिक थे !? अगर 100 में से 10 को भी पता हो तो बहुत समझिएगा। आखिर कौन लेगा इसकी जिम्मेदारी ? क्यों किसी की रुचि नहीं है कि लोग इस बात को जानें !?
5.जब बाबा रामदेव-वृंदा करात प्रकरण हुआ तो बाबा ने कहा ‘इनकी क्या है, ये तो भगवान को ही नहीं मानते’ तो जवाब में कम्युनिस्टों ने क्यों नहीं छाती ठोक कर कहा कि हां, हैं हम नास्तिक, और नास्तिक होना और होकर रहना बाबा होकर रहने से कई गुना ज़्यादा मुश्किल काम है।
6.व्यक्तिगत और नैतिक तौर पर मैं पूरी तरह से हिमांशु सभरवाल के साथ हूं पर यह देखकर अजीब भी लगता है और दुख भी होता है कि ग़रीबों-मजदूरों की हमदर्द कहलाने वाली पार्टी और उनसे जुड़े लोग अपने आंदोलनों में (शायद) सिर्फ फेसबुक और पेज़ थ्री से जुड़े लोगों को साथ लेते हैं। अपने नारों में नीतिश कटारा, मट्टू और जैसिका लाल के अलावा चैथा नाम नहीं इस्तेमाल करते !? ऐसे वक्त पर ऐसी बात कहते हुए मैं हिमांशु सभरवाल, नीलम कटारा व इन मामलों से संबद्ध सभी लोगों से हाथ जोड़कर माफी चाहूंगा मगर यह बात कहना उनकी लड़ाई के भी हक़ में ही है।
7.कुछ लोग कह रहे हैं कि भाजपा से फायदे ले लिए तो क्या, मंच शेयर करके किसी योदी-मोगी से पुरस्कार तो नहीं लिया ! अब चूंकि यह टेंªड पुराना हो गया तो इस पर क्यों कोई एतराज़ करे ! तो ठीक है भय्या करिए सेंटिग कि योदी-मोगी से कि देखिए पुरस्कार आपसे लेने में तो हमें कोई एतराज़ था ही नहीं पर मंच पर आप न आईए। मंच पर हमें राधामोहन किसान के हाथ पुरस्कार दिलवा दीजिए जिससे कि हमारा भी नाम रह जाएगा, आपका तो रहेगा ही क्यों कि पता तो सबको रहता ही है कि पुरस्कार का उद्गम कहां से हुआ है, साथ ही यह भी रहेगा कि देखिए आप ग़रीब किसान का कितना मान करते हैं। और राधामोहन तो मंच पर आने से खुश हो जाएगा, हाथ कुछ लगे न लगे।
8. क्यों हम पुरस्कारों के पीछे इतना पगलाए रहते हैं !? जब ये सारे पुरस्कार/कमेटियां/समितियां/अगैरह/वगैरह इसी धरती के इन्हीं इंसानों द्वारा बनाई जाती हैं जो कि गलतियों का पुतला है और राजनीतियों का ढेर है तो कोई भी पुरस्कार निर्विवाद कैसे हो सकता है ? भारतीय फिल्म/पुरस्कार समारोहों में जाने से बचने वाले आमिर खान क्यों आस्कर के लिए लाबिंग में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं ? कबीर, बुद्ध, एकलव्य या गैलीलियो को पुरस्कार नहीं मिलता था तो वे भी इनफीरियरटी काॅम्पलैक्स से ग्रस्त हो जाते थे क्या ? क्या इतिहास उन्हें भूल गया या उनका किया महत्वहीन हो गया ? क्या यह सच नहीं कि लगभग हर पुरस्कार देने वाली संस्था के पीछे कोई न कोई राजनीतिक दल, राजनीति, विचारधारा या पूर्वाग्रह मौजूद रहते हैं ? फिर इनके फैसले निष्पक्ष कैसे हो सकते हैं ?
इन बातों पर विचार करें। आगे बात करने का फायदा है बशत्र्ते कि हम सब अपने अंदर झांकने को, किसी नतीजे पर पहुंचने को तैय्यार हों,। सिर्फ गाली-गलौज, पुराने हिसाब-किताब करने हों, हार-जीत के खेल खेलने हों तो सादर नमस्ते।
[जहां तक मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, जो लोग आत्मालोचना करते हैं, माफियां मांगते हैं, हमेशा घाटे में रहते हैं। सारे दोष उनपर मढ़ दिए जाते हैं। (उनमें से कुछेक को सौ-पचास साल बाद किसी गैलीलियो की तरह मान्यता मिल जाए, अलग बात है।) दोष मढ़ने वाले ज़्यादातर वे लोग होते हैं जिन्हें अपने बारे में न तो कुछ ठीक से पता होता है न वे पता करना चाहते हैं न उनमें हिम्मत होती है। उनके लिए राहत और जस्टीफिकेशन की सबसे बड़ी वजह यही होती है कि जिस समाज में वे रह रहे होते हैं उसमें ज़्यादातर लोग उन्हीं की तरह होते हैं। अन्यथा बिना कुण्ठाओं, कमियों, कमज़ोरियों के भी दुनिया में कोई आदमी, विचारधारा, सम्प्रदाय आदि हो सकते हैं, यह सोचना भी मुझे तो हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण और अहंकार का द्योतक ही लगता है।]