शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

'व्यंग्य-कक्ष' में *****प्रोजेक्ट डॉक्टर*****


अर्सा पहले एक अखबार में एक कार्टून छपा था। कार्टून के ऊपरी कोने में पिछले दिन के अखबार की कटिंग लगी थी,‘‘एक डाॅक्टर की लापरवाही से एक प्रोफेसर की मौत‘‘। और नीचे कार्टून के नायक के माध्यम से कार्टूनिस्ट ने इस खबर पर अपनी प्रतिक्रिया इस वाक्य में व्यक्त की थी,‘‘... .... ... और जब एक प्रोफेसर की लापरवाही से इतने लोग डाॅक्टर बन जाते हैं तब ... ... ...‘‘

इस पर बहुत से लोग कह सकते हैं कि उस डाॅक्टर ने ऐसे ही बने सारे डाॅक्टरों की तरफ से बाकी सारे लापरवाह प्रोफेसरों की ग़लतियों की सज़ा उस एक प्रोफेसर को देकर कोई बुरा नहीं किया। कुछ और लोग इस पर ‘‘जैसे कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान‘‘ का दार्शनिक मूड अपना कर निर्लिप्त बने रह सकते हैं। और कुछ ‘‘जैसे को तैसा‘‘ के अंदाज़ में ले सकते है। पर अगर हम कार्टूनकार के नज़रिए को गंभीरता से लें और उसे सच मानें तो देश में आए दिन होने वाली डाॅक्टरों की हड़तालों को देखकर हमें मानना पड़ेगा कि हमारे देश के प्रोफेसर अतीत में तो ज़रूरत से (और इस देश की ग़ज़ब की सहन शक्ति से) ज्यादा ग़लतियां कर ही चुके हैं अभी भी ऐसा करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। इसकी एक वजह शायद यह हो सकती है कि बहुत सारे प्रोफेसर भी अपने प्रोफेसरों की लापरवाहियों की बदौलत ही प्रोफेसर बन पाए होते हैं।

हड़ताल पर गए सरकारी डाॅक्टर अक्सर यह दावा करते हैं कि उन्होंने सरकार की सारी स्वास्थ्य मशीनरी को ठप्प कर दिया है। दरअसल यह दावा सरकार के ही हित में जाता है। क्यों कि इससे तो साफ-साफ पता चलता है कि हड़ताल से पहले सरकारी स्वास्थ्य मशीनरी कार्य भी कर रही थी। क्या सरकार के लिये उसकी अब तक की स्वास्थ्य संबंधी उपलब्धियों को नकारने वाले विरोधियों पर चढ़-दौड़ने के लिये हड़ताली डाॅक्टरों का यह बयान काफी नहीं होना चाहिए?

डाॅक्टरों की दो किस्में हमारे देश में पायी जाती हैं - सरकारी और प्राईवेट। लोग इनके बारे में तरह-तरह की बातें करते हैं। कहते हैं कि बहुत से सरकारी डाॅक्टर ऐसे भी होते हैं और इसलिए भी होते हैं कि वे अपने दाखिले के वक्त इतना डोनेशन दे चुके होते हैं कि उनके पास अपना क्लीनिक खोलने के लिये पर्याप्त पैसे ही नहीं बचे होते। जो थोड़े बहुत पैसे बच रहते हैं उनका ‘‘यथोचित‘‘ उपयोग करके वे सरकारी हो जाते हैं। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि प्राईवेट डाॅक्टर इसलिये कभी हड़ताल नहीं करते या अपनी दुकान (अर्थात् क्लीनिक) बन्द नहीं करते क्योंकि उन्हें अपने मनमाफिक तरीके से अपना व्यापार करने की आज़ादी हासिल होती है। सरकार अगर सरकारी डाॅक्टरों को ड्यूटी टाइम में भी ‘प्रैक्टिस‘ करने की छूट दे दे तो उनके द्वारा की जाने वाली हड़तालों की संख्या में कमी आ जाएगी। ऐसा कुछ लोगों का सुझाव है।

लोग और जो कुछ कहें, पर जब वे प्राईवेट डाॅक्टर की तुलना व्यापारी से करते हैं तो बिलकुल अच्छा नहीं लगता। अगर ऐसा है तो गाँवों के लोग आज भी डाॅक्टर को भगवान क्यों मानते हैं? शहरों और कस्बों के पढ़े-लिखे लोग मरीज देखने आए डाॅक्टर के रिक्शे से उतरते ही कुलियों की तरह उनकी अटैचियाँ क्यों ढोते हैं? ‘‘गारन्टी पीरियड‘‘ में पंखों, मशीनों या घड़ियों के खराब हो जाने पर विक्रेता व्यापारी से पैसा वापिस मांगने वाले लोग मरीज़ के ठीक न हो पाने की दशा में पिछले डाॅक्टर को यूं ही बख्श कर अगले की ओर क्यों बढ़ जाते हैं?

पर चूंकि समाज ऐसा करता है इसलिए स्पष्ट है कि डाॅक्टर भगवान का दूसरा रूप होता है। उसका हर काम निर्विवाद है, इंसानी मान्यताओं और धारणाओं से ऊपर है। हो सकता है कि कुछ लोग यहाॅँ-वहाँॅं मौजूद भगवान के ऐसे रूपों को देखकर पूजा करना ही छोड़ दें, पर इससे तथ्यों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला।

अब उस दिन का किस्सा ही लीजिए। कलम कुमार जब डाॅ. अधपके की दुकान पर पहूॅँुंचा तो देखता क्या है कि डाॅ. अधपके मरीज़ों से घिरे बैठे हैं। सामने बैठे मरीज़ के मँुॅंह में थर्मामीटर लगा है। उसके बराबर बैठे मरीज़ से डाॅं0 अधपके हालचाल पूछ रहे हैं। तीसरा मरीज डा0 अधपके की बगल में बैठा है। डाॅ0 साहिब उसकी आॅंँखों का चैक अप करते हैं। पेट को टटोल कर देखते हैं। नब्ज़ देखते हैं। फिर जब पर्चे पर दवा लिखने लगते हैं तो मरीज़ टोकता है ‘‘डा0 साहब आपने मेरा गला तो देखा ही नहीं जिसे दिखाने मैं यहाॅंँ आया था‘‘।

