मंगलवार, 28 मई 2013

एक अलग़ तरह के सफ़ल का साक्षात्कार

व्यंग्य



परीक्षाओं के नतीज़े आ रहे हैं। सभी कुछ न कुछ दिखा रहे हैं। हमारी कोशिश रहती है कि कुछ अलग़, कुछ विशेष दिखाएं। आपने अन्य जगह उन सफ़ल छात्रों की कहानियां देखी होंगी जिनकी आंखें नहीं थीं, किसीका हाथ नहीं था, किसीकी टांग में समस्या थी, मगर अपनी इच्छा-शक्ति के बल पर उन सबने सफ़लता पाई। मगर हमारा आज का हीरो उन सबसे भी अलग़ है।
हमारे आज के हीरो श्री ने दिमाग़ न होते हुए भी ज्ञान के इम्तिहान में टॉप किया है। आईए हम श्री के मुख से ही जानते हैं उनकी सफ़लता की कहानी।
‘श्री, पहले तो वही घिसा-पिटा सवाल, आपको प्रेरणा कहां से मिलती है?’
‘जी.......मैं किसी एक का नाम लूंगा तो दूसरों के साथ अन्याय होगा, सच कहूं तो मुझे अपने आस-पास ऐसे लोग बहुत कम ही मिले जिनसे मैंने कुछ सीखा न हो.......आपको भी मैं अकसर देखता रहता हूं.........’
‘श्री, जब आप स्कूल में ऐडमिशन लेने गए होंगे तो काफ़ी परेशानी हुई होगी.....कैसे...मतलब कुछ बताएं........’
‘सच कहूं तो शुरु-शुरु में मैं बहुत डरा हुआ था मगर जब इंटरव्यू शुरु हुआ तो मेरे जवाब सुनकर वे आश्वस्त दिखने लगे। एक टीचर ने तो पापा से कहा भी कि यह तो बिलकुल हमारे जैसा है, एक-एक चीज़ इसे रटी हुई है....’
‘तो श्री यह बताएं कि आपको दिमाग़वाले बच्चों के साथ ही बिठाया गया?’
‘जी, मुझे उनके साथ ही बिठाया गया।’
‘वाह, स्कूल वालों के लिए तालियां तो बनतीं हैं, बच्चों का व्यवहार आपके साथ कैसा था?’
‘जी, एक-दो बच्चों को छोड़ दूं तो हमें कभी लगा ही नहीं कि हममें कोई फ़र्क है।’
‘यानि कभी किसी तरह की हीन-भावना महसूस नहीं की आपने?’
‘जी मुझे तो नहीं हुई पर वे लोग कभी-कभी गंभीर हो जाया करते थे ; कहते यार हमें लगता है हमारा भी नहीं है....’
‘आपको तब क्या लगता था?’
‘ठीक से नहीं कह सकता था कि इस्तेमाल नहीं करते थे या था ही नहीं !’
‘अच्छा जब आप बड़े हुए तो क्या आपकी सोच में.....बल्कि कहना चाहिए कि अ-सोच में लोगों के व्यवहार को लेकर कुछ बदलाव आया?’
‘मैं कहूंगा बाद के मेरे अनुभव ज़्यादा सुखद हैं, जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, दिमाग़ की ज़रुरत घटती जाती है। जो कुछ लोग मुझे बचपन में परेशान करते थे बाद में उनमें से भी कई लोग सम्मान करने लगे।’
‘श्री, यह आप किस आधार पर कह रहे हैं!?’
‘देखिए, पहले मां-बाप मुझे जो भी कहते थे, अड़ोसी-पड़ोसी जो कहते थे, बड़े जो कुछ कहते थे, टीचर जो क़िताबों में से बताते थे, मैं बिना सोचे-समझे करता जाता था। बाद में बिना दिमाग़ के ही मुझे समझ में आने लगा कि बिना सोचे-समझे कुछ करने के मामले में तो मैं ख़ुद ही आत्मनिर्भर हूं, मम्मी-पापा को परेशान करने की क्या ज़रुरत है! सीधी तो बात है-जो बड़ोंने बताया, जो सब कर रहे हैं वही करते जाओ। जैसे सब कैरियर बनाते हैं, सब शादी करते हैं, सब बच्चे पैदा करते है, सब शादी में जाते हैं, सब कमरा बनाते हैं.....बस वही करते चले जाना है, दिमाग़ का तो ख़ामख़्वाह नाम है, काम तो कुछ है ही नहीं! बस, मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया।’
‘अच्छा अभी आपको कैसा लगता है, आगे आपका भविष्य क्या है?’
‘देखिए जैसा मैंने अब तक देखा है, 50-100 साल तो कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। हां, इंटरनेट जैसी तकनीकें ज़रुर थोड़ा डरातीं हैं, अचानक बाहरी हवाएं कुछ वायरस वगैरह छोड़ दें और लोग अपने दिमाग़ इस्तेमाल करना शुरु कर दे तो बात अलग़ है।’
‘आपको लगता है कि ज़्यादातर लोग अपना दिमाग़ इस्तेमाल नहीं करते!? क्यों नहीं करते?’
‘हो सकता है वे दिमाग़ को इस्तेमाल न करना ही दिमाग़ का सबसे अच्छा इस्तेमाल समझते हों!’
‘अच्छा आप हमें यह बताएं कि पहली बार यह पता कैसे लगा कि आपके सर में दिमाग़ नहीं है?’
‘एक बार जब मैं बहुत छोटा था, हमारे घर कोई महापुरुष आए थे, पापा ने कहा कि इनके पांव छुओ, बट मैं उनके पांव पकड़कर लेट-सा गया। पापा बताते हैं कि उन्होंने उस वक्त तो कुछ नहीं कहा मगर थोड़ा डाउट उन्हें हो गया था कि यह तो कुछ ज़्यादा ही हो गया। जितना कह रहा हूं यह उससे ज़्यादा क्यों कर रहा हैं!? उन्होंने किसीको कुछ नहीं बताया बस वे चुपचाप मुझे अपने दोस्त डॉ. हक़ीम श्रेष्ठ के पास ले गए। उन्होंने ही सारे टैस्ट करके बताया।’
‘डॉ. हक़ीम इस अजीबोग़रीब टैस्ट के लिए राज़ी कैसे हुए?’
‘पापा कहते थे कि डॉ. हक़ीम भी बचपन से बेदिमाग़ थे। प्रैक्टिस उनकी बहुत अच्छी चलती थी। मम्मी को तो शक है कि उनको दिल भी नहीं था।’
‘अच्छा, हम वापस आते हैं आपके घर, आपके रिश्तेदार...दोस्त.....इनका क्या व्यवहार रहा, क्या योगदान रहा?’
‘मैं आपको क्या कहूं, मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं बेदिमाग़ हूं या वे दिमाग़दार हैं, सब बिलकुल अपने जैसे तो लगते थे, इतना अपनापन देते थे कि बस.....दिल की बात कहूं तो मुझे लग रहा है कि जैसे आप लोग बेकार ही मुझे इतना महत्व दे रहे हैं, मुझे तो लगता ही नहीं कि मैंने कुछ नया किया है, पता नहीं...ऐसा लगता है कि यहां हमेशा से ही ऐसा होता रहा है.....’
‘ठीक है श्री, हमारे पास इतना ही वक्त है; आगे वक्त मिला तो ज़रुर आपसे फ़िर बात करेंगे......’


-संजय ग्रोवर


देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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