मैं हिंदू के घर गया
कहा दीवाली की बधाई
दोनों ने मुस्कान बिखेरी
मैं मुसलमान के घर गया
कहा नया साल मुबारक़
दोनों हंसे
मैं ईसाई के घर गया
कहा मैरी क्रिसमस
दोनों ने स्माइल दी
मैं इंसान के पास गया
काफ़ी देर ढूंढना पड़ा मुझको
वह बेघर था
त्यौहार तो छोड़िए
तारीख़ तक याद न थी उसे
दोनों काफ़ी देर तक
रोते रहे
-संजय ग्रोवर
कहा दीवाली की बधाई
दोनों ने मुस्कान बिखेरी
मैं मुसलमान के घर गया
कहा नया साल मुबारक़
दोनों हंसे
मैं ईसाई के घर गया
कहा मैरी क्रिसमस
दोनों ने स्माइल दी
मैं इंसान के पास गया
काफ़ी देर ढूंढना पड़ा मुझको
वह बेघर था
त्यौहार तो छोड़िए
तारीख़ तक याद न थी उसे
दोनों काफ़ी देर तक
रोते रहे
-संजय ग्रोवर
ufff!! sacg ne sanjay jee insaniyat marr chuki hai...:)
जवाब देंहटाएंnav varsh ki shubkamnayen..
बेचारा आज कल कहां मिलता हे जी?बहुत सुंदर कविता धन्यवाद
जवाब देंहटाएंमैं इंसान के पास गया
जवाब देंहटाएंकाफ़ी देर ढूंढना पड़ा मुझको
वह बेघर था
त्यौहार तो छोड़िए
तारीख़ तक याद न थी उसे
दोनों काफ़ी देर तक
रोते रहे..
वाकई दिल को छु जाने वाली लाइने ........
नहीं बोल रहा जी मैं हैप्पी न्यू ईअर :)
जवाब देंहटाएंसबको एक साथ इकट्ठा कर लीजिए, मुस्कान बनी रहेगी, हमेशा.
जवाब देंहटाएंसाहब जी मैनू तो बस इन्ना दस दयो की ये इन्सान अपना घर बनाता क्यों नहीं है. एक छोटी सी चिड़िया भी इस सर्दी के मौसम में अपना घोसला बनाकर उसमे रहती है तो ये इन्सान क्यों अभी तक बन्दर बन कर रह रहा है? कुछ मकान सकान बनाये वर्ना इस ठण्ड में तो हर किसी को खुले में रोना ही पड़ेगा. और अगर मकान नहीं है तो दिल्ली सरकार के रेन बसेरे हैं. वहीँ चला जाय.
जवाब देंहटाएंएकत्व की तलाश जारी रहे!
जवाब देंहटाएंविचारशून्य जी, बंदर में संवेदना बढ़ी और विचार पैदा हुआ तो इंसान बना। जब वह वापस विचारशून्यता की ओर बढ़ा तो इंसान बनने का विकल्प शायद सामने रहा नहीं या दिखा नहीं तो पता नहीं वह क्या-क्या बना ;-)
जवाब देंहटाएंबहरहाल, ओशोप्रिय गोपालदास नीरज जी का शेर है:
चांद को छूके चले आए हैं विज्ञान के पंख,
देखना ये है कि इंसान कहां तक पहंुचे !
अभिषेक जी, मत बोलिए आप, पर हमने तो सुन लिया :-)
राहुलसिंह जी, देखिए यहां तो सबका आना-जाना लगा ही रहता है।
नये वर्ष की असीम-अनन्त शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिटिप्पणी से उदयप्रकाश की यह कविता याद हो आई...
जवाब देंहटाएंआदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं सोचता।
आदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं बोलता।
कुछ नहीं सोचने
और कुछ नहीं बोलने पर
आदमी
मर जाता है।
उदयप्रकाश
मैं इंसान के पास गया
जवाब देंहटाएंकाफ़ी देर ढूंढना पड़ा मुझको
वह बेघर था
त्यौहार तो छोड़िए
तारीख़ तक याद न थी उसे
दोनों काफ़ी देर तक
रोते रहे..एक कसेला सच पर सच्चा. दिल और रूह तक जा कर घर कर गया और दो के साथ तीसरा यानि मैं भी रोने लगा .रफत
सार्थक अभिव्यक्ति के लिये बधाई।
जवाब देंहटाएंसंजय जी, बहुत गहरी बात कह दी आपने। दिल को छू गयी।
जवाब देंहटाएं---------
मिल गया खुशियों का ठिकाना।
बहुत खूब ... गहरी रचना
जवाब देंहटाएंवाकई दिल को छु जाने वाली लाइने ........
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता.
जवाब देंहटाएंumda prastuti sanjay jee..ye bhi baat sach hai ki ham aaj ye bhool gaye hai ki ham asliyat me ek insan hi hai....baki sab moh maya
जवाब देंहटाएंkya likh diya aapne.. starting mein padh raha tha main toh soch raha tha kya hai ye.. jab End padha toh rongte khade hogaye.. wahi baithay-baithay maine aapke liye taali bajayi.. Lajawaab thi.. Plz aisi aur likhein..
जवाब देंहटाएंसंजयजी. बहुत अच्छी कविता. टिपण्णी करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
जवाब देंहटाएंnice bahut acche.
जवाब देंहटाएंहृदय स्पर्शी रचना प्रस्तुत करने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना...बधाई!
जवाब देंहटाएंइंसानियत लापता हो रही है ...कितनी गहरी बात कितने कम शब्दों में ..
जवाब देंहटाएंलाजवाब !
वाह...क्या बात कही दी आपने...
जवाब देंहटाएंek insan ki talash..... anvaran prakriya hai shayad. sundar abhivyakti.
जवाब देंहटाएंआपकि रचना ने सच मे ही मुझे रुल दिया
जवाब देंहटाएंआप्कि रचना ने सच मे मुझे रुल हि दिया
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