कोई बात नहीं। डाॅ. अधपके की यह भूल क्षम्य है। सभी जानते है कि जब ग्राहक ज्यादा हों, दुकानदार अकेला हो और वक्त कम हो तो ग्राहकों को जल्दी-जल्दी निपटाने में ऐसी गड़बड़ियां आम तौर पर हो ही जाती है।

बुजुर्ग लोग फरमाते हैं कि हमारा समाज आज भी डाॅक्टरों की इतनी इज़्ज़त इसलिये करता है कि किसी जमाने में डाॅक्टर से बड़ा समाज सेवक दूसरा नहीं होता था। चूंकि हमारे समाज ने निस्वार्थ सेवा करने वालों को हमेशा सम्मान दिया है। और परम्पराओं को यथासम्भव व यथाशक्ति निभाया है तो इसका फायदा डाॅक्टरों को आज भी मिल रहा है।

पर समाज सेवा करने वाले डाॅक्टरों की यह तीसरी किस्म भारतीय चीतों की नस्ल की तरह इतनी तेजी से लुप्त क्यों होती जा रही हैं? कुछ अर्सा पहले सरकार ने चीतों की नस्ल को बचाने के लिए प्रोजेक्ट टाईगर नामक एक योजना शुरू की थी। क्या हम अपने समाज की खुशहाली के लिए महत्वपूर्ण अंग समझे जाने वाले समाज सेवी डाॅक्टरों की लुप्त होती नस्ल को बचाने के लिये भी सरकार से ‘‘प्रोजेक्ट डाॅक्टर‘ जैसी किसी योजना की उम्मीद करें?


इससे पहले कि कोई चीते के पंजों और डाॅक्टर के स्टेथस्कोप में समानता देखना शुरू करें, मैं इस लेख को यहीं खत्म किये देता हूं।
-संजय ग्रोवर


(6 अक्तूबर, 1995 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)

(‘कस्बा‘ पर रवीश जी और ‘मेरे आस-पास’ पर मनविंदर भिंबर जी के अनुभव पढ़े तो अपने कई नए-पुराने अनुभव और यह व्यंग्य याद आ गया।)

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

'मर्दानगी' पर दो कविताएं

1. मर्दानगी
.............................गर्वीले चेहरे पर
अकड़ी हुई मूँछें
बाहों पर उछलती हुई मछलियां
गरज़दार आवाज़



मर्दानगी
रखी है इतिहास के शोकेस में
चाबी भरने पर आवाज़ भी करती है
जब जम जाती है इस पर धूल
तो क्रेज़ी स्त्रीत्व अपने कोमल हाथों से
इसे झाड़-बुहार कर
फिर रख देता है शोकेस में



जब पुरानी पड़ जाती है
याकि मर जाती है
तो पुरानी की जगह नई सजा दी जाती है



मर्दानगी
खुश है अपने सजने पर



साल दर साल
पीढ़ी दर पीढ़ी
शोकेस में सजती आ रही है
मर्दानगी

(तकरीबन 14-15 साल पहले ‘कतार’ नामक लघुपत्रिका में प्रकाशित)
.............................

2 . यहाँ भी मैं
........................अब स्त्रियां पूछ रही हैं
पुरुष एक और
स्त्री को चाह सकता है
तो स्त्री
एक और पुरुष मित्र को
क्यों नहीं चाह सकती
......................................






मैंने भरोसा दिलाया
बिलकुल चाह सकती है
बशर्ते कि
वह पुरुष मित्र
मैं होऊं।
..........................




(रचना तिथि: 23-02-२००९)
.............................



-संजय ग्रोवर

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

गज़ल पुरानी, लगे सुहानी


ग़ज़ल

वो समझाने आ जाएंगे
जी को जलाने आ जाएंगे

गर यूँ ही बेहोश रहे तो
होश ठिकाने आ जाएंगे

बात तुम्हारी जब बिगड़ी, वो
बात बनाने आ जाएंगे

दिया जलाने की कह कर वो
आग लगाने आ जाएंगे

नए दोस्त जब-जब आएंगे
दर्द पुराने आ जाएंगे

प्यार पुराना जागेगा तो
नए ज़माने आ जाएंगे

मय को बुरा कहेंगे वाइज़
ज़हर पिलाने आ जाएंेगे


-संजय ग्रोवर

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

गज़ल जो अब तक छपी नहीं/पढ़ो कहीं तो पढ़ो यहीं...........


कल जब सुनील भाई ने कहा कि टापिक बदलो और अनुराग भाई ने कहा हमें आपके स्वास्थ्य की चिंता होने लगी है। तो मुझे भी लगा कि माहौल बदला जाए। आज एक नयी और अप्रकाशित गज़ल पोस्ट कर रहा हूं:-

