गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

आंदोलनों और युवाओं पर बेमन से एक व्यंग्य



आपने कभी आंदोलन किया ? करना चाहिए। आज-कल आंदोलन न करने वालों को समाज अच्छी नज़र से नहीं देखता। लोग मानने लगे हैं कि आंदोलन करने से समाज बदलता है। देश बदलता है। कहते हैं कि आज का युवा भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। हमारे युवा आज भी बहुत अनुशासित और सुसंस्कृत हैं। मुझे भी बात जंची। मैंने देखा कि आंदोलन को लेकर युवा एक साल तक वही दस-पांच सवाल नेताओं से पूछते रहे जो 10-5 आंदोलनकारी या 100-50 मीडियाकर्मी पूछ रहे थे। युवा इतने अनुशासित और संस्कार-बंद हैं कि उनके पास अपने सवाल तक नहीं हैं। सबसे ज़्यादा आशा उन युवाओं को देखकर बंधती थी जो बिना ड्राफ्ट पढ़े ही ‘मैं भी फ़लाना, तू भी ढिकाना’ मार्का नारों पर गला फ़ाड़ रहे थे। ऐसे ही युवा हर आंदोलन की जान होते हैं। सोचने-समझने वाले लोग आंदोलनों की गति को धीमा करते हैं। ले-देकर इन युवाओं के पास एक ही सवाल था जो कि ख़ुदबख़ुद जवाब भी था-लोकपाल कब आएगा ? मैं समझता था कि चमत्कार की आशा में सिर्फ़ बुज़ुर्ग और अनपढ़ लोग ही मरते हैं पर मैं ग़लत साबित हुआ। यहां आंदोलनकारी जिस तरह के चमत्कार दिखा रहे थे उन्हें निराकार और अंधविश्वासपूरक चमत्कार कहा जा सकता है। आंदोलन के केंद्रीय पात्र एक बुज़ुर्ग सज्जन बीच-बीच में दोहराते थे, ‘मेरे पीछे भगवान खड़ा है।’ अगर  वहां कोई सोचने वाला होता तो सोचता कि इतने सालों से भगवान किसके पीछे खड़ा था! अभी फिर भगवान तुम्हारे पीछे से हट गया तो क्या होगा!
बहरहाल आंदोलन-प्रमुख का कहना था कि युवाओं से उन्हें शक्ति मिलती है। इधर युवाओं को भी उनसे शक्ति मिल रही थी। यह म्युचुअल अंडरस्टैडिंग का मामला है, इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है। मेरे साथ समस्या यह है कि मैं आंकड़ों को देखकर नहीं आदमी को देखकर राय बनाता हूं। आंदोलनकारियों के आंकड़ों को देखें तो 121 करोड़ लोग भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ हैं (जो कि अगली बार 242 करोड़ भी हो सकते हैं) और एक-एक आदमी को देखें तो लगता है कि सारे भारत की खुदाई कराई जाए तो ज़रुर 10-5 छंटाक ईमानदारी एकत्र की जा सकती है। इनके और लेटेस्ट आंकड़े देखें तो लगता है कि इस देश में 15 आईपीऐसों और दस आरटीआई ऐक्टीविस्टों के अलावा और कोई भ्रष्टाचार से लड़ते हुए मरा ही नहीं। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए इन महाशयों की हट्टी पर रजिस्ट्रेशन और मीडिया से मुंहदिखाई लेना ज़रुरी है। वरना आपकी लड़ाई सनक है, पागलपन है। युवाओं की हरकतें देखें तो लगता है कि ख़ुद मेरे ही अंदर ईमानदारी पहचानने की तमीज़ ख़त्म हो गयी है। एक युवा सड़क पर झाड़ की आड़ में मूत रहा है। मोबाइल बजता है। युवा तुरंत कहता है, ‘अभी बात करता हूं, ज़रुरी मीटिंग में हूं।’ युवा कहीं भी हो अकसर मीटिंग में होता है। बदलाव जब पूरा आ जाएगा तो वह शायद यह कहेगा, ‘‘जस्ट वेट, एक ज़रुरी आंदोलन में हूं।’’ इधर कई ईमानदार लड़कियां भी एक साथ दस-दस लड़कों को अटकाये रखतीं हैं साथ-साथ प्री-शादी करवाचौथ भी सेलिब्रेट करती रहतीं हैं। धर्म और ईमानदारी का यह अद्भुत कंबीनेशन है।
युवाओं की ईमानदारी में इन दिनों काफ़ी विविधता आ गयी है। लोन ले-लेकर ग़ैर-ज़रुरी सामान ख़रीदना, दुकानदारों के पैसे मारने की ताक में रहना, ट्रैफ़िक कांस्टेबल को जुर्माना देने के बजाय कैश थमाना जैसी ईमानदारी की पचासियों मिसालें रोज़ क़ायम हो रहीं हैं। हमारे युवाओं के अनुसार उनकी इन सब ईमानदारियों के लिए राजनेता जिम्मेदार हैं। यह निष्कर्ष ईमानदारी के कौन-से फ़ॉर्मूले से निकला है यह तो पता नहीं लेकिन इससे एक बात और पक्की होती है कि हमारा युवा ईमानदार के साथ-साथ ज़िम्मेदार भी कितना है! इस तरह के ईमानदार युवाओं से इस तरह के ईमानदार आंदोलनों को एक ख़ास क़िस्म की उम्मीदें बंधतीं होंगीं, बंधनी भी चाहिए।  
