

मित्रों, उम्मेद सिंह जी नाराज़ हैं कि जिन गांधीजी ने पाकिस्तान बनने दिया(हालांकि मैंने तो यह सुना है कि गांधी जी ने कहा था कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा) उनका ज़िक्र मैंने ऐसे वक़्त पर क्योंकर किया। या शायद ज़िक्र ही क्यों किया। बहुत से मित्रों को गांधीजी से तरह-तरह की नाराज़गियां हैं। मैं उनकी नाराज़गियों का सम्मान करता हूँ। मगर सवालचंद के मन को कई तरह के सवाल मथ रहे हैं। मैं उनका भी सम्मान करता हूँ। पहला सवाल आता है कि जिन लोगों का ‘‘मुस्लिम-प्रेम’’( और अब ‘‘क्रिश्चियन प्रेम’’ भी ) सारा देश देखता आ रहा है, वे लोग, अगर पाकिस्तान न बनता तो, मुस्लिमों को कहाँ रखते और किस हाल में रखते। कोई मानवतावादी पाकिस्तान बनने पर आपत्ति करे या दुखी हो तो समझ में भी आता है। मगर हर दूसरे धर्म को बल्कि अपने ही धर्म के लोगों को अछूत बताकर उनसे वहशियाना व्यवहार करने वाले, अपने ही देश के लोगों को बिहारी कहकर भगाने वाले लोगों का ऐसा दुख, स्वांग ही ज़्यादा लगता है। वे कौन लोग थे जो मुसलमानों के साथ बैठकर शायरी भी करते थे, उनसे उर्दू भी सीखते थे और अपने घरों में उनके खाने के बर्तन अलग भी रखते थे। जो दोस्तों के साथ ऐसी छुआछूत बरतते हो वो दुश्मनों के साथ क्या करते हांेगे। हाँ, यह बात ज़रुर सोचने की है कि वे सिर्फ़ हिन्दू ही थे या हिन्दूओं में से भी कोई वर्ग-विशेष था!
दूसरा सवाल आता है कि श्री गोडसेजी ने गाँधीजी को ही गोली क्यों मारी ? क्या गांधीजी का किया उससे भी बुरा था जो अंग्रेज कर रहे थे !? आदरणीय श्री गोडसेजी ने किसी अंग्रेज को गोली क्यों नहीं मारी? सालों-साल वे देश के आज़ाद होने का इंतज़ार करते रहे।क्या गोडसेजी को पहले से पता था कि एक दिन गांधी जी पाकिस्तान ‘बनाएंगे’ और तभी मैं उनको गोली मारुंगा। एक दिन जब देश आज़ाद हो गया तो वे गए और एक निहत्थे बूढे़ को जिसके आस-पास कोई सिक्योरिटी-फ़ोर्स भी नहीं हुआ करती थी, झोले में से पिस्तौल निकालकर गोली मार दी। क्या इसी प्रकार की बहादुरी की हमें आदत पड़ चुकी है ! अभी-अभी हमने देखा कि अपने ही देश के, निहत्थे, कमज़ोर और ग़रीब बिहारियों को आए दिन पीटने वाले नए और पुराने शिवसैनिक, विदेशी आतंकियों के मृत्यु-तांडव के वक्त, बजाय कुछ करने के, किस तरह मुम्बई की सड़कों से अन्तध्र्यान हो गए। आखिरकार तो, हमेशा की ही तरह हमारे जांबाज़ सिपाहियों ने ही देश को बचाया।
अपनी प्रतिक्रिया में आपने गांधीजी के संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष शब्द का इस्तेमाल जिस तरह से किया है वह एक बहुत बड़ी राहत की बात है। अन्यथा कट्टरपंथी तो धर्मनिरपेक्ष, नास्तिक और मानवाधिकार जैसे शब्दों का इस्तेमाल लगभग गाली की तरह करते हैं। सवालचंद पूछता है कि जब लौह-पुरुष श्री आडवाणीजी ने श्री जिन्ना को ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ कहा तो उनके यहां इतना वबाल क्यों मच गया ! उन्होने श्री जिन्ना की तारीफ़ की थी या बुराई ?