ग़ज़ल

उसको मैं अच्छा लगता था
मैं इसमें क्या कर सकता था

एक ग़ज़ब की सिफ़त थी मुझमें
रोते-रोते हंस सकता था

नज़र थी उसपे जिसके लिए मैं
फ़कत गली का इक लड़का था

जाने क्यूं सब दाँव पे रक्खा
चाहता तो मैं बच सकता था

मेरा ख़ुदको सच्चा कहना
उसे बुरा भी लग सकता था

मैं सब खुलकर कह देता था
कोई भी मुझ पर हंस सकता था

मेरा उसको अच्छा कहना
उसे बुरा भी लग सकता था


बेहद ऊँचा उड़ा वो क्यूंकि
किसी भी हद तक गिर सकता था

ख़ानदान और वंश के झगड़े !
मै तो केवल हंस सकता था

-संजय ग्रोवर

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

व्यंग्य-कक्ष में *****महान देश के महान लोग*****

यह असम्भव ही लगता है कि किसी को हमारे देश की महानता के बारे में पता न हो। फिर भी कोई भूल न जाए इसलिए 15 अगस्त और 26 जनवरी के अलावा भी कई अन्य उपयुक्त अवसरों पर बताया जाता है कि देश महान है। रेडियो, टीवी, अखबारादि अक्सर घोषणा करते रहते हैं कि हमारी सभ्यता, संस्कृति, परम्पराएं वगैरह सब महान हैं। शायद इस तरह की घोषणाएं भी हमारी परम्परा का एक हिस्सा है। वैसे भी अच्छी बातें बताने वालों को बस अवसर मिलना चाहिए, उपयुक्त तो वे उसे बना ही लेते हैं। बल्कि अवसर मिलने का भी इन्तज़ार नहीं करते और ऐसी स्थितियां पैदा कर देते हैं कि अवसर खुद-ब-खुद निकल आता है। तो जब इतने सालों से और इतने तरीकों और तरक़ीबों से समझाया जा रहा हो कि देश महान है तो मान ही लेना चाहिए कि देश महान है। वैसे भी व्यक्ति का फर्ज़ यह है कि जिस देश में वो पैदा हो जाए उसी को महान मानने लगे। दुनिया के सभी लोग ऐसा ही करते हैं। फिर हम क्या कोई आसमान से टपके हैं!
देश के महान होने का कोई निश्चित वक़्त नहीं होता। यह महानता सुबह-सवेरे ही शुरू हो जाती है। सुबह-सुबह ही हलवाई की दुकान पर पारम्परिक पकवान जलेबी, कचैड़ी या समोसा खाने पधारे ‘न्यू प्राचीन एण्ड कं.‘ के मालिक लाला लपेटचंद जी सभ्यता और संस्कृति की चिन्ता में सूखना शुरू हो जाते हैं। वे एक ‘देशद्रोही’ अंग्रेजी फिल्मी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर ममता कुलकर्णी द्वारा अपने निर्लज्ज नग्न चित्र छपवाने के कारण उससे बहुत नाराज हैं। लाला जी नितांत प्राकृतिक वेषभूषा में सुबह की हवाखोरी के हल्के मूड में इधर को निकल आए हैं। अपवादस्वरूप उन्होंने कमर के निचले हिस्से में एक अधोवस्त्र पहना हुआ है जोकि उनके घुटनों से नीचे के इलाके को ढकने में किन्हीं अपरिहार्य कारणों से असमर्थ हैं। बोलचाल की भाषा में इस अधोवस्त्र को कच्छा, जांघिया या कभी कभार घुटन्ना भी कहते हैं। ऐसी दशा में लाला की यह चिन्ता स्वाभाविक ही लगती है कि ममता को पुरूषों के बारे में नहीं तो कम से कम देश की बहू-बेटियों के भविष्य के बारे में तो सोचना चाहिए।
लाला बैंच पर बैठे हुए हैं। विवाद खड़ा हुआ है। लोग हां, हूं करते हुए सुन रहे हैं। और कचैड़ियां खाते जा रहे हैं। तिस पर भी लाला तैश में आ जाते हैं और पास खड़े मरियल कुत्ते पर लात जमा कर दोना बीच सड़क पर फेंक देते हैं। साथ ही धुर्र, फटाक की पारम्परिक आवाज़ के साथ सड़क पर ज़ोेर से थूकते हैं और सभ्यता और संस्कृति की चिंता में दो और वाक्य बोलकर घर के लिए प्रस्थान करते हैं।
लाला जल्दी में हैं। उन्हें अपनी पत्नी की चिंता है। जब तक वे घर नहीं पहुंचेंगे, पत्नी नाश्ता छुएगी तक नहीं, भले ही उन्हें लौटने, नहाने, धोने में कितना ही वक़्त लग जाए। पत्नी भूखी न रह जाए, इसी वजह से उन्हें रोेज़ इसी तरह दो-दो बार नाश्ता करना पड़ता है।
ऐसा भी नहीं कि लाला अकेले ही सभ्यता और संस्कृति के लिए परेशान हैं। दरअसल ऐसे लोग तो बहुत सारे हैं, अनगिनत। अक्सर देखने में आता है कि लोगों को कितनी भी जोर से ‘लगी‘ हुई हो मगर वे कोई दीवार या गली नज़र आ जाने तक धैर्य बनाए रखते हैं और जल वितरण नहीं करते। शायद सभ्यता और संस्कृति की खातिर ही वे इस जल वितरण में ज्यादा देर तक रूकावट डालने से होने वाले शारीरिक और मानसिक कष्ट को पी जाते हैं और बीच सड़क पर कोई ऐसी हरकत नहीं करते जिससे कि आम ज़ुबान में ‘पेशाब करना‘ या ‘मूतना‘ कही जाने वाली इस नैसर्गिक क्रिया पर कोई आंच आए। अनेकानेक पर्यावरण प्रेमी सड़क किनारे लगे पेड़ों को इस परोपकारी क्रिया से नवाज कर पुण्य प्राप्त करते हैं। कुछ अत्यन्त उत्साही युवा जन तो रात-बिरात ही इतने जोश में आ जाते हैं कि पक्की सड़क पर ही ‘बर्फ में आग लगा देंगंे‘ के अंदाज़ में धारा-प्रवाह करना शुरू कर देते हैं।
हमारे परम्परा भी बड़ी समृद्ध है। सारे अविष्कार एवं खोजें हमारे यहां प्राचीन काल में ही किए जा चुके हैं। चूंकि इन आविष्कारों व खोजों को करने में हमें काफी श्रम करना पड़ा सो हम काफी थक गए हैं और पिछले कई सालों से आराम कर रहे हैं। अब करने को कुछ बचा भी नहीं। सिवाय इसके कि जब भी दुनिया में कोई अविष्कार होता है हम अपने प्राचीन ग्रंथों में से तुरन्त ढूंढ-ढांढ कर बता देते हैं कि फलां पन्ने की फलां पंक्ति में फलां व्यक्ति ने यह आविष्कार पहले ही कर लिया है। तत्पश्चात् हम विदेश में हुए किसी ताज़ा आविष्कार को अपने किसी नए नाम से घटिया और नकली पुर्जों के सहारे बनाने की तिकड़म सोचने लगते हैं। जिसमें कि हम अक्सर सफल होते हैं। और सिद्ध कर देते हैं कि हम अपने प्राचीन कालिक आविष्कार की आधुनिक विदेशी नकल की नकल करते हुए भी उतने ही मौलिक बने रहते हैं।
इस सब के अलावा अपने यहां स्त्रियों का भी बहुत सम्मान किया जाता है। उन्हें देवी माना जाता है। इसलिए अधिकाँश पुरूष चाहते हैं स्त्रियां मंदिर में स्थित देवी की मूर्ति की तरह शांत व स्थिर एक कोने में पड़ी रहें। ज्यादातर पुरूष जब अन्यान्य तरीकों से स्त्रियों का सम्मान करते रहने के बावजूद भी असंतुष्ट रह जाते हैं और उनमें महानता की भावना और भी बलवती हो उठती है तब वे विवाह कर लेते हैं। और स्त्रियों को व्यक्तिगत तौैर पर सम्मान प्रदान करते हैं। इससे उनका यह डर भी कम हो जाता है कि कोई अन्य व्यक्ति उनके लिए आरक्षित स्त्री का सम्मान न कर डाले। पर इधर सुनने में आया है कि स्त्रियां अब सम्मान करवाते-करवाते थक गई हैं। वे चाहती हैं कि अब उन्हें मौका दिया जाए। जिससे कि वे पुरूषों का यथोचित सम्मान करके यह कर्ज़ा उतार सकें।
इस प्रकार सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, मर्यादा वगैरह से लबालब हमारे देश में कहने-सुनने को बहुत कुछ है। परन्तु एक ही लेख में सब कुछ कहते हुए तो मैं असभ्य ही दिखाई पड़ूंगा। और मेरी समझ में असभ्य होना इतनी बुरी बात नहीं जितना कि असभ्य दिखना। आपका क्या ख्याल है?
-संजय ग्रोवर
(12 अगस्त, 1994 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