मैंने जब आंदोलन की पहली इनिंग्स की ओपनिंग देखी तो यही सोच-सोचकर पगलाता रहा कि कौन-सी महाशक्ति ने किस रास्ते से कैसा इंजेक्शन दे दिया है कि रातों-रात सारा मीडिया नहा-धोकर ईमानदार हो गया!? उसी इंजेक्शन का एक-एक डोज़ चुपके-से नेता और जनता को भी दिलवा दो, सारा लफ़ड़ा ही ख़त्म। काहे इतना नाच-गाना करना जिसे आंदोलन का नाम देना पड़े। कई बार तो लगा कि यह हिंदी और अंग्रेजी में साथ-साथ बनने वाली देश की पहली ऐसी फ़ीचर फ़िल्म है जिसकी शूटिंग में सारा देश इनवाइटेड है। इसीके समानांतर मीडिया द्वारा प्रज्वलित एक और बाबा एक और इंजेक्शन लेकर घूम रहे हैं। उनका नुस्ख़ा है कि विदेशों में जमा काला धन जब तक देश में वापसी नहीं करेगा, देश अपनी टांगों पर खड़ा नहीं हो पाएगा। इनकी और इनके भक्तों की करतूतें और आंकड़े देखें तो लगता है कि इन्हें भी उन्हीं विदेशी बैंकों की उन्हीं ब्रांचों में जमा करा देना चाहिए। जोड़ी अच्छी जमेगी।                                              
मैं बार-बार ईमानदारी को देखता हूं फ़िर युवाओं को देखता हूं फिर आंदोलनों को देखता हूं।  मुझे या तो ईमानदारी को लेकर अपनी सोच बदलनी चाहिए या फिर युवाओं को लेकर। युवाओं को देखकर मुझे समझ में आता है कि ईमानदारी का मतलब है जिम में जाना, अच्छे ब्रांडेड कपड़े पहनना, घर को सुंदर-साफ़-सुथरा रखना भले वह दूसरे की ज़मीन हथिया कर बनाया गया हो, अपना कूड़ा दूसरों के घर पर फ़ेंक देना, आंदोलनों में जाकर नारे लगाना, मुंह पर टैटू बनवाना, टी वी पर दिखने के लिए मुंह पर ईमानदारी की लिपस्टिक मल लेना और बालों को मीडिया-प्रदत्त क्रीम लगाकर विद्रोही कांटो जैसा खड़ा कर लेना, अपनी रचना छपवाने के लिए कुछ भी या सब कुछ या जो भी करने के लिए तैयार रहना (रचना पढ़ो तो लगे इससे बड़ा विद्रोही कोई नहीं है और छपाने के तौर-तरीके देखो तो लगे कि इतना बढ़िया छछूंदर कोई पैदा ही नहीं हुआ) और आंदोलनकारियों द्वारा बांटे गए सवाल पूछना और अपने को छोड़कर दूसरों ख़ासकर नेताओं से ईमानदारी की उम्मीद रखना और लोकपाल नामक किसी चमत्कारी जड़ी-बूटी को हर बीमारी की दवा मानना। लोकपाल कब आएगा, लोकपाल कब आएगा, ऐसा रटते रहना। कोई इस देश के आदमी से पूछे कि बेईमानी शुरु करने के लिए भी तुमने किसी क़ानून का इंतज़ार किया था जो ईमानदारी शुरु करने के लिए अहिल्या की तरह लोकपाल की राह में पलक-पांवड़े बिछाए बैठे हो !? माफ़ कीजिएगा (या नहीं कीजिएगा तो मत कीजिएगा) ये निष्कर्ष मैंने बिना किसी सर्वे के ही निकाल लिए हैं। बिना सर्वे के ही मुझे यह भी मालूम है कि सर्वे हुआ तो युवा वो तो बोलेगा नहीं जो वो ख़ुद करता है। ईमानदारी कोई सैक्स तो है नहीं कि युवा अति उत्साह में ही थोड़ा-बहुत सच बोल बैठे। इस तरह मैं मान लेता हं कि युवा ईमानदार है। क्यों कि सारा मामला ही मानने और न मानने पर टिका है। जैसे कई लोग मानते हैं कि हवन से वातावरण शुद्ध होता है उसी तरह बहुत से मानते हैं कि आंदोलनों से समाज बदलता है। हमारे यहां भी कुछेक बार हवन हुआ। उसके बाद भी घर पर चूहों, कॉकरोचों, मकड़ियों की संख्या ज्यों की त्यों रही। पर चूंकि हमने मान रक्खा था कि शुद्धि होती है इसलिए हमें चूहे, कॉकरोंच और छिपकलियां भी खिले-खिले और धुले-धुले से लगने लगे। वैसे भी आज-कल पॉज़ीटिव थिंकिंग पर बड़ा ज़ोर है। ऐसे-ऐसे युवा बाबा और बाबा युवा मार्केट में आ गए हैं जो फुटपाथ पर मरते नंगे आदमी से भी पॉज़ीटिव थिंकिंग करा लें।
कई लोग यह भी कहते हैं कि आंदोलनों से आदमी के भीतर की आग बनी रहती है। बात में दम है। मैं जब किसी ईमानदारी के आंदोलन में उन बेईमानों और चोट्टों जो हमेशा ईमानदारों का मज़ाक उड़ाते हैं, को बरातियों की तरह नाचते देखता हूं तो मेरे तन-बदन में आग लग जाती है। आग क्या मुझे तो मिर्ची भी लगती है। सुनते हैं हर आंदोलन कुछ न कुछ देकर जाता है। यह आंदोलन भी, एक नामवर-सुसभ्य आलोचक की भाषा से काम लूं तो, हमें कुछ लौंडे-लौंडिया देकर गया। जितना टाइम इलैक्ट्रॉनिक मीडिया बाबा लोगों को अच्छी-ख़ासी रक़म लेकर देता है, लौंडों को फ्री में दे रहा है। अब बाबा और लौंडे मिलकर प्रवचन कर रहे हैं।
आलोचक से याद आया कि इनमें से कई आज भी धोती पहनते हैं। इसमें पाजामा या पतलूून से कई गुना ज़्यादा कपड़ा लगता होगा मगर फिर भी यह टांगों को पूरा नहीं ढंक पाती। लेकिन इसमें परंपरा, सभ्यता, संस्कृति वगैरह बची रहती हैं।
बात वही है कि सारी बात मानने, न मानने पर टिकी है।