मित्रों, सवाल बहुत से हैं। सवालचंद धीरे-धीरे उन्हें आपके सामने रखेगा। फ़िलहाल वक़्त एक होकर कुछ करने का है। लेकिन डर और आक्रोश हमारे विवेक को इतना भी न हर लें कि हम फ़िर वही सब उपचार करने लगें जिनसे बीमारी पैदा हुई थी। याकि बीमारी को ही स्वास्थ्य न समझने लगें।
अंत में 30-11-2008 के रा. सहारा में विभांशु दिव्याल के काॅलम ‘समाज’ से आखिर के दो पैरा आपके साथ बांटना चाहूंगा (ऊपर दाएं कोने में देखें)
अपनी एक ग़ज़ल भी तो याद आती है:-
किस आसमां में उड़ता और किस ज़मीं पे सोता/
उम्मीद नहीं होती तो मैं भी नहीं होता //
कुदरत ने जानी होती गर आदमी की फितरत/
आकाश जहाँ पर है पाताल वहीं होता //
इस मुल्क में अमन की कुछ ऐसी कहानी है/
दूसरा सवाल आता है कि श्री गोडसेजी ने गाँधीजी को ही गोली क्यों मारी ? क्या गांधीजी का किया उससे भी बुरा था जो अंग्रेज कर रहे थे !? आदरणीय श्री गोडसेजी ने किसी अंग्रेज को गोली क्यों नहीं मारी? सालों-साल वे देश के आज़ाद होने का इंतज़ार करते रहे।क्या गोडसेजी को पहले से पता था कि एक दिन गांधी जी पाकिस्तान ‘बनाएंगे’ और तभी मैं उनको गोली मारुंगा। एक दिन जब देश आज़ाद हो गया तो वे गए और एक निहत्थे बूढे़ को जिसके आस-पास कोई सिक्योरिटी-फ़ोर्स भी नहीं हुआ करती थी, झोले में से पिस्तौल निकालकर गोली मार दी। क्या इसी प्रकार की बहादुरी की हमें आदत पड़ चुकी है ! अभी-अभी हमने देखा कि अपने ही देश के, निहत्थे, कमज़ोर और ग़रीब बिहारियों को आए दिन पीटने वाले नए और पुराने शिवसैनिक, विदेशी आतंकियों के मृत्यु-तांडव के वक्त, बजाय कुछ करने के, किस तरह मुम्बई की सड़कों से अन्तध्र्यान हो गए। आखिरकार तो, हमेशा की ही तरह हमारे जांबाज़ सिपाहियों ने ही देश को बचाया।
अपनी प्रतिक्रिया में आपने गांधीजी के संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष शब्द का इस्तेमाल जिस तरह से किया है वह एक बहुत बड़ी राहत की बात है। अन्यथा कट्टरपंथी तो धर्मनिरपेक्ष, नास्तिक और मानवाधिकार जैसे शब्दों का इस्तेमाल लगभग गाली की तरह करते हैं। सवालचंद पूछता है कि जब लौह-पुरुष श्री आडवाणीजी ने श्री जिन्ना को ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ कहा तो उनके यहां इतना वबाल क्यों मच गया ! उन्होने श्री जिन्ना की तारीफ़ की थी या बुराई ?
मित्रों, सवाल बहुत से हैं। सवालचंद धीरे-धीरे उन्हें आपके सामने रखेगा। फ़िलहाल वक़्त एक होकर कुछ करने का है। लेकिन डर और आक्रोश हमारे विवेक को इतना भी न हर लें कि हम फ़िर वही सब उपचार करने लगें जिनसे बीमारी पैदा हुई थी। याकि बीमारी को ही स्वास्थ्य न समझने लगें।
अंत में 30-11-2008 के रा. सहारा में विभांशु दिव्याल के काॅलम ‘समाज’ से आखिर के दो पैरा आपके साथ बांटना चाहूंगा (ऊपर दाएं कोने में देखें)
अपनी एक ग़ज़ल भी तो याद आती है:-
किस आसमां में उड़ता और किस ज़मीं पे सोता/
उम्मीद नहीं होती तो मैं भी नहीं होता //
कुदरत ने जानी होती गर आदमी की फितरत/
आकाश जहाँ पर है पाताल वहीं होता //
इस मुल्क में अमन की कुछ ऐसी कहानी है/
अन्जाम तो है जिसमें उन्वान नहीं होता//
गर हमने ठीक तरह कुछ काम किए होते /
तो काम उनका इतना आसान नहीं होता//
गर मैं भी उनकी तरह चेहरे बदल के हंसता/
तो मुझपे बेरुखी का इल्ज़ाम नहीं होता//
हिन्दू हैं मुसलमां हैं सिख और फिरंग सब हैं/