आज हुआ मन गज़ल कहूं.....


गज़ल

ऐसा नहीं कि भीड़ में शामिल नहीं हूं मैं
लेकिन धड़कना छोड़ दूं वो दिल नहीं हूं मैं

कुछ बाँझ ख्यालात का खूनी हूं गर तो क्या
उगती हुई उम्मीद का क़ातिल नहीं हूं मैं

दिल को हो दिल से राह, कोई ऐसी राह हो
घर में दरो-दिवार से दाखिल नहीं हूं मैं

गो नन्हा सा चिराग हूं, हूं तो तुम्हारे पास
क्या हो गया जो तारों की झिलमिल नहीं हूं मैं

रखता हूं दूर प्यार से हिसाब की क़िताब
आखिर पढ़ा-लिखा कोई जाहिल नहीं हूं मैं

कानून ही को कटघरे में लाए ना तो फिर
ऐसे किसी गुनाह का क़ायल नहीं हूं मैं

खोले बिना ही रस्सियां खेते रहें जो नाव
उनकी हदों के पास का साहिल नहीं हूं मैं

रफ्तारे-ज़िन्दगी को हूं हरदम नया सवाल
हारे हुए जवाबों की महफिल नहीं हूं मैं

-संजय ग्रोवर

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

ये ‘‘डीसैक्सुअलाइजेशन’’ क्या बला है ?


सुशांत जी, आपने पेड़ो के नीचे खड़े, दीवार पर चढ़े, खेत में खड़े, कई बार तो आधी रात के वक्त चैराहे पर खड़े ‘‘मर्दों’’ को पेशाब करते देखा है ? आपको क्या लगता है ये सब ‘‘डीसैक्सुअलाइज़’’ हो गए हैं ? आपने आदिवासियों को देखा है ? उनकी स्त्रियों की वेश-भूषा देखी है ? क्या वे दिन-रात यौन-क्रिया करते हैं और इसलिए ‘‘डीसैक्सुअलाइज़्ड’’ हैं ? मुझे याद आता है 20-30 साल पुराना माहौल जब कोई स्त्री किसी महफिल में स्लीवलैस पहनकर आ जाती थी तो पूरे वक्त न तो वो खुद सहज रह पाती थीं न पूरी महफिल। पूरे वक्त स्त्री बांहो को तरह-तरह से ढंकने की कोशिश करती रहती तो मर्द नज़रें चुराते। शोहदे घूर-घूर कर देखते। यानि सहज-सामान्य कोई न रह पाता। क्या आज भी ऐसा ही है ? यह बदलाव क्या ‘‘डीसैक्सुअलाइज़ेशन’’ की वजह से आया है !? टीवी के रिएलिटी शोज़ में मध्यवर्गीय घरों की लड़कियां आज उन्मुक्त वेश-भूषा में सहज भाव से विचरती हैं। उनके साथ उनके माँ-बाप-भाई-बहिन भी होते हैं और वे भी उतने ही सहज होते हैं। क्या वे सब दिन-रात सैक्स कर-करके ‘‘डीसैक्सुअलाइज़’’ हो गए हैं इसलिए इतने सहज-सामान्य हो गए हैं ?
इसके अलावा भी अपने कुछ पुराने लेखों के टुकड़े यहाँ पेश करना चाहूंगा जिससे मुझे अपनी बात कहने में आसानी हो जाएगी और व्यर्थ के दोहराव और वक्तखर्ची से भी बच जाऊंगा:-
अश्लीलता को लेकर एक और मजेदार तथ्य यह है कि बढ़ते-बदलते समय के साथ-साथ इसको नापने-देखने के मापदंड भी बदलते जाते हैं। 1970 में जो फिल्म या दृश्य हमें अजीब लगते थे, अब नहीं लगते। आज बाबी पर उतना विवाद नहीं हो सकता, जितना ‘चोली के पीछे’ पर होता है। आज साइकिल, स्कूटर, कार चलाती लड़कियां उतनी अजीब नहीं लगतीं, जितनी पांच-दस साल पहले लगती थीं। मिनी स्कर्ट के आ जाने के बाद साधारण स्कर्ट पर एतराज कम हो जाते हैं। मध्यवर्गीय घरों में नौकरीशुदा स्त्रियों को लेकर तनाव व झगडे़ जितना पहले दिखते थे, उतना अब नहीं दिखते।
(6 दिसम्बर 1996 को अमरउजाला, रुपायन में प्रकाशित)
अब आप मेरे आलेख के उस अंश को दोबारा-तिबारा पढ़ लें जिसमें से न जाने कौन-सा गुणा-भाग करके ‘‘डीसैक्सुअलाइज़ेशन’’ शब्द निचोड़ लिया गया है:-
‘‘स़्त्री को अपनी कई समस्याओं से जूझने-निपटने के लिए देह से मुक्त तो अब होना ही होगा और इसके लिए उसकी अनावृत देह को भी पुरूष अनावृत देह की तरह सामान्य जन की आदत में आ जाने वाली अनुत्तेजक अवस्था के स्तर पर पहुंचाना होगा ।‘‘
अगर अभी भी आपको समझ में नहीं आता तो मुझे कुछ बातें दोहरानी तो पड़ेंगी ही। वैसे भी अगर हम अतार्किक बातों को हज़ार-हज़ार साल दोहरा सकते हैं तो तार्किक को भी दो-चार बार दोहरा लेंगे तो ऐसी कौन सी आफत आ जाएगी ? पहले वे बातें मैंने टिप्पणी में कही थीं, अब संशोधन के साथ मुख्य पोस्ट में लगा रहा हूँ। मैं हर मसले पर चर्चा करुंगा। थोड़ा धीरज तो रखें। मगर आपको तो जय-पराजय के नतीजे की जल्दी मची है।
और आप मुद्वों से हटकर न जाने कौन-कौन से राग अलाप रहे हैं ? कि मैं अपने-आपसे नाराज़ हूँ। कि मुझे प्रशंसा सुनने की आदत नहीं है ! क्या आपको लगता है कि इन सब बातों का इंस बहस से कोई मतलब है ?
बाते अभी बहुत सी बाकी हैं ।
(जारी)