-संजय ग्रोवर

5 टिप्‍पणियां:

  1. Behtareen... Imaandaari ka naya path hai...aaj ke yuvaoun ke paas aur padhane wale bhi imaandaari ki partimurti hain......

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  2. मैं समझता था कि चमत्कार की आशा में सिर्फ़ बुज़ुर्ग और अनपढ़ लोग ही मरते हैं पर मैं ग़लत साबित हुआ।...हा हा!! सटीक!!!

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  3. चमत्कार की आशा अब फास्ट फ़ूड जनरेशन को ज्यादे है क्योंकि हमें सब कुछ बना बनाया फटाफट चाहिए..
    वो भी बिना किसी लागत के..
    ईमानदारी का यही इंजेक्शन मीडिया आज कल भी डोज लिए हुए है..
    चार रोज पहले तक जिस निर्मल बाबा की वजह से उसे trp मिल रही थी...जिनके समागम के एपीसोड़े पर एपीसोड़े दिखाए जा रहे थे...
    अब उनपर इन चैनलों की कृपाएं कम हो गईं...हैं...
    एक ब एक बाबा दो नम्बरी हो गए हैं...

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  4. Bahut badhiya. sahi likha hai dusron se apeksha ki jaati hai par khud ko us daayare se baahar rakha jaata raha hai.
    Uske baad "main karun to saala ....." gaana baja do.

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