-संजय ग्रोवर

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

व्यंग्यात्मक टिप्पणी: वेलेंटाइन डे पर बजरंगी का प्रेम-पत्र, साभार


प्रिय सुनसुखिया,
हैप्पी वेलेंटाइन डे
(मुहब्बत दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं)
मैं प्रार्थना करता हूँ भगवान से कि हमारा प्यार सदियों तक अमर रहे....प्रिय तुम तो जानती ही हो कि मैं भगवा ब्रिगेड का सदस्य हूँ और हर साल की तरह इस साल भी हमारे संगठन ने प्यार करने वालों का विरोध करने का बीड़ा उठाया है....या फिर यूं कहूं कि समाज सुधार का ठेका।
इसलिए आजकल मैं काफी व्यस्त हूं....जिस कारण मैं तुम्हे दो दिन पहले ही अपना वेलेंटाइन डे प्रेम-पत्र लिख रहा हूं। आखिर समाज सुधार और धर्मरक्षा का भी तो ध्यान रखना है।
खैर, छोड़ो इन सारी बातों को। हर साल की तरह इस बार भी हम अपना वेलेंटाइन डे खूब धूम-धाम से मनाएंगे, जिसका कार्यक्रम इस प्रकार रहेगा:-
सुबह सात बजे मैं गुलाब के फूलों के साथ तुम्हारे घर के पिछवाड़े वेलेंटाइन डे विश करुंगा। (क्योंकि घर के मुख्य दरवाजे पर पिताजी का खतरा है।) तत्पश्चात मैं सुबह 7ः30 बजे परवाना चैक पर वेलेंटाइन डे के विरोध पर धरना-प्रदर्शन में भाग लूंगा। तब तक तुम तैयार होकर 10 बजे दीवाना पार्क में मिलना। ठीक वक्त पर आना क्योंकि 12ः00 बजे से हमारी ब्रिगेड के सदस्य यहां दीवाना पार्क में ‘छापामार-दीवाना मार’ अभियान चलाएंगे। जब दोपहर में सारे बजरंगी कुछ देर के लिए सुस्ताएंगे, तो इसी दौरान हम लोग फ्रैंडली रेस्टोरेंट में प्यार की पींगे बढ़ाएंगे। फिर शाम 3ः00 बजे सपना सिनेमा में पिक्चर देखेंगे ‘प्यार की होगी जीत’। फिल्म खत्म होते ही तुम अपने घर चली जाना, क्योंकि शाम 6ः00 बजे हमारी ब्रिगेड मुहब्बत करने वालों के सपनों को कुचलेगी। सात बजे एक खबरिया चैनल ‘टुक-टुक न्यूज़’ पर मेरा कार्यक्रम प्रसारित होगा जिसमें मैं भारतीय संस्कृति पर जोरदार भाषण दूंगा। रात 9ः00 बजे जब हमारी ब्रिगेड के सदस्य थक-हार कर अपने-अपने घरों को चले जाएंगे तब मैं चोर रास्ते से तुम्हारे कमरे में दाखिल रहूंगा फिर हम तुम अपने भविष्य के सपनों में खो जाएंगे।
तुम्हारा प्रेमी
बजरंगी


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संपर्क: अब्बास, नूर-ए-इलाही, घौंडा, दिल्ली-110053
(युद्धरत आम आदमी, अप्रैल-जून, 2008 से साभार )

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

पंाच पोंगे-कट्टर-मुल्ले-पंथी बनाएंगे सारे समाज का खाने-पीने-पहनने-नाचने का मैन्यू !?




सुशांत जी आप तो नाराज़ हो गए। यह क्या बात हुई कि जब आप अपने लेख का अंत ‘‘‘वहीं जाकर चार टांगों पर नंगे घूमते रहो, कौन मना कर रहा है।’’’ जैसे वाक्यों से करते हैं तो वो आपको बड़ी धार्मिक-आध्यात्मिक-सामाजिक-सभ्य भाषा लगती है। ऐसा क्यों, भाई ?


ऊपर से आप मुझे नयी व्यवस्था का मिशन-स्टेटमेंट बनाने को कह रहे हैं जैसे कि पिछली व्यवस्था का आपने तैयार किया था ! सारे यथास्थ्तििवादियों की तान यहीं आकर टूटती है। कल को कोई मजदूर या एन.जी. किसी टाटा-बिरला के यहाँ चल रहे शोषण का विरोध करेगा तो आप तो उससे यह कहेंगे कि पहले तुम खुद टाटा-बिरला जैसा कारखाना लगाओ या उसका कोई नक्शा बनाकर दो तब विरोध करना। अपने से अलग विचारों के लोगों को आप किस तरह से जंगल में जा बैठने का आदेश जारी करते हैं जैसे सारा समाज आपका जरखरीद गुलाम हो सारे लोग आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हों और सारे देश का पट्टा आपके नाम लिखा हो। सब वही खाएं जो आप बताएं, वही पहनें जो आप कहें, वही बोलें जो आप उनके मुंह में डाल दें। वाह, कैसी हत्यारी भाषा, कितनी अहंकारी सोच (?), कितनी तानाशाह प्रवृत्ति मगर फिर भी धार्मिक ! फिर भी आध्यात्मिक ! फिर भी सामाजिक ! फिर भी सभ्य।आप कहते हैं कि मैं कोई व्यवस्था सुझाऊँ। मैं क्यों सुझाऊं भाई !?


हां, मुझे पता है कि एक दवा मुझे अत्यधिक नुकसान पहुँचा रही है। लेकिन क्या मै उसे सिर्फ इसलिए खाता जाऊं और तारीफ करता जाऊं कि बाज़ार में उसकी वैकल्पिक दवा उपलब्ध नहीं है और मैं खुद वह दवा बनाने में सक्षम नहीं हूँ ! मैं उस दवा के ज़हरीले असरात की बाबत आवाज़ उठाऊंगा तभी तो कुछ लोग नयी दवा बनाने के बारे में सोचेगे। तभी तो वे सब लोग भी आवाज़ उठाएंगे जो इंस दवा के ज़हरीले नतीजे तो भुगतते रहे हैं मगर सिर्फ इसलिए चुप हैं कि उन्हें लगता है कि वे अकेले हैं और उपहास के पात्र बन जाएंगे। स्त्री-विमर्श के मामले में ही देखिए, पहले विद्वान लोग कहते-फिरते थे कि ऐसी दो-चार ही सिरफिरी औरतें हैं जो धीरे-धीरे अपने-आप ‘‘ठीक’’ हो जाएंगी, नही ंतो हम कर देंगे। अब देखिए तो कहां-कहां से कितनी-कितनी आवाज़े उठ रही हैं। आरक्षण के मसले पर आप ही जैसे विद्वानों ने पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह को पागल तक कह डाला था। मगर आज सारी पार्टियां बढ़-चढ़कर आरक्षण दे रही हैं। इण्टरनेट के आगमन को लेकर आप ही जैसे लोगों ने तमाम हाऊ-बिलाऊ मचाई। मगर सबसे ज़्यादा फायदा भी आप ही जैसे लोग उठा रहे हैं। भले ही इंस नितांत वैज्ञानिक माध्यम का दुरुपयोग अपनी अवैज्ञानिक सोच को फैलाने के लिए कर रहे हों। इसलिए किसी भी नयी चीज़ का विरोध करने से पहले यह तो तय कर लीजिए कि अंत तक आप अपने स्टैण्ड पर कायम भी रह पाएंगे या नहीं !? और इंस ग़लतफहमी में तो बिलकुल मत रहिए कि सभी आपकी तरह सोचते (?) हैं और भेड़ों की तरह आप उन्हें जहां मर्ज़ी हांक ले जाएंगे।


कोई भी व्यवस्था तो एक दिन में बनती है और ही कोई एक आदमी उसे बनाता है। मगर आप मुझसे ऐसी ही उम्मीद रखते हैं। आप क्या समझते हैं कि मैं भी उन दस-पाँच पोंगापंथियों और कठमुल्लों की तरह अहंकारी और मूर्ख हूँ जो खुदको इतना महान विद्वान समझते हैं कि वही सारी दुनिया के लिए खाने-पीने-नाचने-पहनने का मैन्यू तय कर सकते हैं ! मेरी रुचि ऐसी किसी गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्था में है ही नहीं कि सब मेरी तरह से जीएं। अगर मेरी टांगें पतली हैं और निक्कर मुझे सूट नहीं करता तो मै यह विधान बनवाने की कोशिश करुं कि सभी मेरी तरह फुलपैंट पहनेंगे। अरे जिसको जो रुचता है वो करे। आप कौन हैं तय करने वाले। दरअसल आपको किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने की आदत ही नहीं जिसमें सबके लिए जगह हो जब तक कि वह किसी तीसरे के जीवन में नाजायज घुसपैठ कर रहे हों। आपको सिर्फ वही व्यवस्था समझ में आती है जो या तो आपके अनुकूल पड़ती हो या मेरे ! आपके हिसाब से तो फिर सती-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-दमन, कन्या-भ्रूण-हत्या भी चलते रहने चाहिए थे क्योंकि फुलप्रूफ वैकल्पिक व्यवस्था तो मेरे पास थी आपके ! अगर सती-प्रथा हटानी है तो वैसी ही कोई और प्रथा होनी चाहिए हमारे पास। नही तो, आपकी सोच के हिसाब से ही, सती-प्रथा का विरोध करने का हमारा कोई हक ही नहीं बनता।


कई बातें तो आप ऐसी मुझे समझा रहे हैं जो खुद आपको समझनी चाहिएं। जैसे कि फुल वाॅल्यूम पर रेडियो चलाने का उदाहरण। अपने एक पुराने व्यंग्य की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना शायद बेहतर भी होगा और कारगर भी:- ‘‘क्यों! भावनाएं क्या सिर्फ आस्तिकों की होती हैं! हमारी नहीं!? हम संख्या में कम हैं इसलिए!? दिन-रात जागरण-कीर्तन के लाउड-स्पीकर क्या हमसे पूछकर हमारे कानों पर फोड़े जाते हैं? पार्कों और सड़कों पर कथित धार्मिक मजमे क्या हमसे पूछ कर लगाए जाते हैं? आए दिन कथित धार्मिक प्रवचनों, सीरियलों, फिल्मों और गानों में हमें गालियां दी जाती हैं जिनके पीछे कोई ठोस तर्क, तथ्य या आधार नहीं होता। हमनें तो कभी नहीं किए धरने, तोड़-फोड़, हत्याएं या प्रदर्शन!! हमारी भावनाएं नहीं हैं क्या? हमें ठेस नहीं पहुँचती क्या? पर शायद हम बौद्धिक और मानसिक रुप से उनसे कहीं ज्यादा परिपक्व हैं इसीलिए प्रतिक्रिया में बेहूदी हरकतें नहीं करते।’’


बाते अभी बहुत-सी बाक़ी हैं।

(जारी)

-संजय ग्रोवर


रविवार, 8 फ़रवरी 2009

व्यंग्य-कक्ष में*****गज़-भर एक्सक्लूसिव*****


गज़-भर चैनल पर खबरों का सजीव प्रसारण चल रहा है। अचानक स्क्रीन के ऊपरी कोने में ‘ब्रेकिंग-न्यूज़’ की पट्टी चमकती है। तुरंत पश्चात् निचले कोने में गज़-भर ऐक्सक्लूसिव का पट्टा आ विराजता है।

अलसाई आवाज़ में खबरें पढ़ रहा चिकना-चमका न्यूज़-रीडर उत्साह से भर उठता है, ‘अभी-अभी खबर मिली है कि राजधानी के स्वतंत्रता चौक पर सरे-आम, दिन-दहाड़े एक युवती के साथ बलात्कार किया जा रहा है ।’

दड़ियल-तिनका न्यूज़-रीडर, ‘और आपको जान कर खुशी होगी कि आपके प्रिय चैनल का संवाददाता सबसे पहले वहां पहुंचा है। आईए ,सीधे, लाइव कवरेज के लिए आपको वहीं लिए चलते हैं जहां मौजूद हैं हमारे रिपोर्टर मुखर खामोश । 'मुखर, हमारे दर्शकों को बताईए कि अब वहां क्या स्थिति है?’

मुखर,‘हां मैं इनसे पूछ रहा हूं, मैडम,आप यहां कबसे हैं ? आपका नाम क्या है? पहले तो आप हमारे दर्शकों को अपना नाम बताएं! आप यहां क्यों आयी थीं ? और अब आप कैसा महसूस कर रही हैं?’

युवती कराहती है. लगता है ‘कोई मुझे बचाओ’ जैसा कुछ बुदबुदा रही है।
दड़ियल-तिनका, ‘आप देख रहें हैं कि वे अपना नाम तक नहीं बता पा रहीं हैं। मुखर,हम आपसे फिर संपर्क करेंगे. इस बीच स्टूडियो में हमारे बीच मौजूद हैं ‘नारी-उत्थान’ संस्था की प्रमुख प्रगति जी और ‘देवी-वाहिनी’ की सुश्री कंचनलता जी । प्रगतिजी पहले आप बताईए कि दिन-दहाड़े, इस तरह से एक देश की राजधानी में यह सब हो रहा है, सब चुपचाप देख रहे हैं. कानून-व्यवस्था की मौजूदा हालत और समाज के ऐसे नैतिक पतन पर आप क्या कहना चाहेंगी?’

प्रगति,‘मैं आपके सवाल का जवाब बाद में दूंगी । यह वक़्त सवाल-जवाब का नहीं है। पहले आप मुखर जी से कहें कि किसी तरह उस युवती को बचाएं । अन्यथा मुझे इस बारे में सोचना होगा ।’

चिकना-चमका, ‘धन्यवाद प्रगति जी, इस पर विस्तार से बात हम आपसे बाद में करेंगे । फिलहाल वक्त है एक छोटे से ब्रेक का । ब्रेक के बाद एक बार फिर हम ले चलेंगे आपको स्वतंत्रता चौक पर जहां कि यह बलात्कार हो रहा है, किया जा रहा है । तो तैयार रहें लाइव कवरेज के लिए ।’

- ब्रेक -

मुखर, ‘तिनका, जैसा कि आप देख रहे हैं, यहां काफी भीड़ है। सभी लोग उतावले हैं।नजदीक से देखना चाहते हैं। पुलिस उन्हे पीछे हटाने की पूरी कोशिश कर रही है। मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं बलात्कारी युवक से बात करने की। और चमका, मैं पुलिस की मदद से यहां तक पहुंच गया हूं । आईए, हम बलात्कारी युवक से थोड़ी बातें करते हैं :


मुखर,‘क्या आप अपना नाम हमारे दर्शकों को बताएंगे?’
बलात्कारी, ‘दैट डज़न्ट मैटर ।’
मुखर, ‘आपकी जाति ? वर्ण ?’
बलात्कारी, ‘बोला न दैट डज़न्ट मैटर ।’
मुखर, ‘आप किसके लड़के हैं, किसी नेता, मंत्री, ब्यूरोक्रेट या व्यापारी के ?’
बलात्कारी, ‘अरे! हट परे यार, एक बार में समझ नहीं आती क्या तेरे को!’

- ब्रेक -
दड़ियल-तिनका, ‘इस बीच महिला संस्थाओं की प्रतिनिधि अभी भी हमारे बीच स्टूडियो में मौजूद हैं । कंचनलता जी, आप क्या कहना चाहेंगी इस पूरे प्रकरण पर !’

कंचनलता, ‘पहले तो जैसा प्रगति जी ने कहा हमें किसी तरह उस युवती को बचाना चाहिए, जैसी भी है हमारे देश की बेटी है । दूसरे, मैं कहूंगी कि दिन-दहाडे़ सड़क पर इस तरह के कपड़े पहन कर घूमना..........
चिकना-चमका, ‘इस बीच मैं अपने दर्शकों को बताना चाहूंगा कि आपके प्रिय चैनल का संवाददाता ही घटना-स्थल पर सबसे पहले पहुंचा............
तभी बिजली गुल हो जाती है. दर्शकों के लिए अब यही एकमात्र राहत है । या कहें कि स्त्रियों के लिए राहत है और पुरूषों का मज़ा किरकिरा हो चुका है।

-संजय ग्रोवर

(हंस, मई 2003 में प्रकाशित)

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

कौन है सामाजिक और कौन असामाजिक ?

शायद कहीं एक लघुकथा पढ़ी थी। बाद में उसमें मैंने थोड़ा-सा कुछ अपना भी जोड़ दिया। बज़रिए डार्विन हम इंस कहानी में पहुंचते हैं।




पृथ्वी पर तब बंदर ही बंदर थे। आदमी नामक महान जीव का आगमन तब तक नहीं हुआ था। पता नहीं एक बंदर को क्या हुआ कि पट्ठा विद्रोही होना शुरु हो गया। कभी अगले पैर ऊपर उठा लेता और निचले दोनों पैरों पर सारे शरीर का बैलेंस साधते, चलने की कोशिश करता। कभी पेड़ के पत्ते उठाकर शरीर को जगह-जगह ढंकने की कोशिश करता। हांलांकि इन कोशिशों के चलते कभी उसकी कमर में दर्द भी होता तो कभी बंदर समाज में जोरदार खिल्ली भी उड़ती। शुरु में तो बंदर-समाज उसकी हरकतों को ‘‘लाइटली’’ लेता रहा। जब पानी सिर से गुजरने लगा तो बंदरों के सामाजिक आकाओं ने उसे अपने यहाँ तलब किया और पूछा कि भई आखिर तुम्हे हुआ क्या है, ये क्या अजीबो-ग़रीब हरकतें करते रहते हो ! बंदर बोला सर एक ऐक्सपेरिमेंट कर रहा हूँ। क्या पता इंस में कामयाब हो जाऊँ।




‘‘उससे क्या होगा ?’’ बंदराधिपति ने धैर्य बनाए रखते हुए पूछा।




‘‘ तब शायद हम अगले दोनों हाथों से कुछ दूसरे काम कर पाएं जैसे खाना खाना, खाना बनाना, कलम पकड़कर लिखना, कपड़े बनाना-पहनना...वगैरहा.......‘‘




.......‘‘अच्छा तभी पत्ते उठा-उठाकर शरीर पर लपेटते फिरते हो.....’’ बंदराचार्य ने उपहास करते हुए कहा....।‘‘




‘‘सर ठंड के दिनों में शरीर कांपने लगता है ना, शरीर ढंकने से थोड़ी राहत मिलती है.....’’


‘‘चल पाखंडी, शरीर ढंकने के बहाने सैक्स का प्रचार कर रहा है।’’ बंदर-प्रमुख गुस्से में थर-थर कांपने लगे।




‘‘साला, समाज में अराजकता फैला रहा है, निकाल बाहर करो इसे‘‘ एक परंपरावादी बंदर चीखा।




‘‘हमारे धर्म-संस्कृति को भ्रष्ट कर रहा है।’’ एक संस्कृति-पसंद बंदर गुस्से में बाल नोच-नोंचकर कूदने लगा।




‘‘हां-हां, पेड़ से उतरना हमारी सभ्यता के खिलाफ है।’’‘‘सिर्फ दो पैरों पर चलते हुए साले को ज़रा शर्म नहीं आती।’’


‘‘हरामखोर, शरीर के पवित्र अंगों को पत्तों से ढंकता है।’’


‘‘मारो, साले को छोड़ना मत।’’और पत्थरों की बरसात शुरु हो गयी।




मगर वह भी अपनी तरह का एक ही बंदर था। चोट खाता रहा। हंसी उड़वाता रहा। मगर प्रयोग करना नहीं छोड़ा।आखिरकार एक दिन निचले दोनों पैरो पर खड़ा हो गया। हाथों से तरह-तरह के दूसरे काम करने लगा। और आदमी बन गया। देखा-देखी, हंसी उड़ाने वाले, पत्थर मारने वाले, अराजक कहने वालों में से भी कई बंदर उसके रास्ते पर चल पड़े और वे भी आदमी बन गए।




पुराना बंदर समाज अभी भी है और आज भी ‘‘माॅडर्न’’ बंदर-समाज की हंसी उड़ाता है।




बात कपड़े पहनने या उतारने की उतनी नहीं है सिंहल साहेब ! बात यथास्थ्तििवाद से विद्रोह और वक्त और ज़रुरत के हिसाब से खुदको और समाज को बदलने की है। भीड़ के पीछे चलने वाले, रुढ़िवादी और अपनी कोई सोच न रखने वालों ने तो विरोध ही करना होता है, चाहे वह कपड़े उतारना हो या पहनना। अभी सारी दुनिया के लोग कपड़े उतारकर घूमना शुरु कर दे और समाज इसे बहुत प्रतिष्ठा की बात मानने लगे तो यही नग्नता-विरोधी अपने सारे कपड़े फेंककर सबसे आगे खड़े हो जाएंगे और कहेंगे कि सबसे पहले तो यह हमने ही सुझाया थां, विश्वास न हो तो हमारे ग्रंथ-शास्त्र पढ़ लो। उनमें भी यही लिखा है।




आपकी एक ग़लतफहमी दूर कर सकूं तो खुदको सफल समझूंगा। समाज में गतिशीलता और परिवर्तन उन सैकड़ों बंदरों की वजह से नहीं आते जो प्रयोगवादी, विद्रोही और चिंतनशील बंदरों को अराजक, धर्मभ्रष्ट और असामाजिक वगैरहा-वगैरहा कहते हैं। बल्कि उन बंदरों की वजह से आते हैं जो यह सब सुन/सहकर भी अपनी धुन में लगे रहते हैं। सामाजिकता क्या होती है और असामाजिकता क्या, इसपर भी अगली किस्त में ज़रुर बात करेंगे। मेरे द्वारा आपकी टिप्पणी को बतौर पोस्ट छाप दिया जाना आपको मेरे हृदय की विशालता वगैरहा क्यों लग रहा है, इसपर भी बात करेंगे। मज़े की बात यह है कि मैंने अपने पूरे लेख में ‘‘डीसैक्सुअलाइजेशन’’ शब्द का इस्तेमाल ही नहीं किया। फिर भी आपको ऐसा क्यों लगा, इसपर भी बात करेंगे।
-संजय ग्रोवर

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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